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एक्सक्लूसिव – Hill Mail https://hillmail.in Thu, 11 Apr 2024 11:41:13 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5.2 https://i0.wp.com/hillmail.in/wp-content/uploads/2020/03/250-X-125.gif?fit=32%2C16&ssl=1 एक्सक्लूसिव – Hill Mail https://hillmail.in 32 32 138203753 ITBP में न होता तो फुटबॉल या हॉकी खिलाड़ी होता: मनोज सिंह रावत https://hillmail.in/had-i-not-been-in-itbp-i-would-have-been-a-football-or-hockey-player-manoj-singh-rawat/ https://hillmail.in/had-i-not-been-in-itbp-i-would-have-been-a-football-or-hockey-player-manoj-singh-rawat/#respond Thu, 11 Apr 2024 11:41:13 +0000 https://hillmail.in/?p=48884 पहाड़ के सपूत देश में उच्च पदों पर आसीन हैं और अपनी ईमानदारी, कर्मठता और मेहनत की बदौलत लोगों के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन रहे हैं। ऐसी ही एक शख्सियत है मनोज सिंह रावत जो हाल ही में आईटीबीपी के एडीजी पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। वह 1986 बैच के कैडर हैं। उनके पास देश, विदेश में फिल्ड और प्रशिक्षण का व्यापक अनुभव है। उन्हें ऐसे समय में श्रीलंका के कोलंबों में भारतीय उच्चायोग की सुरक्षा में तैनात होने वाले कमांडो दस्ते का नेतृत्व सौंपा गया जब दोनों देशों के संबंध काफी खराब हो चुके थे। विपरित परिस्थितियों और ऐसे मुश्किल दौर में उन्होंने अपनी योग्यता साबित की। उन्होंने नई दिल्ली स्थित मुख्यालय में आईटीबीपी की ऑपरेशन ब्रांच का भी नेतृत्व किया। बाद में उन्हे आईटीबीपी की पश्चिमी कमान की जिम्मेदारी दी गई। उनके कंधों पर लद्दाख, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में चीन के साथ लगती भारत की सीमाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी थी। वह कहते हैं कि अगर मैं आईटीबीपी में न होता तो अच्छा फुटबॉल या हॉकी खिलाड़ी होता। रिटायरमेंट के बाद अब मनोज सिंह रावत पहाड़ के दूर-दराज के स्कूलों को सशक्त बनाने का प्रयास करना चाहते हैं। वह पहाड़ के युवाओं को संदेश देते हैं कि हमारी युवा पीढ़ी को मेहनत, ईमानदारी और शारीरिक ताकत पर ध्यान देना चाहिए। हिल-मेल के संपादक वाई एस बिष्ट ने मनोज सिंह रावत से खास बातचीत की है और उनकी उपलब्धियों, चुनौतियों और आगे के विजन के बारे में जाना है।

आप अपने कैडर के पहले अधिकारी हैं जो एडीजी बने हैं। आप इसको कैसे देखते हैं? एडीजी के कार्यकाल के दौरान आपको किन-किन चुनौतियां का सामना करना पड़ा?

आईटीबीपी का गठन किए हुए 70 वर्ष से अधिक हो गए हैं। इस पद के सृजन से एक जिम्मेदारी का अहसास यह भी होता है कि किस प्रकार से बल के सदस्यों को एक माला में पिरोयें ताकि उनका मनोबल सदैव उच्चतम रहे। वे अपने पारिवारिक एवं बल की जिम्मेदारियों का भली प्रकार निर्वहन कर सकें। मुझे अहसास होता है कि मेरे एडीजी बनने से बल के अधिकारी का मनोबल काफी ऊंचा हुआ है और वो अपनी बातें सहजता से रख पा रहे हैं। चुनौतियां अनेक हैं। सर्वप्रथम आप बल के हजारों सैनिकों का रोल मॉडल हो जाते हैं जिससे आप अपने आपको सदैव उदाहरण के तौर पर रखते हैं। यह भी एक चुनौती है कि किस प्रकार आप बड़े परिप्रेक्ष्य में बल को प्रस्तुत करते हैं। इस बात का विशेष ध्यान रखना कि जाने-अनजाने में कोई ऐसा काम आपसे न हो कि सभी के सम्मान को चोट लगे।

उत्तराखंड की सीमा हमारे पड़ोसी देशों से लगती है। आपके कार्यकाल के दौरान सीमाओं की सुरक्षा के लिए क्या-क्या कदम उठाए गए?

गत 3-4 वर्षों के दौरान सीमा की सुरक्षा को सुदृढ़ बनाने के लिए कई कदम उठाए गए हैं। सीमा की दिन रात निगरानी के लिए पूर्व में पैट्रोलिंग पर ज्यादा निर्भरता थी जो कि उस समय तक सीमित रहती थी, जब तक हम सीमा पर शारीरिक रूप से मौजूद हैं, साथ ही हमारी ऑब्जर्वेशन पोस्ट जो कि लगभग उन स्थानों पर मौजूद है, जहां से पास नजर आता है, केवल उन स्थानों की निगरानी कर पाते थे। लेकिन अब पहले की तुलना हमारी निर्भरता टेक्निकल यूनिट, सर्विलांस गैजेट द्वारा और लंबी दूरी के आधुनिक दूरबीन द्वारा सीमा की चौकसी भी निरंतरता को बढ़ाया है। हमारे एरिया ऑफ रिसपॉन्सबिलिटी की सैटलाइट इमेजिंग लगातार मिलती है, हम लोग पहले की वनस्पत अब सिस्टर ऑर्गनाइजेशन के साथ शेयरिंग ऑफ इंटेशन में बढ़ोतरी हुई है। काफी जगह पर हम ड्रोन टेक्नोलॉजी का उपयोग कर रहे हैं। साथ ही अब पहले के विपरीत सीमा तक सड़कों के बनने से ज्यादा सुगमता हुई है, वहां ज्यादा बार जा सकते हैं।

आपको जिंदगी में क्या करना पसंद था और आपको कैसे कैरियर में सफलता मिली?

बचपन से ही मैं एक अच्छा हॉकी और फुटबॉल का खिलाड़ी था और नेशनल हॉकी में उत्तर प्रदेश सीनियर टीम का व रोहिलखंड यूनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व किया। मुझे खेलने का और शारीरिक फिटनेस का शौक है, साथ ही साथ मैं पढ़ने में अच्छा विद्यार्थी था। मैं मेहनत और लग्न के साथ सभी कार्यों को करना पसंद करता हूं। मैंने शुरुआत से ही लग्न और निष्ठा से नौकरी की। जो भी असाइनमेंट एवं चुनौती मिली, उसे मैंने तन और मन से पूरा किया। जिससे मुझे अपने सीनियर अधिकारियों का विश्वास प्राप्त हुआ। मेरी मेहनत और निष्ठा की बदौलत मुझे निरंतर उच्च स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर की अनेक जिम्मेदारी मिली। इन जिम्मेदारियों को मैंने तन्मयता के साथ निभाया। मेरा सभी सीनियरों और जूनियरों के साथ बहुत अच्छा संबंध रहा। शायद व्यवहार कुशलता और दूसरों की इज्जत करने का स्वभाव भी इसकी वजह हो सकती है।

आप तीन दशक से ज्यादा समय तक आईटीबीपी में सेवारत रहे हैं। आपने अपने कार्यकाल के दौरान किन-किन चुनौतियों का सामना किया और आप अपने सबसे अच्छे कार्यकाल को कब मानते हैं?

मैंने सर्विस की शुरुआत में काफी कोर्स इंडियन और सिविल सेटअप के साथ किए। मुझे श्रीलंका में हाई कमिशन ऑफ इंडिया में आईटीबीपी के कमांडो दस्ते का नेतृत्व करने का मौका मिला। जिस समय श्रीलंका में लिट्टे का आतंक छाया हुआ था व हमारे संबंध भी संदिग्धता के साथ देखे जाते थे। वहां तीन वर्ष आठ माह तक मैंने अपनी टीम के साथ उच्चकोटि की परफॉर्मेंस दी व हम सभी सफल अभियान के बाद वापस आए। यह असाइनमेंट हमारे लिए नॉन फैमिली स्टेशन था। सन् 2012 से 2015 तक मुझे नॉर्थ ईस्ट में डीआईजी की हैसियत से तेजपुर सेक्टर की कमांड दी गई। हमारी तैनाती भारत-चीन सीमा पर थी। काफी दूर-दराज इलाकों में जहां पर पहुंचने में हफ्ते दो हफ्ते का समय लग जाता था, हमारी पैट्रोलिंग 20 से 30 दिन की होती थी। संसाधनों की कमी थी। कनेक्टिविटी बहुत खराब थी, व रहने के लिए भी अच्छी व्यवस्था नहीं थी। इन परिस्थितियों में लोग नॉर्थ ईस्ट की पोस्टिंग आने में कतराते थे। मेरे द्वारा इन परिस्थितियों में निम्न कदम उठाए गए जिससे आज मैं काफी संतुष्ट महसूस करता हूं।

(1) तीन सेमिनार का आयोजन किया जिसको करने की परमिशन भारत सरकार व आईटीबीपी ने दी। इन सेमिनारों में अरुणाचल प्रदेश, मेघालय के गर्वनर, मुख्यमंत्री, असम राइफल के महानिदेशक, प्रदेश के महानिदेश व सभी नॉर्थ ईस्ट में काम करने वाली एजेंसीज ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया और अपने विचार रखे। किस प्रकार हम नॉर्थ ईस्ट पर्टिकुलरली अरुणाचल प्रदेश जहां पर चीन के साथ हमारी सीमा है, वहां पर इन इंफ्रास्ट्रक्चरल डेवलपमेंट, कनेक्टिविटी, सुरक्षा बलों और सहयोगी संगठन के बीच तालमेल (Synergy among security forces and sister organization) इन सभी के द्वारा दिए गए सुझाव को हमने प्लानिंग कमीशन को संस्तुति के साथ भेजा, जिसमें से अधिकतर बातें आज जमीनी हकीकत बनी हुई हैं।

(2) आईटीबीपी के लिए मैंने आठ जगहों पर रहने के लिए जमीन चिन्हित की व उनको एक्वावर करने में सहायता दी। आज उन जगहों पर काफी अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर आ गया है जो कि हमारी ओपीएस क्षमताओं को बढ़ाने में सहायक हुए हैं।

(3) अग्रीम चौकी से पास जाने में काफी समय लगता था जो कि हमारे ऑपरेशनल कार्य में बाधक था। मेरे द्वारा आईटीबीपी के माध्यम से 44 बीओपी और 20 स्टेजिंग कैंप्स के गठन करने का प्रस्ताव भारत सरकार ने अनुमोदित किया और अब हमारी अग्रिम चौकियां सीमा के काफी नजदीक आने में सहायक हुई हैं।

(4) हमारी सीमाओं की निगरानी भौतिक तरीके से किए जाने की वजह से निरंतरता की कमी होती थी। मेरी अध्यक्षता में एक बोर्ड का गठन हुआ जिसे हम कंप्रिहेंसिव इंटीग्रेटिड बॉर्डर मैनेजमेंट सिस्टम (CIBMS) कहते हैं, हमारे द्वारा सीमा को संचार व असूचना व सर्विलांस सिस्टम की पूरी सीमाओं में लगने का सुझाव दिया। जिस पर अमली जामा पहनाया गया है और अब हमारे पास सूचना एकत्रित करने, एनालिसिस करने तथा दिन-रात निगरानी हम बेहतरी के साथ कर रह हैं। वैसे तो पूरी 37 वर्ष 8 महीने की सर्विस में मैंने पूरा लुत्फ उठाया है व पूरी सर्विस में कोई न कोई चुनौती हमेशा आती रही फिर भी मैं अपना कार्यकाल वर्ष 2018 से 2021 का मानता हूं। मैं इस दौरान आईजी ओपीएस/एलएनटी में आईटीबीपी हेडक्वाटर दिल्ली में रहा चूंकि इस दौरान मुझे बल भी ऑपरेशन क्षमता को बढ़ाने के लिए मुझे अनेक अवसर प्राप्त हुए।

मैंने इस समय सीमा पर भी की जाने वाली अनेक कार्यवाहियों के ऊपर सुदृढ़ एसओपी बनाई। साथ ही सन् 2020 में इस्टर्न लद्दाख में चीन के साथ हुए माइनर ऑपरेशन/फेस ऑफ में आईटीबीपी सैनिकों को सीधा मार्गदर्शन करने के मौके के साथ-साथ भारत सरकार को भी ब्रीफ करने के अनेक अवसर मिले। कोविड-19 से हुए उत्पन्न चुनौतियां का हमने एक सुदृढ़ टीम प्रयास से भारत सरकार के निर्देशों का अच्छी तरह से पालन किया जिसमें हमारे बल द्वारा देश का पहला क्वारंटाइन सेंटर छावला दिल्ली में स्थापित किया, वहां चीन के वुहान  से भारत का प्रथम-द्वितीय दल को क्वारंटाइन कराया व एसवीपीसीसीसी 10,000 बेड भी छतरपुर में स्थापित कर सुचारू रूप से चलाया। इसके साथ-साथ मुझे अपने परिवार के साथ छह साल के विछोह के बाद रहने का मौका मिला व इसी दौरान मुझे बल का प्रथम कार्डर का उप-महानिदेशक (एडीजी) बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

आप अपने बारे में बताइए, आप किस गांव में पैदा हुए, आपकी पढ़ाई लिखाई कहां हुई, और आपके परिवार ने पहाड़ों में किस प्रकार का संघर्ष किया?

मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री त्रिलोक सिंह रावत बहुत कम उम्र में पीएससी में भर्ती हुए। उनकी शिक्षा सतपुली में हुई। मेरा जन्म सीतापुर उत्तर प्रदेश पीएससी में हुआ। प्रत्येक वर्ष हम परिवार के साथ अपने गांव बौसाल मल्ला जाते थे और वहां के संघर्ष से मैं भलीभांती परिचित हूं। मेरी प्रारंभिक शिक्षा बरेली में तथा उच्च शिक्षा मुरादाबाद में हुई, जहां पर मेरे पिताजी की तैनाती थी। मेरा गांव जो कि सतपुली-पाटीसैण के बीच में बौसाल मल्ला गांव पड़ता है, वहां पर पहुंचने के लिए हमें डेढ़ घंटे की खड़ी चढ़ाई चढ़नी पड़ती थी। गांव से माध्यमिक स्कूल चार किलोमीटर की दूरी पर था, वहां पहुंचने के लिए तकरीबन डेढ़ घंटा लगता था। हमारे गांव में न तो पानी की अच्छी सप्लाई थी और न ही खेती की उपलब्धता थी। बड़ी मुश्किल का सामना करके हम लोग का लालन-पालन हुआ, जिससे हमें कर्मठ और ईमानदार बनने में सहायता मिली।

आप नई पीढ़ी के युवाओं, खासकर पहाड़ के युवाओं के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?

मैं तो बस इतना ही युवा पीढ़ी से कहना चाहूंगा कि सर्वप्रथम ईमानदारी, मेहनत, शारीरिक ताकत के ऊपर विशेष ध्यान दें। आजकल सरकार द्वारा विभिन्न योजनाएं गांव के उत्थान के लिए बनाई हैं, उसका भरपूर उपयोग करें। अब घर-घर में इंटरनेट की सुविधा व नजदीक में पढ़ाई के संसाधन उपलब्ध हैं, पढ़ाई को तन्मयता से करें, सेना और सरकारी नौकरी के साथ और भी कोई ऑपर्च्युनिटी सामने आती है, तो उसका भरपूर फायदा उठाएं।

हमारी मैग्जीन का एक मोटो है, एक अभियान पहाड़ों की ओर लौटने का, आप उत्तराखंड के लिए क्या करना चाहते हैं?

मैं 31 जनवरी 2024 को सेवानिवृत्त हुआ हूं। मैं अब पहाड़ के दूर-दराज के स्कूलों को सशक्त बनाने का प्रयास करूंगा। मैं चाहता हूं कि उत्तराखंड के युवाओं से मैं निरंतर संवाद रखूं। मैं अपने गांव में घर का निर्माण करने का इच्छुक हूं जो कि मैं कुछ समय में पूरा करूंगा।

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रैबार कार्यक्रम में जनरल बिपिन रावत पर आधारित पुस्तक ‘महायोद्धा की महागाथा’ का विमोचन https://hillmail.in/release-of-the-book-mahayoddha-ki-mahagatha-based-on-general-bipin-rawat-in-raibar-program/ https://hillmail.in/release-of-the-book-mahayoddha-ki-mahagatha-based-on-general-bipin-rawat-in-raibar-program/#comments Sat, 17 Dec 2022 13:59:48 +0000 https://hillmail.in/?p=39532 इससे पहले 8 नवम्बर को आकाश एयर फोर्स मेस, नई दिल्ली में भारत के प्रथम चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत की प्रथम पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया था इस अवसर पर स्वर्गीय जनरल बिपिन रावत के व्यक्तित्व पर आधारित पुस्तक ‘महायोद्धा की महागाथा’ का लोकार्पण किया गया था। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि अजीत डोभाल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एवं विशिष्ट अतिथि वाइस एडमिरल एस एन घोरमडे, एयर मार्शल संदीप सिंह और एयर मार्शल बी आर कृष्णा तथा जनरल रावत की सुपुत्री तारिणी रावत उपस्थित थे। इस अवसर पर श्रीमती मधुलिका रावत, ब्रिगेडियर एल एस लिड्डर, ग्रुप कैप्टेन वरूण सिंह, लेफ्टिनेंट कर्नल हरजिंदर सिंह, विंग कमांडर पी एस चौहान, स्क्वाडर लीटर कुलदीप सिंह, जेडब्लूओ आर पी दास, जेडब्लूओ प्रदीप, हवलदार सतपाल, नायक गुरसेवक सिंह, लांस नायक सांई तेजा और परातरूपर विवेक कुमार को श्रद्धांजली दी गई।

इस अवसर पर एनएसए अजीत डोभाल ने कहा कि जनरल बिपिन रावत बड़े ही परिश्रमी सैन्य अधिकारी थे वह देश के लिए हर समय काम करने के तैयार रहते थे। उन्होंने कहा कि जब चीन के साथ मालला चल रहा था तो तब उन्होंने मजबूती से चीन का मुकाबला किया। वे बड़े सैन्य रणनीतिकार थे। उन्होंने कहा कि अपनी सरल जिंदगी, निस्स्वार्थ सेवा और निर्णायक नेतृत्व के कारण वे न सिर्फ जवानों में बल्कि आम नागरिकों में भी बहुत लोकप्रिय थे। उनकी सोच बहुत सकारात्मक और दूरदर्शी थी। वे समग्रता से सोचते थे और संपूर्णता में एक्शन लेते थे। वह भविष्य की लड़ाइयों को स्वदेशी हथियारों के द्वारा लड़ने की दिशा में बहुत सकारात्मक और ठोस कदम उठा रहे थे।

जनरल बिपिन रावत की पहली पुण्यतिथि पर तीन सेनाओं से जुडे और उनके साथ कार्य कर चुके सैन्य अधिकारियों ने इस कार्यक्रम में आकर अपनी यादें साझा की। इससे पहले जनरल बिपिन रावत की सुपुत्री तारिणी रावत, ब्रिगेडियर एलएस लिड्डर की पत्नी और बाकी दिवगंत परिवारों ने समर स्मारक पर जाकर श्रद्वासुमन अर्पित किये। पुस्तक विमोचन के इस कार्यक्रम में नौसेना के वाइस एडमिरल एस एन घोरमडे, वायु सेना के एयर मार्शल संदीप सिंह और एयर मार्शल बी आर कृष्णा, वाइस एडमिरल दिनेश त्रिपाठी, पूर्व एटीआरओ चीफ अनिल धस्माना, पोर्ट और शिपिंग सचिव सुधांश पंत, डीजी स्पेस एशोसिएशन ले जनरल अनिल भट्ट, डीएमए के ले जनरल अनिल पुरी, डीजी कोस्टगार्ड वीएस पठानिया, एडीजी राकेश पाल, दिल्ली पुलिस के स्पेशल सीपी दीपेंद्र पाठक और तीनों सेनाओं से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी और उनके परिवार श्रद्धांजली सभा में शामिल हुए।

महायोद्धा की महागाथा पुस्तक के लेखक मनजीत नेगी ने पुस्तक के विमोचन करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का आभार व्यक्त किया उन्होंने कहा कि एनएसए जी ने इस पुस्तक को लिखने में मेरा मार्गदर्शन किया और उन्होंने इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी। इस पुस्तक की भूमिका चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ जनरल अनिल चौहान ने लिखी। इसके लिए उन्होंने उनका भी आभार व्यक्त किया।

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एनएसए अजीत डोभाल ने जनरल बिपिन रावत के जीवन पर आधारित पुस्तक ‘महायोद्धा की महागाथा’ का किया लोकार्पण https://hillmail.in/nsa-ajit-doval-released-the-book-mahayoddha-ki-mahagatha-based-on-the-life-of-bipin-rawat/ https://hillmail.in/nsa-ajit-doval-released-the-book-mahayoddha-ki-mahagatha-based-on-the-life-of-bipin-rawat/#respond Thu, 08 Dec 2022 15:02:52 +0000 https://hillmail.in/?p=39343 आकाश एयर फोर्स मेस, नई दिल्ली में भारत के प्रथम चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत की प्रथम पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि स्वरूप उनके व्यक्तित्व पर आधारित पुस्तक ‘महायोद्धा की महागाथा’ का लोकार्पण हुआ। इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि अजीत डोभाल राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एवं विशिष्ट अतिथि वाइस एडमिरल एस एन घोरमडे, एयर मार्शल संदीप सिंह और एयर मार्शल बी आर कृष्णा तथा जनरल रावत की सुपुत्री तारिणी रावत उपस्थित थे। इस अवसर पर श्रीमती मधुलिका रावत, ब्रिगेडियर एल एस लिड्डर, ग्रुप कैप्टेन वरूण सिंह, लेफ्टिनेंट कर्नल हरजिंदर सिंह, विंग कमांडर पी एस चौहान, स्क्वाडर लीटर कुलदीप सिंह, जेडब्लूओ आर पी दास, जेडब्लूओ प्रदीप, हवलदार सतपाल, नायक गुरसेवक सिंह, लांस नायक सांई तेजा और परातरूपर विवेक कुमार को श्रद्धांजली दी गई।

इस अवसर पर एनएसए अजीत डोभाल ने कहा कि जनरल बिपिन रावत बड़े ही परिश्रमी सैन्य अधिकारी थे वह देश के लिए हर समय काम करने के तैयार रहते थे। उन्होंने कहा कि जब चीन के साथ मालला चल रहा था तो तब उन्होंने मजबूती से चीन का मुकाबला किया। वे बड़े सैन्य रणनीतिकार थे। उन्होंने कहा कि अपनी सरल जिंदगी, निस्स्वार्थ सेवा और निर्णायक नेतृत्व के कारण वे न सिर्फ जवानों में बल्कि आम नागरिकों में भी बहुत लोकप्रिय थे। उनकी सोच बहुत सकारात्मक और दूरदर्शी थी। वे समग्रता से सोचते थे और संपूर्णता में एक्शन लेते थे। वह भविष्य की लड़ाइयों को स्वदेशी हथियारों के द्वारा लड़ने की दिशा में बहुत सकारात्मक और ठोस कदम उठा रहे थे।

जनरल बिपिन रावत की पहली पुण्यतिथि पर तीन सेनाओं से जुडे और उनके साथ कार्य कर चुके सैन्य अधिकारियों ने इस कार्यक्रम में आकर अपनी यादें साझा की। इससे पहले जनरल बिपिन रावत की सुपुत्री तारिणी रावत, ब्रिगेडियर एलएस लिड्डर की पत्नी और बाकी दिवगंत परिवारों ने समर स्मारक पर जाकर श्रद्वासुमन अर्पित किये। पुस्तक विमोचन के इस कार्यक्रम में नौसेना के वाइस एडमिरल एस एन घोरमडे, वायु सेना के एयर मार्शल संदीप सिंह और एयर मार्शल बी आर कृष्णा, वाइस एडमिरल दिनेश त्रिपाठी, पूर्व एटीआरओ चीफ अनिल धस्माना, पोर्ट और शिपिंग सचिव सुधांश पंत, डीजी स्पेस एशोसिएशन ले जनरल अनिल भट्ट, डीएमए के ले जनरल अनिल पुरी, डीजी कोस्टगार्ड वीएस पठानिया, एडीजी राकेश पाल, दिल्ली पुलिस के स्पेशल सीपी दीपेंद्र पाठक और तीनों सेनाओं से जुड़े वरिष्ठ अधिकारी और उनके परिवार श्रद्धांजली सभा में शामिल हुए।

महायोद्धा की महागाथा पुस्तक के लेखक मनजीत नेगी ने पुस्तक के विमोचन करने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल का आभार व्यक्त किया उन्होंने कहा कि एनएसए जी ने इस पुस्तक को लिखने में मेरा मार्गदर्शन किया और उन्होंने इस पुस्तक की प्रस्तावना लिखी। इस पुस्तक की भूमिका चीफ ऑफ डिफेंस स्टॉफ जनरल अनिल चौहान ने लिखी। इसके लिए उन्होंने उनका भी आभार व्यक्त किया।

पुस्तक परिचय

रक्षा संवाददाता मनजीत नेगी ने महायोद्धा की महागाथा पुस्तक लिखी है। जिन्होंने जनरल बिपिन रावत के कार्य को नजदीकी से देखा। भारत के प्रथम सी.डी.एस. जनरल बिपिन रावत अदम्य इच्छाशक्ति और अपूर्व दूरदृष्टि-संपन्न महायोद्धा थे। अपने सैन्य जीवन में उन्होंने प्रखरता और तेजस्विता के साथ नेतृत्व किया। उन्हें मालूम था कि वे जिस मिशन पर आगे बढ़ रहे हैं, वह देशहित के लिए है, दूरदर्शी व दूरगामी है; भारतीय सेना के भविष्य की बेहतरी के लिए है। भले ही यह उनके लिए काँटों भरा ताज रहा हो, पर वे कभी नहीं डिगे। उन्होंने सेनाओं में जितने भी सुधार लागू किए, उन्हें पहले खुद पर भी लागू किया। सेनाओं में नैतिक मूल्यों और भ्रष्टाचार के खिलाफ उन्होंने ‘जीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाई। वे सेनाओं में ‘मेक इन इंडिया’ के सबसे बड़े पुरोधा थे। उन्होंने डी.आर.डी.ओ. और सेनाओं के भीतर अंतर्विरोध के बावजूद देश में हथियार और सैन्य साजो-सामान बनाने पर पूरा जोर दिया।

जनरल बिपिन रावत का विराट् व्यक्तित्व, दृढ़ चरित्र और बेहतरीन कार्य कौशल, अतिसामान्य सरल व्यवहार, सबकुछ इतना स्वाभाविक और गैर-बनावटीपन वाला तथा प्रभावोत्पादक था कि जो उनसे एक बार भी मिलता, सहज ही प्रभावित हो जाता। उनकी सैन्य रणनीतियाँ, कार्य-तत्परता, अध्ययन, विश्लेषण, बेखौफ, बेलौस, बेबाक बयानगी, उनकी कर्मशीलता, उनकी मानवीय न्यायप्रियता तथा भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस किसी भी निष्पक्ष और निरपेक्ष को उनके पक्ष में कर देता था।

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माणा में पूर्व सैनिक लोकल फॉर वोकल से युवाओं को कर रहे हैं प्रेरित https://hillmail.in/ex-servicemen-in-mana-are-motivating-youth-with-local-for-vocal/ https://hillmail.in/ex-servicemen-in-mana-are-motivating-youth-with-local-for-vocal/#respond Thu, 27 Oct 2022 09:49:04 +0000 https://hillmail.in/?p=38273 माणा के युवाओं को आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं नरेंद्र सिंह बडवाल

सन् 1966 में माणा गांव बद्रीनाथ धाम चमोली, उत्तराखंड में जन्में पूर्व सैनिक नरेंद्र सिंह बडवाल की प्रारम्भिक शिक्षा कक्षा 5 तक माणा गांव में ही हुई जब वह 9-10 साल के थे तब ही पिताजी का देहान्त हो गया था उन्हें तो अपने पिताजी का चेहरा ठीक सेयाद भी नही था। फिर मां की क्षत्रछाया में आगे की पढ़ाई पूरी की। पीजी कॉलेज गोपेश्वर से कार्मस में ग्रेजुएट करके 1988 में मैदानी क्षेत्र मेरठ में आकर प्राइवेट नौकरी करने लगे और साथ ही सरकारी नौकरी के फार्म भरते हुए तैयारी करने लगे।

उनका चयन अर्द्ध सैनिक बल सीआईएसएफ में उपनिरीक्षक पद पर दिसंबर 1989 को हुआ और फिर टेनिंग के बाद संपूर्ण भारत में सेवारत रहे। सेवा के दौरान एसपीजी में प्रतिनियुक्ति पर प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी एवं मनमोहन सिंह के सुरक्षा में भी सेवा दी।

21 साल सरकारी नौकरी करने के बाद कम्पनी कमांडर पद से वीआरएस लिया और दिल्ली में प्राइवेट नौकरी करने लगे साथ ही साथ पंतजलि योगपीठ हरिद्वार स्वामी रामदेव से योग प्रशिक्षण की टेनिंग लेकर नवयोग ग्राम सर्वोदय सेवा समिति, टनकपुर, चम्पावत उत्तराखंड शाखा दिल्ली से जुड़कर अंशकालिक ‘योगगुरू’ की सेवा प्रदान करने लगे। इस बीच 2019 से 2020-21 तक कोविड महामारी के चलते उनकी प्राइवेट नौकरी भी चली गई।

उत्तरांचल उत्थान परिषद के अध्यक्ष राम प्रकाश पैन्यली द्वारा 2016-17 में दिल्ली में प्रवासी उत्तराखंडियों का पलायन एवं स्वरोजगार का सेमिनार में उन्हें वीके गौड़ के ‘हिट पहाड़’ के कई लेख पढ़े। यू ट्यूब वीडियो देखे, तो तब उन्होंने इनसे प्रेरित होकर फैसला लिया कि अपने गांव जाकर स्वरोजगार करने की ठान ली।

फिर बद्रीनाथ धाम सीजन के दौरान वहां स्थित अंतिम गांव ‘पहला गांव’ माणा में शुरू में चाय और काफी की दुकान 2021 में खोली फिर सोचा कि कुछ हटकर चीज बेचा जाय जो ठंडे क्लाइमेट में शरीर को गर्म रखे इसके लिए लोकल जड़ी बूटी जो उपयुक्त है उसको मिलाकर लोकल जड़ी बूटी से बना टमाटर सूप जो आर्गेनिक है, थकान दूर करती है, गर्मी पैदा करती है, चढ़ाई पर सांस नहीं फूलती है, पाचन ठीक रखता है, भूख बढ़ाती है, आर्युवैदिक एवं स्वास्थ्यवर्धक है, वह इस सूप को देश विदेश से आने वाले पर्यटकों को वाजिब दाम पर देते हैं।

यह सूप पर्यटकों एवं स्थानीय लोगों में बहुत लोकप्रिय हो गया। पर्यटक स्वयं इस सूप का प्रचार व्यक्तिगत रूप से और वीडियो बनाकर सोशल मीडिया के माध्यम से प्रचार करने लगे उनके सुझाव पर फिर इन्होंने आर्गेनिक हर्बल टमाटर सूप पाउडर रेडी टू सर्व पाउच बनाकर भी देने लगे। इस प्रकार से उनकी प्रतिदिन आमदनी डबल 1200-1500 रूपये प्रतिदिन होने लगा। जिससे उन्हें प्राइवेट नौकरी से ज्यादा गांव में स्वरोजगार करने से आय होने लगी और उन्हें अपार सतुष्टि मिली। साथ ही साथ युवाओं को जागरूक कर स्वरोजगार अपनाकर आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

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भगवान रूद्रनाथ के दर्शन के लिए आ रहा पर्यटक 60 मीटर खाई में गिरा, सुबह हेलीकॉप्टर की सहायता से ऋषिकेश एम्स में कराया भर्ती https://hillmail.in/tourist-coming-to-see-lord-rudranath-fell-into-a-60-meter-ditch/ https://hillmail.in/tourist-coming-to-see-lord-rudranath-fell-into-a-60-meter-ditch/#respond Thu, 13 Oct 2022 14:19:52 +0000 https://hillmail.in/?p=37885 आज स्थिति यह है कि यहां आने के लिए विभाग ने आधी अधूरी सड़क बनाई है जिस पर न तो आदमी चल सकते है और न कोई और। कार्यदायी विभाग प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना ने सड़क वही से बनाई है जहां पर ग्रामीणों का पौराणिक पैदल मार्ग था अब स्तिथि यह है की न तो पैदल मार्ग बचा है और न ही विभाग द्वारा बनाई गई सड़क।

कल पश्चिम बंगाल के तीन पर्यटक भगवान रूद्रनाथ के दर्शन हेतु उर्गम से डुमक आ रहे थे वह जो नई सड़क बनाई गई है उससे आ रहे थे जो कि गांव से 2 किमी पहले विभाग द्वारा बनाई गई है। यह मार्ग अत्यधिक खराब होने के कारण तीन में से एक पर्यटक अचानक पत्थर में फिसलने से लगभग 60 मीटर खाई में जा गिरा और पर्यटक गंभीर रूप से घायल हो गया जहां पर न तो कोई फोन संपर्क था और न ही दूसरा साधन। उनमें से एक पर्यटक गांव में आया तथा गांव वालों को इसकी जानकारी दी था गांव वालों ने मिलकर स्टेचर के साथ रात्रि 8 बजे घटना स्थल पर पहुंचे तथा घायल पर्यटक को गांव में पहुंचाया तथा उसका प्राथमिक उपचार किया गया।

रात को ही ग्रामीणों द्वारा आवश्यक सेवा 112 पर बात की गई तथा ग्रामीणों ने जिला प्रशासन को सूचना दी जिसके बाद जिला प्रशासन ने अग्रिम कार्यवाही करते हुए एसडीआरएफ से बात की। एसडीआरएफ के द्वारा प्रातः 10ः00 बजे हेलीकॉप्टर ग्राम डुमक में भेजा गया तथा घायल पर्यटक को ऋषिकेश एम्स पहुंचा दिया गया।

आज यह सारी स्थिति विभाग प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना लोक निर्माण विभाग पोखरी के कारण बनी हुई है इस सड़क का निर्माण कार्य 2007-08 से चल रहा है किन्तु अभी तक रोड़ ना के बराबर बनी है आसपास के लोग शासन से मांग कर रहे है कि इस सड़क का कार्य जल्द से जल्द पूरा किया जाए तथा भविष्य में इस प्रकार की घटना का दोबारा सामना न करना पड़े।

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सीमांत क्षेत्र धारचूला के डॉ राजेश सिंह रौतेला ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में बनाया एक मुकाम https://hillmail.in/dr-rajesh-singh-rautela-of-dharchula-frontier-area-made-a-mark-in-the-field-of-health/ https://hillmail.in/dr-rajesh-singh-rautela-of-dharchula-frontier-area-made-a-mark-in-the-field-of-health/#respond Tue, 04 Oct 2022 12:03:57 +0000 https://hillmail.in/?p=37749 उत्तराखंड के लोग देश के अलग अलग क्षेत्रों में अपने राज्य का नाम रौशन कर रहे हैं उनमें से एक हैं डॉ राजेश सिंह रौतेला। इनका जन्म सन् 1962 में तहसील धारचूला, जिला पिथौरागढ़, उत्तराखंड में हुआ। प्राथमिक शिक्षा गांव के ही प्राथमिक विद्यालय में ही हुई। कक्षा 5 उत्तीर्ण करने के पश्चात जूनियर एवं हाईस्कूल की शिक्षा जी.आई.सी. पिथौरागढ़ एवं जी.आई.सी. धारचूला से प्राप्त की। सन् 1978 में इंटरमीडिएट की पढाई बरेली से पूर्ण की।

डॉ. रौतेला बचपन से ही भारतीय सेना में ऑफिसर बनकर अपने देश की सेवा करना चाहते थे परन्तु उनके भाग्य ने साथ नहीं दिया और सन् 1972-73 में फुटबॉल खेलते समय गिरने से उनके दाहिने पांव के कुल्हे की हड्डी में चोट लगने के कारण उनका दाहिना पैर करीब 1 से 1.5 सेमी छोटा होने साथ-साथ दाहिने कुल्हे की गति में कमी आ गयी और वह शारीरिक अपूर्णता की श्रेणी में आ गए। सन् 1979 में सी.पी.एम.टी. (उ.प्र.) की परीक्षा के द्वारा चयनित होकर मोती लाल नेहरू मेडिकल कालेज, इलाहबाद में एमबीबीएस में प्रवेश लिया।

मेडिकल कॉलेज में पढाई के दौरान डॉ. रौतेला ने अपने पैरों की अक्षमता के होते हुए भी कॉलेज की कई सारी खेल-कूद प्रतियोगिताओं भाग लेकर कई पुरुस्कार प्राप्त किये। उनकी विशेष रूचि फुटबॉल तथा हॉकी में थी और कॉलेज की टीम के सदस्य भी रहे। कालेज में सामाजिक तथा सांस्कृतिक कार्यकलापों में सक्रिय रूप में भाग लेने के साथ ही, इलाहाबाद में तरुण हिमालय संगठन की स्थापना में भी सक्रिय योगदान दिया।

उन्होने सन् 1984 में एम.बी.बी.एस. तथा सन् 1989 में एम.डी. (एनेस्थेसियोलोजी) की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1990-1993 तक गुरु तेग बहादुर अस्पताल में सीनियर रेजिडेंट के पद पर कार्य किया और सन् 1994 में यू.पी.एस.सी. द्वारा चयनित होकर भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के असिस्टेंट प्रोफेसर, एनेस्थेसियोलोजी पद पर गुरु तेग बहादुर अस्पताल में कार्यभार ग्रहण किया। सन् 2008 में डायरेक्टर प्रोफेसर के पद पर प्रोन्नत हुए।

कोरोना महामारी के बेहद कठिन समय के दौरान जून 2020 में दिल्ली सरकार द्वारा गुरु तेग बहादुर अस्पताल के मेडिकल डायरेक्टर की जिम्मेदारी दी गयी। यह समय स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करने एवं प्रशासनिक रूप से बहुत ही कठिन और चुनौतीपूर्ण समय था।

डॉक्टर रौतेला ने इस कोरोना महामारी के दौरान एक कुशल प्रशासक और कुशल चिकित्सक के तौर पर कार्य करते हुए गुरु तेग बहादुर अस्पताल में मरीजों के समुचित इलाज लिए बहुत सारी सुविधाएं (ओक्सीजेन, वेंटिलेटर एवं आई.सी.यू. बेड इत्यादि) बढ़ाकर मानवता की सेवा करते हुये कोरोना महामारी की सभी लहरों का डटकर मुकाबला किया और अपने समस्त स्वास्थ्य सेवा कर्मियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कोरोना से पीड़ित मरीजों को सेवा प्रदान करते हुए अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा।

चूंकि डॉ. रौतेला चिकित्सक होने के साथ-साथ एक चिकित्सा शिक्षक भी हैं इसलिए वह कुछ समय एनेस्थेसियोलोजी विभाग में रहकर शिक्षण कार्य करना चाहते थे अतः महामारी के दौरान करीब डेढ़ वर्ष तक अपनी मेडिकल डायरेक्टर के पद की जिम्मेदारियों को बखूबी निभाने के पश्चात जब कोविड महामारी करीब-करीब समाप्त हो गयी तब सन् 2021 दिसम्बर में डॉ. रौतेला मेडिकल डायरेक्टर के पद को त्याग कर अपने मूल विभाग एनेस्थेसियोलोजी एंड क्रिटिकल केयर में डायरेक्टर प्रोफेसर के पद पर वापस आ गए।

डॉ. रौतेला को अप्रैल 2022 में एनेस्थेसियोलोजी एंड क्रिटिकल केयर विभाग गुरु तेग बहादुर अस्पताल एवं यूनिवर्सिटी कालेज ऑफ़ मेडिकल साइंसेज के विभागाध्यक्ष पद की जिम्मेदारी दी गयी और तब से विभागाध्यक्ष पद पर रहते हुए विभाग के प्रशासनिक, चिकित्सा सेवा तथा शैक्षणिक स्तर को सुधारने का निरंतर कार्य कर रहे हैं। डॉ. रौतेला, अपने अभी तक के शिक्षण काल में 35 से अधिक शोध प्रकाशनों के लेखक रहे हैं और उनके मार्गदर्शन में 40 से अधिक एनेस्थेसिया के स्नातकोत्तर छात्रों ने शोधकार्य सम्पन्न किया है।

वह इंडियन सोसाइटी ऑफ एनेस्थेसियोलॉजिस्ट (आईएसए), नेशनल एसोसिएशन ऑफ क्रिटिकल केयर मेडिसिन (एनएसीसीएम) तथा रिसर्च सोसाइटी ऑफ एनेस्थिसियोलॉजी क्लिनिकल फार्माकोलॉजी (आरएसएसीपी) के भी सदस्य हैं। डॉ. रौतेला सन् 2001-02 में इंडियन सोसाइटी ऑफ एनेस्थेसियोलॉजिस्ट (आईएसए) दिल्ली शाखा के कोषाध्यक्ष के पद पर भी कार्य कर चुके हैं।

डॉ. रौतेला एनएसीसीएम के संयुक्त सचिव हैं, और एनएसीसीएम के आधिकारिक जर्नल एशियन आर्काइव्स ऑफ एनेस्थिसियोलॉजी एंड रिससिटेशन के एसोसिएट एडिटर के रूप में भी सक्रिय योगदान दे रहे हैं। डॉ. रौतेला ने राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम जैसे की पोलियो निर्मूलन (10 वर्ष) एवं मीजल्स टीकाकरण (5 वर्ष) कार्यक्रमों में टीम लीडर के रूप में योगदान दिया है।

डॉ. रौतेला को शिक्षक दिवस के अवसर पर दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन ने चिकित्सा एवं स्वास्थ्य शिक्षा के क्षेत्र में असीम योगदान के लिए “प्रख्यात चिकित्सा और स्वास्थ्य शिक्षा शिक्षक पुरस्कार“ से सम्मानित किया तथा माइंड्रे हेल्थकेयर ने एनेस्थिसियोलॉजी के क्षेत्र में शिक्षण और प्रशिक्षण में अनुकरणीय योगदान के लिए प्रशंसा पुरस्कार से सम्मानित किया है।

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एक मंदिर ऐसा जहां 68 वर्षों से चल रहा है पुराण सप्ताह https://hillmail.in/one-such-temple-where-purana-week-is-running-for-68-years/ https://hillmail.in/one-such-temple-where-purana-week-is-running-for-68-years/#respond Tue, 27 Sep 2022 03:26:51 +0000 https://hillmail.in/?p=37521 डॉ. मोहन चंद तिवारी

समूचे उत्तराखंड में कुमाऊं मंडल के अंतर्गत द्वाराहाट स्थित श्री नागार्जुन देव का प्राचीन विष्णु मंदिर एक ऐसा मंदिर है, जहां विगत 68 वर्षों से नागार्जुन ग्रामवासी मिलकर प्रतिवर्ष नियमित रूप से भाद्रपद मास में 2 गते से पुराण ‘सप्ताह’ का आयोजन करते आए हैं, जिसमें अठारह पुराणों में से किसी एक पुराण की कथा का प्रवचन प्रतिवर्ष किया जाता है।

‘श्री विष्णु मन्दिर निर्माण एवं भागवत कथा समिति’, ग्राम नागार्जुन द्वारा आयोजित इस कथा-सप्ताह के व्यासाचार्य चनोली ग्राम के प्रसिद्ध कथावाचक श्री गणेशदत्त शास्त्री, साहित्याचार्य विशारद हैं, जो पिछले अनेक वर्षों से नागार्जुन’ के कथा सप्ताहों में व्यासाचार्य का दायित्व निर्वहन करते आए हैं। इसी पुराण सप्ताह के दौरान शास्त्री जी ने भागवतपुराण, देवीपुराण, शिवपुराण, वामन पुराण आदि विभिन्न पुराणों की कथाओं का प्रवचन किया है।

द्वाराहाट से लगभग 10-11 कि.मी. की दूरी पर नागार्जुन (नगार्झण) गांव में स्थित श्री नागार्जुन देव का प्राचीन विष्णु मंदिर उत्तराखंड के उन प्राचीन ऐतिहासिक मंदिरों में परिगणित है, जिसका उल्लेख स्कंदपुराणान्तर्गत ‘मानसखंड’ में भी मिलता है।

उत्तराखंड के पौराणिक भूगोल की दृष्टि से यही स्थान ‘सुरभि’ नदी का उद्गम स्थान है, जो दक्षिण की ओर बहती हुई विभांडेश्वर क्षेत्र में ‘नंदिनी’ नदी से संगम करती है। मान्यता है कि इस पवित्र स्थान में विष्णु भगवान् ‘नागार्जुन’ नाम से विराजमान रहते हैं।

स्कंदपुराणान्तर्गत ‘मानसखंड’ में नागार्जुन पर्वत की स्थिति पश्चिमी रामगंगा ‘रथवाहिनी’ नदी के बाईं ओर बताई गई है जहां प्राचीन काल में ‘अर्जुन’ नामक नाग की पूजा होती थी इसलिए इसे ‘नागार्जुन’ कहा जाता है।

लोकप्रचलित किंवदन्ती के अनुसार प्राचीन काल में यहां घना जंगल था। एक ग्वाला प्रतिदिन अपनी गायों को चराने इस जंगल में आया करता था मगर उसकी एक गाय ऐसी थी जो इस जंगल में स्थित एक शिला के ऊपर अपने थनों का दूध निखार आती थी और घर में दूध नहीं देती थी इसलिए ग्वाला उस गाय से बहुत दुःखी था।

एक दिन ग्वाले ने गुप्त रूप से गाय का पीछा किया। प्रतिदिन की तरह गाय ने जब शिला के ऊपर दूध की धार गिराई तो ग्वाले को गुस्सा आ गया। उसने कुल्हाड़ी से उस शिला पर चोट मारी जिससे शिला का ऊपरी भाग छिन्न-भिन्न हो गया।

कालान्तर में चन्द्रवंशी राजाओं के शासन काल में राजा उद्योत चन्द पश्चिम दिशा में विजय करने के लिए प्रयाण कर रहे थे तो इसी गांव में ‘राजाटौ’ नामक स्थान पर उनका शिविर पड़ा। रात में राजा को स्वप्न में आज्ञा हुई कि “राजन् यहां घनी झाड़ी के नीचे विष्णु मन्दिर की मूर्ति है।

आप यहां पर उनका मंदिर बना कर पूजा-अर्चना की व्यवस्था करें। आप की विजय सुनिश्चित है।” प्रातः काल राजा ने मंत्रियों के समक्ष अपने स्वप्न को बताया। ढूंढने पर उन्होंने झाड़ी में खंडित मूर्ति को देखा। राजा ने संकल्प किया कि यदि वे अपने युद्ध अभियान में सफल हुए तो यहां मंदिर अवश्य बनाएंगे।

दैवयोग से राजा उद्योत चन्द अपने युद्ध प्रयाण में विजयी हुए। राजा ने इसी विजय के उपलक्ष्य में यहां मंदिर बना कर उसकी प्राण प्रतिष्ठा करवाई। राजा ने अपने पुरोहित गंगोली के उप्रेती ब्राह्मणों को यहां भगवान् विष्णु की पूजा-अनुष्ठान के लिए नियुक्त किया।

नागार्जुन मंदिर में राजा उद्योतचन्द ने ताम्रपत्र द्वारा अपनी राजाज्ञा का लेखन भी करवाया है जिसमें समीपवर्ती कुछ गांव भी इस मंदिर को दान में दिए गए है और उस ताम्रपत्र में इन गांवों की रकम का अंश इस मंदिर के पुजारियों को देने का प्रावधान भी किया गया है।

जहां तक द्वाराहाट विकासखंड में स्थित इस पौराणिक मंदिर की भौगोलिक पृष्ठभूमि है, उसका स्कंदपुराणान्तर्गत ‘मानसखंड’ के ‘विभांडेश्वरमाहात्म्यम्’ में यह वर्णन मिलता है कि भगवान् शिव ने हिमालय की चोटियों पर अपने शिरों को रखकरॉ नील पर्वत पर कमरॉ नागार्जुन पर्वत पर दाहिना हाथ, भुवनेश्वर पर्वत पर बांया हाथ और दारुका वन में चरणों को स्थापित कर रखा है…

‘नागार्जुन’ का ‘विभांडेश्वर’ तीर्थ के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। ‘नागार्जुन’ नामक स्थान पर ही ‘देवधेनु’ सुरभि गाय का रूप त्याग कर नदी के रूप में बहने लगी थी और विभांडेश्वर महादेव के समीप पहुंची।

मैं पिछले अनेक वर्षों में ‘नागार्जुन’ मंदिर में होने वाले धार्मिक आयोजनों का प्रत्यक्षदर्शी भी रह चुका हूं तथा ऐसे कार्यक्रमों के प्रति शोधात्मक रुचि रखने के कारण पिछले वर्षों में इनकी विडियोग्राफी तथा फोटोग्राफी करने का सौभाग्य भी मुझे मिला है।

‘नागार्जुन’ मंदिर के ऐसे ही आयोजनों में से सन् 2008 में आयोजित शतचंडी महायज्ञ के आयोजन की स्मृतियां आज भी मस्तिष्क पटल में ताजा बनी हुईं हैं। बताना चाहूंगा कि आज भी दिल्ली, चंडीगढ़ पटियाला, हरियाणा आदि दूरदराज में बसे उत्तराखंड के प्रवासीजन अपने तीर्थ तुल्य ‘नागार्जुन’ देवस्थान के प्रति अगाध आस्थाभाव रखते हुए इस आयोजन को अपना तन-मन-धन से सहयोग देते आए हैं।

यह वर्ष इसलिए भी विशेष गौरवशाली वर्ष है कि नागार्जुन विष्णुमंदिर का भव्य देवालय बना है। इसके लिए नागार्जुन ग्राम तथा इसके निर्माण में तन-मन-धन से सहयोग देने वाले धर्मप्राण बंधुओं का विशेष अभिनन्दन है।

तेरह वर्ष पूर्व सन् 2008 के वार्षिक समारोह के अवसर पर पुराणकथा के साथ साथ सहस्रचंडी यज्ञ का भी जब भव्य आयोजन हुआ था तब उत्तराखंड के प्रसिद्ध संत मौनी महाराज जी का स्नेहपूर्ण सान्निध्य भी इस आयोजन को प्राप्त हुआ था। द्वाराहाट, रानीखेत, भिकियासेन के विधायक भी इस समारोह में उपस्थित हुए तथा भारद्वाज कुटी भासी से परमहंस रामचंद्र दास महाराज जी ने भी इस समारोह की शोभा को बढ़ाया।

क्षेत्र के गण्यमान्य साधुसंतों और बुद्धिजीवियों की उपस्थिति से ऐसा प्रतीत होता था मानो कि शिष्टता, अनुशासन और भक्तिभाव की इस त्रिवेणी में श्रद्धालुजन धर्माभिषेक कर रहे हों। इंद्रदेव भी मरुद्गणों के साथ अपनी द्रुतगति से इस शतचंडी महायज्ञ में आहुति देना चाहते थे इसलिए वे भी पुराण सप्ताह के दौरान धाराप्रवाह बरस कर अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहे थे।

अनेक मित्रों की जानकारी हेतु मैं इस ‘विष्णु महापुराण कथा-सप्ताह’ के अवसर पर सन् 2008 में शतचंडी महायज्ञ के उपलक्ष्य में आयोजित ऐतिहासिक कलश शोभायात्रा, मंदिर परिक्रमा यात्रा आदि के दुर्लभ चित्रों को भी अवलोकनार्थ पोस्ट कर रहा हूं, ताकि जन सामान्य भी जान सके कि उत्तराखंड आज भी पुराण सप्ताह आदि धार्मिक आयोजनों को कितने उत्साह और श्रद्धाभाव से करता आया है।

आशा है इन चित्रों के माध्यम से इस भागवत कथा समारोह के अवसर पर उत्तराखंड के भव्य तीर्थ नागार्जुन देव और उनकी दिव्य महिमा का दर्शन दूर दराज़ के लोगों को भी हो सकेगा।

प्राकृतिक आपदाओं के इस संकट काल में, भगवान् विष्णु स्वरूप दीनबंधु नागार्जुन देव से प्रार्थना है कि वे परम कृपानिधान हम सब दुःखी जनों का कष्टनिवारण करते हुए हमारा कल्याण करें। पहाड़ में अन्न, धन और पशुधन की समृद्धि करते हुए हरियाली व खुशहाली का मार्ग प्रशस्त करें।

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जल, जंगल, जलवायु का संकट https://hillmail.in/water-forest-climate-crisis/ https://hillmail.in/water-forest-climate-crisis/#respond Thu, 22 Sep 2022 05:11:59 +0000 https://hillmail.in/?p=37370 एयर मार्शल वीपीएस राणा, पूर्व एयर ऑफिसर इन चार्ज एडमिनिस्ट्रेशन

हिमालय क्षेत्रों में वातावरण के संतुलन के लिए जल सरंक्षण और जंगलों का रख रखाव एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। आए दिन की प्राकृतिक आपदाओं से हमारे पहाड़ नष्ट हो रहे हैं जिसमें जान माल की क्षति के अलावा वातावरण का असंतुलन एक बड़ी चिंता का विषय है।

स्थानीय स्तर पर बहुत से ग्रामीणों द्वारा छोटे मोटे प्रयत्न किए जाते हैं लेकिन वो इतने बड़े मुद्दे को हल करने के लिए काफी नहीं होते। केंद्र और राज्य सरकार की नीतियां भी या तो स्थानीय मुद्दों को ध्यान में रख कर नहीं बनाई जाती या अगर अच्छी नीतियां बन भी जाती हैं तो स्थानीय स्तर तक पहुंच नहीं पातीं।

सबसे पहले तो हमें जल, जंगल और जलवायु को स्थानीय मुद्दा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए क्योंकि हिमालय क्षेत्रों में होने वाले किसी भी असुंतलन के परिणाम बहुत दूरगामी होते हैं। फिर चाहे वो मुद्दा ग्लेशियर के जल्दी जल्दी पिघलने का हो, आकस्मिक तेज बारिश के कारण आई बाढ़ का हो या जंगलों के कटने या आग में जलने से हुए वातावरण के नुकसान की बात हो। हर तरह से नुकसान स्थानीय स्तर पर सीमित नहीं रहता।

इसलिए ये ज़रूरी है कि इन समस्याओं का समाधान भी बड़े स्तर पर ही किया जाना चाहिए जिसमें केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय प्रशासन और स्थानीय लोगों की पूरी भागीदारी हो। वातावरण से जुड़ी सारी समस्याएं भी आपस में जुड़ी हैं इसलिए सभी समस्याओं का समाधान भी समग्र रूप से होना चाहिए।

अगर हम पर्यावरण से संबंधित सबसे बड़ी समस्या देखें जिससे पिछले कई सालों से हिमालय के क्षेत्र खासकर उत्तराखंड बुरी तरह ग्रसित हैं वो है आकस्मिक मूसलाधार बारिश से तबाही जिसे हम बादल फटने के नाम से जानते हैं। जहां एक और ये त्रासदी पर्यावरण में हो रहे बदलाओं का नतीज़ा है वहीं दूसरी ओर हमारे द्वारा इनको रोकने के लिए किए गए प्रयासों की कमी है।

इस तरह की अकस्मात बारिश से जान माल के नुकसान की खास वजह है नदी नालों में तेज बहाव से बहता पानी जो जमीन को काटता हुआ चला जाता है और रास्ते में तमाम खेत और मकानों को ढहा कर ले जाता है। मैदानों में बाद इस तरह का नुकसान नहीं करती।

साल दर साल इस तरह के कटाव से पहाड़ और भी कमज़ोर हो गए हैं और हर मानसून के बाद पिछली बार से ज्यादा तबाही हो जाती है। हाल के दिनों में उत्तराखंड के कई इलाकों में भूस्खलन से बहुत भारी नुक्सान हुआ जिसमें मैदानी इलाके जैसे राजधानी देहरादून भी शामिल है। सभी नालों और नदियों में आकस्मिक मूसलाधार बारिश से कई जगह खेती और मकानों को बहुत नुकसान हुआ।

2013 में हुई केदारनाथ की त्रासदी को याद कर आज भी मन सिहर उठता है। इस त्रासदी में लगभग 7000 लोगों की जान गई और कितने ही लोग लापता हो गए। उफनते नालों और नदियों के पानी ने अपने किनारों पर बसे तमाम गांव और शहरों को तबाह कर दिया। 13 से 17 जून तक हुई इस तबाही का मुख्य कारण था भयंकर बारिश की वजह से चोराबरी ग्लेशियर का पिघलना और मंदाकिनी नदी में उफनती बाढ़ का आना।

2021 में भी चमोली जिले में ग्लेशियर पिघलने से आई बाढ में तपोवन जलविद्युत परियोजना को भारी क्षति पहुंची और ऋषिगंगा, धौलीगंगा और अलकनंदा के किनारे बसे गांवों और शहरों में भी बहुत क्षति हुई तथा तपोवन बांध में काम करने वाले मजदूरों सहित 200 से ज्यादा लोग मारे गए।

यहां ये बात महत्वपूर्ण है की अगर तपोवन बांध से पानी के बहाव में अवरोध नहीं हुआ होता तो ये हादसा बहुत बड़ा हो सकता था जिससे काफी दूर तक के इलाकों में जान माल का भयंकर नुकसान होता।

क्या इन सब प्राकृतिक आपदाओं से बचने का कोई उपाय नहीं ? क्या हम इस सबके लिए बेहतर तरीके से तैयार नहीं हो सकते जिससे कम से कम नुकसान हो ? ऐसा क्यों है कि पहाड़ कटने या टूटने से इस तरह की तबाही दुनिया के बाकी देशों में नहीं होती ?

ये समझ पाना इतना मुश्किल भी नहीं है। हमें ये समझना चाहिए कि अगर पानी का बहाव नदी नालों में किसी तरह से कम किया जाए तो पानी की मात्रा और तेजी से जो कटाव होता है वो कम हो सकता है। हमारे पहाड़ तथाकथित विकास के लिए हो रहे कार्यों की वजह से कटते जा रहे हैं जिससे पहाड़ की कच्ची मिट्टी बारिश की मार सह नहीं पाती और भूस्खलन के साथ मलबे के रूप में बह जाती है। बहुत तेज बारिश में पानी के बहाव को रोकने के लिए पेड़ों की कमी और उफनते पानी को रोकने में असमर्थ छोटे छोटे नाले धीरे धीरे विकराल रूप ले लेते हैं।

पानी के बहाव को रोकने या कम करने के लिए और भूस्खलन और जान माल के नुकसान को कम करने के तरीके हैं जिन्हें विश्व में कई देशों ने अपनाया है। ये इस प्रकार हैं –

  • बारिश के पानी को छोटे छोटे प्राकृतिक या मानव निर्मित जलाशयों में एकत्रित करना। जिससे पानी ज्यादा मात्रा में बहकर निचले इलाकों तक न पहुंचे।
  • पहाड़ों की ढलान पर नालियों से जल के बहाव को अवरुद्ध कर उसे इन जलाशयों की तरफ मोड़ना। जंगलों और पहाड़ों में कृत्रिम जलाशयों के बनाने से अनेक फायदे हैं। जैसे जंगल में आग लगने पर पानी की उपलब्धता, जानवरों को आसानी से पानी की पूर्ति और उनकी गांवों की तरफ पलायन में रोक, जंगल में पानी के स्तर में बढ़ोतरी और आग के खतरे में कमी। इसके अलावा पानी के जो प्राकृतिक स्रोत हैं उनका पुनः प्रवर्तन आदि।
  • जंगलों में ऐसे पौधों को बहुतायत में लगाना जो जड़ों में पानी को रोकने की क्षमता रखते हैं जैसे हमारे परिप्रेक्ष्य में बांझ के पेड़। पेड़ों के सरंक्षण के लिए वन विभाग द्वारा कई उपाय किए जा रहे हैं, लेकिन स्थानीय जाति के पौधों से जंगल को बढ़ाने की दिशा में और काम करने की जरूरत है जिससे जंगल घने हों जो पानी को रोकने में कारगर हों।
  • ग्लेशियर की देख रेख और खास कर उसके मुहानों को मजबूत करना। यूरोप के कई देश अपने ग्लेशियर की देख भाल करते हैं ताकि वहां अचानक बर्फ के पिघलने के खतरे को ताला जा सके।
  • सबसे कारगर उपाय है नालों और गदेरों में हर कुछ दूरी पर छोटे छोटे बांध बनाना जिन्हें चेक डैम भी कहा जाता है। इन बांधों से स्थानीय किसानों को भी जल आपूर्ति होगी और बाढ से होने वाले नुकसान को भी काम किया जा सकेगा।
  • नदियों पर श्रृंखलागत तरीके से छोटे छोटे जलविद्युत योजनाएं बनाना। ये वातावरण की दृष्टि से भी सही है क्योंकि छोटे बांधों से स्थानीय पारिस्थितिकी को भी नुकसान नहीं पहुंचेगा।
  • टूरिज्म और विकास को वातावरण की दृष्टि से संतुलित करना।
  • पहाड़ों पर सड़कों के आस पास या जहां पर पानी के बहाव से मिट्टी की कटान का खतरा हो उन जगहों को पक्का करना। ऐसी जगहों पर पानी के बहाव को बदल कर दूर मोड़ना भी बहुत जरूरी है। पहाड़ों में अक्सर जहां से एक बार पहाड़ टूटने लगता है वो कच्चा होकर बार बार टूटने लगता है। उस जगह पानी को रिसने से बचाने के उपाय बहुत जरूरी हैं।

पहाड़ और खास कर उत्तराखंड के पहाड़ बहुत समय से मौसम की मार झेल रहे हैं और धीरे धीर कमज़ोर होते ये पहाड़ हर बार एक नई आपदा को जन्म देते हैं। हमारी नीतियां ज्यादातर आपदा के प्रबंधन को महत्व देती हैं लेकिन सबसे ज्यादा जरूरत है आपदा को रोकने की। इस सबमें सबकी भागीदारी बहुत जरूरी है, स्थानीय लोगों की, राज्य सरकार की और केंद्र सरकार की।

हर जंगल को न सिर्फ बचाने की बल्कि सही तरीके से और बढाने और घना करने की जरूरत है। इसी तरह प्रधानमंत्री द्वारा सब जगह अमृत सरोवर बनाने का जो आवाह्न है उसे हर गांव, हर जंगल, हर शहर में कारगर करने की भी सख्त जरूरत है।

उदाहरण के तौर पर पुणे में वन विभाग ने इसी वर्ष वहां के पहाड़ों पर बारिश से आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए जलाशय और चेक डैम बनाए हैं। वहां तलीज, वेटल और अन्य पहाड़ियों पर बसे लोगों को लगातार भूस्खलन और बाढ़ से नुकसान होता था।

तीन साल पहले स्थानीय लोगों की शिकायत करने पर वन विभाग ने ये कार्य शुरू किया और पहाड़ों पर ऊपर और नीचे सभी जगह तालाब बनाए और कई जगह चेक डैम बनाए जिससे अब पानी के बहाव को पूरी तरह नियंत्रित कर बाढ़ के खतरे से स्थानीय लोगों को मुक्ति मिली।

प्रधानमंत्री ने आज़ादी के अमृत महोत्सव में हर गांव हर शहर में अमृत सरोवर बनाने का आवाह्न किया है। उत्तराखंड वैसे ही पवित्र कुंड और तालों के लिए प्रसिद्ध है लेकिन वो सब प्राकृतिक हैं और बहुत ही कम ताल या कुंड हैं जिन्हें कृत्रिम रूप से बनाया गया है।

आज हर उत्तराखंड के निवासी को बीड़ा उठाने की जरूरत है कि अपने जल और जंगल की सुरक्षा करें, और उन्हें और विस्तृत और विकसित करें, और अधिक से अधिक ताल और कुंड बनने का संकल्प लें, ताकि उत्तराखंड की प्राकृतिक सुंदरता और बढ़े और भविष्य में आने वाली आपदाओं को रोका जा सके।

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युवाओं को प्रशिक्षण और स्व-रोजगार से ही रूकेगा पलायन https://hillmail.in/youth-will-stop-migration-only-through-training-and-self-employment/ https://hillmail.in/youth-will-stop-migration-only-through-training-and-self-employment/#comments Wed, 21 Sep 2022 05:27:08 +0000 https://hillmail.in/?p=37324 – मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) गुलाब सिंह रावत

मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) गुलाब सिंह रावत अपने 37 साल के लम्बे कार्यकाल के बाद एडीजी टीए के पद से सेवानिवृत हुए और देश-विदेश में उन्होंने देश की सेवा की। उन्होंने बताया कि मेरे परिवार का कोई भी व्यक्ति सेना में नहीं है, लेकिन इस महान भारतीय सेना का हिस्सा होने पर मैं अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझता हूं और यह वास्तव में मेरा एक सपना था जो पूरा हुआ था।

जब मैंने प्रवेश लिया, तब ट्रेनिंग के बारे में और किस प्रकार के माहौल से गुजरना होगा, इस बारे में मैं बिल्कुल ही अनजान था। डेढ़ साल के प्रशिक्षण के बाद, भारतीय सेना की एक सर्वश्रेष्ठ रेजीमेंट, डोगरा रेजीमेंट की 7वीं बटालियन में कमीशन किया। जब मुझसे शाखा (आर्म्स) के बारे में पूछा गया, तब मैंने अपने पिता से बात की; तब उन्होंने मुझे खुशी-खुशी कहा कि जो कुछ भी मिले उससे खुश रहना।

मेजर जनरल गुलाब सिंह रावत ने कहा कि यह बड़ी ही शानदार यात्रा रही। मैं राष्ट्रीय बाल विद्या मंदिर, लुधियाना का छात्र रहा हूं। जून 1985 में, आईएमए, देहरादून से मैंने डोगरा रेजीमेंट की 7वीं बटालियन में कमीशन प्राप्त किया। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान विविधतापूर्ण और समृद्ध अनुभव के साथ, विशेषकर अपने देश के पूर्वी और उत्तरी क्षेत्र में विभिन्न प्रकार की लड़ाइयों और भूक्षेत्रों में सेवा की वह श्रीलंका में भारतीय शांति रक्षक बल का एक हिस्सा रहे तथा कांगो में संयुक्त राष्ट्र मिशन में भी शामिल रहे।

उन्होंने उरी सेक्टर में मैंने 7 डोगरा की कमान सम्हाली और प्रसिद्ध अमन सेतु पुल को खोलने में विशेष योगदान दिया, जिससे होकर श्रीनगर को मुज़फ्फराबाद (पाक अधिकृत कश्मीर) से जोड़ने वाली ऐतिहासिक बस सेवा 7 अप्रैल 2005 को आरंभ हुई। मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) गुलाब सिंह रावत की हिल मेल के संपादक वाई एस बिष्ट के साथ साथ हुई बातचीत के प्रमुख अंश:-

1. आप अपने बारे में बताइये, आप किस गांव में पैदा हुए आपकी पढ़ाई लिखाई कहां हुई ?

मेरा जन्म उत्तराखंड के दूरस्थ क्षेत्र, रथ के गांव चान्गिन (तिरपालीसैण) में हुआ और इस क्षेत्र के लोग राठी कहलाते हैं। मेरे पिता ने 1950 में गांव छोड़ दिया, जिसका मूल कारण यह था कि वे सेना में भर्ती नहीं होना चाहते थे। मेरे दादा चाहते थे कि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते मेरे पिता सेना में जाएं। 1950 में वे जालंधर चले आए और अपने एक परिचित के घर रहे और उन्होंने वहां काम करना शुरू कर दिया। साथ ही उन्होंने अपनी पढ़ाई भी जारी रखी, क्योंकि गांव में उन्होंने 10वीं ही पास की थी।

मेरा जन्म 1963 में हुआ और उसी साल उन्होंने लुधियाना में अपना स्कूल खोल लिया और वे एक शिक्षाविद बन गए। 5 वर्ष की आयु में मैं अपने पिता के पास आ गया, लेकिन मेरी मां अभी भी गावं में ही थी। वित्तीय दिक्कतों के कारण, वे उन्हें अपने पास नहीं बुला सकते थे और वे अपने संस्थान, राष्ट्रीय बाल विद्या मंदिर को अपना सब कुछ समर्पित करना चाहते थे। मैंने अपनी स्कूली शिक्षा लुधियाना में आरंभ की और तीन साल बाद, मेरी बहनों के साथ मेरी मां भी लुधियाना आ गईं।

मेरे पिता आरएसएस गतिविधियों और सामाजिक क्रियाकलापों में सक्रिय रूप से शामिल थे; स्कूल के बाद, वे मुझे साइकिल से एक शिक्षक के पास छोड़ जाते थे और फिर वे लोगों की और अपने संस्थान की समस्याओं के समाधान के लिए लुधियाना में घूमते रहते थे तथा रात में वापसी पर वे मुझे उन शिक्षक के घर से ले लेते थे तथा फिर हम साथ में रात का खाना खाते थे।

मेरे पिता बड़े सख्त, अपने वचन के पक्के थे। उनके सामने कोई बोल नहीं सकता था। वे बड़े ही परिश्रमी, निष्कपट और समर्पित व्यक्ति थे। वे बच्चों को अपनी साइकिल पर स्कूल लाते थे, क्योंकि अभी यह शुरूआत थी और वे सबसे अलग भी थे; बाद में यह स्कूल सीनियर सैकेंडरी हो गया।

उन्होंने अपने संस्थान को सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए हर संभव प्रयास किए और परमात्मा की कृपा से वे अपने इस प्रयास में सफल भी हुए और इसके बाद, उन्होंने उत्तराखंड के कई व्यक्तियों को शिक्षा के क्षेत्र में आने के लिए प्रोत्साहित किया और आप आज देखेंगे कि लुधियाना में अधिकतर स्कूल उत्तराखंड के लोगों द्वारा चलाए जा रहे हैं।

मैंने कठिनतम समय भी देखा है, जब मैं और मेरे पिता साथ-साथ रहते थे; वे मेरी देख-भाल करते, मेरे खाने-पीने और मेरे कपड़ों का ध्यान रखते और साथ ही अपने सामाजिक जीवन के साथ-साथ अपने कारोबार को भी सम्हालते थे। वे ऐसा कैसे कर पाते थे, मैं तो सोच भी नहीं सकता – यह तो मेरे लिए असंभव ही था। उन पर मुझे गर्व होता है और मैं बड़ा सौभाग्यशाली था कि मुझे ऐसे माता-पिता मिले।

2. आपके परिवार में कौन कौन लोग हैं और आपके परिवार ने पहाड़ों में किस प्रकार का संर्घष देखा ?

हम दो भाई और तीन बहनें हैं। मैं बुवाखाल (पौड़ी के निकट) से अपने गांव तक पैदल जाता था, जिसमे मुझे करीब तीन दिन लग जाते थे, लेकिन मैंने कभी भी अपने पिता से नहीं कहा कि मैं गांव नहीं जाऊंगा। हर वर्ष, गर्मियों की छुट्टियों में, वे मुझे गांव ले जाते थे और हम वहां 30 से 45 दिनों तक रहते थे।

बाद में, अपने मां, भाई और बहनों सहित मेरा पूरा परिवार गांव जाता था, जहां न तो बिजली थी, न ही सड़क और न ही कोई बाज़ार, बस हम और हमारा परिवार होता था। पानी का निकटतम स्रोत एक किलोमीटर दूर था। मेरे गांव से निकटतम दुकानें करीब 7 से 10 मिलोमीटर दूर थीं। आज भी, हम अपनी संस्कृति, विरासत को बनाए रखे हुए हैं, और अपने गांव जाते हैं। मेरे परिवार में पत्नी अनुपमा रावत और पुत्र अंकित तथा पुत्री गरिमा है।

3. आप अपने कैरियर में कैसे कैसे आगे बढ़े ?

सेना में शामिल होना मेरा सपना था। 12वीं के बाद, मैं एनडीए की योग्यता सूची में नहीं आ सका, इसलिए मैंने सोचा कि शायद मेरे लिए कुछ और होगा, मैं बहुत निराश था। ग्रेजुएशन के बाद, मैंने केवल एक बार एनडीए के लिए प्रयास किया था, इसलिए मैंने सोचा कि एक बाद सीडीएस के लिए प्रयास करूं, लेकिन उन्हीं दिनों एमबीबीएस के लिए मेरी कोशिशें चल रही थीं, क्योंकि 12वीं के बाद में उसे कर नहीं पाया था।

मैं सीडीएस, एसएसबी में सफल हो गया और सेना में जाने का मेरा रास्ता साफ हो गया, लेकिन मेरे माता-पिता खुश नहीं थे, लेकिन बाद में मेरे पिता ने मुझसे कहाः जो तुम्हें अच्छा लगे, करो, चुनना तुम्हें ही है। तब उन्होंने मुझे बताया कि यदि मेरे दादा जीवित होते, तो वे मुझे भारतीय सेना में जाते देख कर, दुनिया में सबसे खुश व्यक्ति होते। क्योंकि मेरे पिता बिल्कुल भी नहीं चाहते थे कि मैं सेना में शामिल हो जाऊं और इससे बचने के लिए वे बिना किसी को बताए घर छोड़कर चले गए। इस तरह वे जालंधर पहुंच गए और बाद में लुधियाना।

मेरे पिता कठिनाइयां झेलते रहे, ताकि हम सभी को और परिवार को अच्छे से अच्छा प्रदान कर सकें। वे एक सहृदय, दूसरों का खयाल रखने वाले तथा धुन के पक्के व्यक्ति थे। वे उत्तराखंडियों में बहुत ही लोकप्रिय थे और गढ़वाल के अपने लोगों के लिए या किसी अन्य मुद्दे पर सदैव ही अतिरिक्त प्रयास करने को तत्पर रहते थे, क्यों गढ़वाल के हमारे इलाके मंे कुछ भी नहीं था।

मेरे परिवार का कोई भी व्यक्ति सेना में नहीं है, लेकिन इस महान भारतीय सेना का हिस्सा होने पर मैं, अपने आप को बहुत भाग्यशाली समझता हूं और यह वास्तव में मेरा एक सपना था, जो पूरा हुआ था। जब मैंने प्रवेश लिया, तब ट्रेनिंग के बारे में और किस प्रकार के माहौल से गुजरना होगा, इस बारे में मैं बिल्कुल ही अनजान था। बहुत सारी रगड़पट्टी से भरे बड़े ही स्मरणीय दिन थे वे।

डेढ़ साल के प्रशिक्षण के बाद, भारतीय सेना की एक सर्वश्रेष्ठ रेजीमेंट, डोगरा रेजीमेंट की 7वीं बटालियन में कमीशन किया गया। जब मुझसे शाखा (आर्म्स) के बारे में पूछा गया, तब मैंने अपने पिता से बात की; तब उन्होंने मुझे खुशी-खुशी कहा कि जो कुछ भी मिले उससे खुश रहना, लेकिन तुम्हारे चाचा ने, जो वायुसेना में हैं, मुझे बताया था कि आराम के लिहाज से सेनाएं सबसे अच्छी हैं।

मैंने अपने पिता से कहा, यदि मुझे सेना में रहना है, तो मैं केवल लड़ाकू सेनाओं में जाऊंगा। इसके साथ ही सेना में मेरी पारी आरंभ हो गई। यह बड़ी ही शानदार यात्रा रही है। मैं राष्ट्रीय बाल विद्या मंदिर, लुधियाना का छात्र रहा हूं। सभी खेल-कूदों में उत्कृष्ट खिलाड़ी रहा। पढ़ाई के अलावा दूसरी गतिविधियों, नाटकों और वाद-विवादों आदि में हिस्सा लेता रहा।

जून 1985 में, आईएमए, देहरादून से मैंने डोगरा रेजीमेंट की सातवीं बटालियन में कमीशन प्राप्त किया। सैंतीस वर्षों के विविधतापूर्ण और समृद्ध अनुभव के साथ, मैंने विशेषकर अपने देश के पूर्वी और उत्तरी क्षेत्र में विभिन्न्ा प्रकार की लड़ाइयों और भूक्षेत्रों में सेवा की है और मैं, श्रीलंका में भारतीय शांति रक्षक बल का एक हिस्सा रहा तथा कांगो में संयुक्त राष्ट्र मिशन में भी शामिल रहा।

उरी सेक्टर में, मैंने 7 डोगरा की कमान सम्हाली और प्रसिद्ध अमन सेतु पुल को खोलने में मेरा विशेष योगदान रहा, जिससे होकर श्रीनगर को मुज़फ्फराबाद (पाक अधिकृत कश्मीर) से जोड़ने वाली ऐतिहासिक बस सेवा का 7 अप्रैल 2005 को आरंभ हुई। एक ब्रिगेड कमांडर के रूप में, मैंने प्रसिद्ध और ऐतिहासिक पीर पंजाल ब्रिगेड की कमान सम्हाली। महू के इन्फैंटरी स्कूल में इंस्ट्रक्टर रहा और कमान तथा सेना मुख्यालय स्तर पर कई महत्वपूर्ण और संवेदनशील पदों पर रहा।

कांगो में संयुक्त राष्ट्र शांति रक्षक मिशन में मिलटरी आब्ज़र्वर रहा तथा श्रीलंका में भारतीय शांति रक्षक दल का भी हिस्सा रहा। प्रतिष्ठित डिफेंस सर्विसिज़ स्टाफ कालेज, वेलिंगटन का ग्रेजुएट होने के साथ-साथ मैंने सिंकदराबाद के रक्षा प्रबंधन कालेज से उच्च रक्षा प्रबंधन कोर्स किया।

डैगर डिविज़न की कमान सम्हालने के दौरान वीरता तथा विशिष्ट सेवा के लिए सम्मानित किया गया, 161 इन्फैंटरी ब्रिगेड (आपरेशन रक्षक) की कमान के दौरान युद्ध सेवा पदक, 7 डोगरा (आपरेशन रक्षक) में सेवा के दौरान सेना पदक, थलसेनाध्यक्ष प्रशस्ति पत्र और जनरल आफीसर कमांडिंग इन चीफ प्रशस्ति पत्र (दो बार) प्राप्त हुए। जम्मू कश्मीर के बारामूला में अपने कार्यकाल के दौरान मैंने ऑपरेशन सदभावना के तहत यहां के बच्चों के कल्याण के लिए बहुत काम किये।

एफटीआईआई पुणे के सहयोग से यहां के बच्चों को सिनेमा के बारे में जानकारी दी गई और इस काम को करने के लिए एफटीआईआई के डॉरेक्टर भूपेंद्र कैंथोला का बहुत सहयोग मिला। उन्होंने अपनी टीम को यहां भेजकर बच्चों के लिए बहुत काम करवाया। जिससे कि यहां के बच्चों में जो आतंक का डर था उसको दूर करने में काफी मदद मिली। एक साल के लिए आईएमए के डिप्टी कमांडैंट के रूप में एक संक्षिप्त कार्यकाल रहा। अंत में, 31 अगस्त 2021 में सेना मुख्यालय के आईएचक्यू से एडीजी टीए के रूप में सेवानिवृत्त हुआ।

4. आपको क्या करना पसंद है?

उत्तराखंड के गांवों में रहने वाले नौजवानों की सशस्त्र सेनाओं और सेंट्रल आर्मड पुलिस फोर्सेस (सीएपीएफ) के लिए तैयारी करने में मदद करना। अपने भविष्य के नौजवानों को जहां भी और जो भी व्यवसाय अपनाने में अपना श्रेष्ठतम योगदान करने के लिए प्रतिबद्ध बनाने और उन्हें प्रेरित करने के उद्देश्य से उनके साथ समय गुजारना।

उत्तराखंड के गांवों के लोगों से जुड़े रहना और उनके कौशल को संवारने और उन्हें स्वतंत्र बनाने के लिए हर संभव सहायता प्रदान करना और आत्मनिर्भर भारत तथा स्किल इंडिया का हिस्सा बनना। खिलाड़ी होने के नाते, मुझे हर तरह के खेल खेलना पसंद है और अपने नौजवानों के साथ कोई भी खेल खेलने और उन्हें भविष्य के लिए तैयार करने में मुझे बड़ा आनंद आता है।

5. आप सेवानिवृत हो गये हैं आप अब अपने राज्य को क्या लौटाना चाहते हैं ?

मेरा बचपन पंजाब में गुजरा, मैंने वहीं से अपनी शिक्षा दीक्षा की है। अब मैं पंजाब से उत्तराखंड चला आया हूं और मैंने चरणबद्ध रूप से निम्नलिखित कार्य करने के लिए भविष्य के परिप्रेक्ष्य में उत्तराखंड के गांवों का दौरा करना शुरू कर दिया है।

  • शराब और नशीले पदार्थों पर नियंत्रण,
  • गांवों में रहने वाले लोगों के मैदानी इलाकों में पलायन को रोकने के लिए लोगों को प्रशिक्षण देना और स्व-रोजगार के लिए तैयार करना,
  • अपनी पुरानी विरासत पर जोर देना और राज्य सरकारों तथा विभिन्न एनजीओ की मदद से कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देना,
  • गढ़वाल और कुमाऊं क्षेत्रों के अंदरूनी भागों में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बुनियादी सुविधाओं को उन्नत बनाने के लिए लोगों को सरकारी और स्थानीय संसाधनों के उपयोग के लिए प्रोत्साहित करना,
  • लोगों को उनकी जड़ों से जोड़ना, जिसके लिए गांवों में वापस पलायन के लिए कार्यक्रमों और उत्सवों का आयोजन करना।
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रक्षा उत्पादन में भारत की आत्मनिर्भरता https://hillmail.in/indias-self-reliance-in-defense-production/ https://hillmail.in/indias-self-reliance-in-defense-production/#respond Tue, 20 Sep 2022 05:35:16 +0000 https://hillmail.in/?p=37287 रियर एडमिरल (से.नि.) ओम प्रकाश सिंह राणा 

भूतपूर्व महा निदेशक नौ सेना आयुध निरीक्षण & महा प्रबंधक ब्रह्मोश एयरोस्पेस

 

स्वतंत्रता उपरांत से आज तक हमारी अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा रक्षा सौदों पर खर्च होता आया है। इसका कारण सही प्राथमिकताएं, वातावरण या नीतियों में कमी आदि कुछ भी हो, आज भी भारत रक्षा सामान के आयात में विश्व के दूसरे या तीसरे स्थान पर है। विगत वर्षों में इस क्षेत्र में काफी उन्नति हुई है और वर्तमान सरकारी नीतियां भी इस दिशा में एक अच्छा वातावरण प्रदान करती हैं। फिर भी पूर्ण रूप से आत्मनिर्भरता अभी भी बहुत दूर है। इस पृष्ठ भूमि में मैंने रक्षा उत्पादन क्षेत्र में आत्मनिर्भरता पर अपने विचार रखने का प्रयास किया है।

भू-राजनीति तथा सामरिक वातावरण के अनुसार राष्ट्रीय सुरक्षा की नीति और आवश्यकतानुसार सुरक्षा सामग्री और मानव संसाधनों की रूप-रेखा बनती है। रक्षा सामाग्री की कीमतें सामाजिक, तकनीकी, राजनीतिक और व्यापारिक दृष्टि से बहुत अधिक होती है और इनके आयात में खर्च की गयी धनराशि, राष्ट्र के अन्य क्षेत्रों में उन्नति और जनता की मूलभूत सुख सुविधा योजनाओं पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।

इसलिए रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता हर राष्ट्र की एक दूरगामी जरूरत है और इसके लिए देश में उचित रक्षा अनुसंधान, तकनीकी प्रबंधन और आधुनिक उत्पादन कारखानों की आवश्यकता होती है। साथ ही इन क्षमताओं को समयबद्ध रूप में विकसित करने में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा खर्च होता है।

इसलिए उचित आर्थिक अनुकूलन व्यवस्था से विदेशी आयात और स्वदेशीकरण के मध्य सही समन्वय से रक्षा उपकरणों की आपूर्ति हेतु छोटे और लम्बी अवधि में आयात तथा स्वदेशीकरण रोडमैप द्वारा नीति निर्धारण की जाती है। लेकिन लम्बी अवधि में आत्मनिर्भरता ही एकमात्र समाधान है।

अगर हम 1947 के पहले देश में रक्षा उत्पादन पर नजर डालें, तो हम पायेंगे कि प्रथम विश्व युद्ध के आसपास अंग्रेजों ने भारत में आयुध निर्माणी कारखाने कोरडाइट फैक्ट्री अरुवनकाडू, आयुध निर्माणी खमरिया और गन केरिएज फैक्ट्री जबलपुर तथा गन – शैल फैक्ट्री कोशीपुर और आयुध निर्माणी डमडम, कोलकाता में थे।

 

इन कारखानों में तोपें, केरिएज, गोला बारूद और बम आदि का निर्माण होता था। इस प्रकार इन आयुधों से अंग्रेजी शासन की प्रशांत महासागर तथा दक्षिण पूर्व एशिया में सुरक्षा सामाग्री की काफी हद तक जरूरत पूरी होती थी और उचित आपूर्ति प्रबंधन से आर्थिक बचत भी।

स्वतंत्रता के बाद इन कारखानों में उत्पादन सीमित रहा। इसके मुख्य कारण थे; भारत की सुरक्षा नीति दिशा-बद्ध हो रही थी, स्वदेशी रक्षा उत्पादन और आत्मनिर्भरता हेतु सीमित दिशा निर्देश तथा स्वदेशी तकनीकी, वैज्ञानिक मानव संसाधन और उत्पादन आधार में कमी। साथ ही सरकार का ध्यान पड़ोसियों से अच्छे सामाजिक, राजनीतिक एवं सौहार्दपूर्ण संबंधों पर केंद्रित था। लेकिन 1962 के चीनी हमले के कारण भारत को सुरक्षा व्यवस्था की आवश्यकताओं का अहसास हुआ।

 

समय के साथ, भू-राजनीति तथा सामरिक वातावरण में परिवर्तन, शीत युद्ध, अमेरिका द्वारा पाकिस्तान को बड़ी मात्रा में हथियारों की आपूर्ति आदि से देश की बढ़ती सुरक्षा जरूरतों की पूर्ति हेतु प्रक्रिया शुरू हुई। धीरे-धीरे स्वदेशी तकनीकी एवं वैज्ञानिक मानव संसाधन का विकास किया गया, सुरक्षा संस्थान स्थापित किए गए और आयुध कारखानों का भी विस्तार हुआ।

इसके अंर्तगत सुरक्षा जरूरतों के लिए भारत का सोवियत संघ/रूस से सामरिक समझौता हुआ और बड़ी मात्रा में रूस से तीनों सेनाओं के लिए रक्षा सामग्री का आयात प्रारम्भ हुआ। कई आयुध निर्माणियों और सरकारी उत्पादन कारखाने स्थापित किये गये और देश में रक्षा सामाग्री का लाइसेंस प्रबंधन के अंतर्गत उत्पादन की नीव पड़ी।

देश की रक्षा अनुसंधान – विकास संगठन (डीआरडीओ) को पुनः व्यवस्थित किया गया और रक्षा सामानों के स्वदेशीकरण में दिशागत काम शुरु हुआ। आयुध निर्माणी कारखानों की संख्या में वृद्धि हुई, भारतीय शिपयार्डों में युद्धक जहाजों का उत्पादन शुरू हुआ। इन परिवर्तनों से देश की मूलभूत आवश्यकताओं की कुछ हद तक पूर्ति तो हुई, लेकिन फिर भी वर्ष 2000 तक बड़ी मात्रा में रक्षा सामान विदेशों से ही आयात होता रहा।

धीरे-धीरे, आयात किए गए रक्षा उपकरणों के रखरखाव हेतु, देश के रक्षा और निजी कारखानों में क्रिटिकल कल पुर्जों का स्वदेशीकरण शुरु हुआ। सेनाओं, वैज्ञानिक तथा उत्पादन संस्थानों में उचित समन्वय और प्रबंधन से क्रिटिकल कल पुर्जों के स्वदेशीकरण में सफलता के बाद, सब-सिस्टम तथा सिस्टम लेबल रक्षा सामानों के स्वदेशीकरण का मार्ग प्रशस्त हुआ और विदेशी मुद्रा की बचत की शुरुआत हुई।

स्वदेशीकरण एक जटिल और लम्बी प्रक्रिया है। इसके लिए देश में एक मजबूत शैक्षणिक, तकनीकी तथा अभियांत्रिकी, ज्ञानाधार, विकसित तकनीकी का उत्पादन, उत्पादन आधार, परीक्षण, आदि की आधारिक सुविधाएं और सशस्त्र सेनाओं की भागीदारी की नितांत आवश्यकता होती है। इन सब मूलभूत सुविधाओं के बिना आत्मनिर्भरता की बात करना भी बेकार है।

यहां ध्यान देने योग्य बात ये है कि स्वदेशीकरण हेतु बाहरी देशों से कोई सहयोग नहीं मिलता क्योंकि, कोई भी देश किसी भी कीमत पर अपना डिजाइन, व्यक्तिगत मालिकाना हक दूसरे देश को नहीं देगा। उत्पादन के बाद सिस्टम की गुणवत्ता और आवश्यकताओं के अनुरूप स्वीकार करने हेतु जल, थल और हवाई परीक्षण होता है। इन सब प्रक्रियाओं में किसी भी उपकरण के स्वदेशीकरण में समय लगता है।

पिछले दशकों के प्रयास से हमारे शैक्षणिक एवं तकनीकी संस्थानों, रक्षा अनुसंधान – विकास संगठन, शस्त्र सेनाओं और सरकारी/ प्राइवेट उत्पादन कारखानों ने काफी उन्नति की है और आगे भी प्रयास जारी हैं। शैक्षणिक एवं तकनीकी क्षेत्र में हमारे देश में कई तकनीकी संस्थान (आईआईटी, एनआईटी, आईआईएससी), तकनीकी विश्वविद्यालय, सुरक्षा अनुसंधान – विकास संगठन की 50 से ज्यादा प्रयोगशालाएं, वैज्ञानिक तथा औद्योेगिक अनुसंधान परिषद की प्रयोगशालाएं एवं अन्य कई वैज्ञानिक संस्थान स्थापित किए गये हैं जो कि हमारे आत्मनिर्भरता में बहुत बड़ी ताकत है।

रक्षा उत्पादन हेतु 40 से भी ज्यादा आयुध निर्माणी फैक्टरियां और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (मझगांव डोक, गोआ शिपयार्ड, हिंदुस्तान शिपयार्ड, गार्डन रीच, कोचीन शिपयार्ड, भारत इलेक्ट्रोनिक्स, भारत फोर्ज, भारत हेव्वी एलेक्ट्रिकल्स, भारत डाइनामिक्स, ईसीआइएल, आदि) हैं। खुशी की बात है कि, आज विभिन्न रक्षा उपकरण देश में ही विकसित और निर्मित हो रही हैं।

आज देश में निजी शिपयार्डों तथा कंपनियां; टाटा, एल – टी, रिलायेंस इंडस्ट्री, महेंद्रा, गोदरेज, ब्रह्मोस एयरोस्पेस, जिंदल डिफेंस, अस्त्रा, डेटा पेटर्न, अनंत, कल्याणी ग्रुप, डायनामेटिक, अशोक लीयलेंड, काल्टेक इंजीनियरिंग, लाखों एमएसएमई और अन्य कई निजी उत्पादन कंपनियां है। कई का तो विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त समझौते भी है।

ये सब मिलकर भारत को एक विशाल उत्पादन क्षमता और आत्मनिर्भर बनाने का बृहत आधार है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सरकार की आत्मनिर्भरता हेतु उदारवादी नीतियां, विदेशी निवेश में बढ़ोतरी, विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त उत्पादन, अनुसंधान एवं विकास, मेक इन इंडिया हेतु प्रोत्साहन, उचित दिशा निर्देश आदि कुल मिलाकर आज देश में स्वदेशीकरण हेतु अत्यंत और अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं।

आज निजी कंपनियों की रक्षा सामाग्री उत्पादन में बड़ी भागीदारी है। हर्ष की बात है कि कुछ निजी कंपनियां जहाजों, तोपें, मिसाइलें, क्रिटिकल इलेक्ट्रोनिक तथा मेकेनिकल सिस्टम, फेब्रिकेसन, पावर उत्पादन सिस्टम, रडार, संचार सिस्टम, उच्च इनर्जी बैट्रियां, रोकेट लांचर, मानव रहित एरियल व्हेकिल आदि का उत्पादन कर रहे हैं।

आयुध निर्माणी बोर्ड का विभिन्न सरकारी उपक्रमों मे पुनर्व्यवस्था एक बहुत बड़ा कदम है और इसके परिणाम लाभदायक सिद्ध हो रहे हैं। थोड़ा ही सही पर आज भारत रक्षा सामाग्री का भी निर्यात करता है, जो कि इस समय लगभग 17,000 करोड़ रुपये है और वर्ष 2024 तक इसे 35,000 करोड़ सालाना करने का लक्ष्य है।

आज देश में सामरिक रक्षा सामग्री के विकास में निजी कंपनियों की बहुत बड़ी भागीदारी है। देश ने इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग क्षेत्र में बहुत तरक्की की है। सरकारी तथा निजी उत्पादन कारखानों में नई तकनीकों, कंप्यूटर चालित मशीनों का जाल बिछा हुआ है।

कुल मिलाकर आज देश के डिजाइन, सरकारी और निजी उत्पादन संस्थानों, गुणवत्ता, रखरखाव, सेनाओं और सरकार सभी संस्थानों के मध्य उचित समन्वय है। सेनाएं रक्षा जरूरतों के अनुसार रक्षा उपकरणों की ‘स्टाफ रिक्वाइरमैंट’ द्वारा उस उपकरण का सामान्य परिचालन विवरण, आर्थिक, सेल्फ लाइफ, गुणवत्ता, रखरखाव, परीक्षण प्रक्रिया, समयबद्ध आपूर्ति, आदि के बारे में पूरी जानकारी देती है और सही संपर्क भी रखती है।

फिर सफलतापूर्वक डिजाइन, उत्पादन, परीक्षण आदि प्रक्रिया के बाद उपकरण को सेना द्वारा स्वीकार किया जाता है और इनके रखरखाव और दैनिक इस्तेमाल प्रक्रिया, ट्रेनिंग, उत्पादन डोकुमेंटेशन, आदि से उपकरणों के ‘प्रारब्ध से अंत’ तक नीति से लाइफ साइकिल प्रबंधन किया जाता है और यही आत्मनिर्भरता नीति अन्य सेनाओं में भी सफल हो रहा है और होता रहेगा।

सेनाओं की आवश्यकतानुसार, निकट और दूरगामी सुरक्षा योजनाओं के तहत डीआरडीओ से तालमेल द्वारा समयबद्ध स्वदेशीकरण/ आत्मनिर्भरता योजनाएं बनाई गयी हैं। सरकार द्वारा विदेशी खरीद और स्वदेशीकरण हेतु रक्षा खरीद गाइड, रक्षा उत्पादन नीतियां और रक्षा खरीद प्रक्रिया भी जारी किए हैं। स्वदेशीकरण हेतु सरकार, उत्पादन संस्थानों और सेनाओं में पारदर्शिता है। कोई भी भारतीय कंपनी विदेशी कंपनियों के साथ संयुक्त डिजाइन, उत्पादन, संयुक्त उत्पादन, विदेशी निवेश नीति, आफसेट क्लोज आदि के द्वारा रक्षा सामान का उत्पादन कर सकती है।

इस प्रक्रिया से रक्षा उपकरणों की समय पर आपूर्ति, उनके कीमत में कमी और साथ ही उचित पैसे की कीमत पर सामान भी मिलेगा। नौ सेना द्वारा डिजाइन विमान वाहक युद्धपोत विक्रांत और एके-630 अम्युनिसन का क्रमशः ‘कोचीन सिप्यार्ड’ तथा ‘इकोनोमिक इक्सप्लोसिव कम्पनी’ नागपुर द्वारा सफलतापूर्वक उत्पादन कर नौ सेना को समर्पण करना आत्मनिर्भरता प्रक्रिया का एक उत्तम उदाहरण हैं।

आत्मनिर्भरता पथ पर अग्रसर होने के लिए एयरोस्पेस और रक्षा सेक्टर में डिफेंस इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर की स्थापना, 500 से अधिक रक्षा सामानों के आयात पर प्रतिबंध, देश की उत्पादन संरचना और विश्वास को प्रदर्शित करता है। साथ ही सरकार ने 2025 तक घरेलू रक्षा उत्पादन का $25 बिलियन और निर्यात का $5 बिलियन का लक्ष्य रखा है।

इसके अलावा सामरिक भागीदारी मॉडल के अंतर्गत भी देश में युद्ध पोतों, लड़ाकू विमानों, हेलिकॉप्टरों, टैंकों, आदि की प्रक्रिया एक उत्तम कदम है। सरकार द्वारा, सेना की जरूरतों के लिए, वार्षिक बजट का 70 प्रतिशत देश में खर्च करने, रक्षा सामान का भारत मे निर्माण और आयात पर प्रतिवंध इस दिशा में एक सही प्रयास है। लेकिन, इन रक्षा सामाग्रियों के सभी सब-सिस्टम/ कम्पोनेंट देश में ही निर्माण की क्षमता हो, यही सही मायने में आत्मनिर्भरता है।

आज भारत आत्मनिर्भरता पथ पर अग्रसर हो रहा है। इनमें आधुनिक युद्धपोत, लडाकू विमान, हेलिकॉप्टर, टैंक, मिसाइलें, टोरपीडो, माइन्स, राकेट, गोला बारूद, तोपें, रोकेट लान्चर तथा कई पारंपरिक एवं सामरिक मिसाइल सिस्टम (अग्नि क्रम की मिसाइलें, आकाश, नाग क्रम की मिसाइलें, एमआरसेम, पानी के नीचे से मार करने वाली बेलेस्टिक मिसाइलें, वरुणास्त्र टोरपीडो, ब्रह्मोस मिसाइल आदि), रडार, संचार प्रणाली, मिसाइल लांचर, नेटवर्क प्रणाली, आदि मुख्य हैं।

मेरे विचार से ये पहला चरण है और इनमें निरंतर डिजाइन सुधार, एक सामान्य प्रक्रिया रहेगी और आधुनिक सामरिक जरूरतों के अनुसार हमारे रक्षा वैज्ञानिकों द्वारा नई तकनीकी का स्वदेशी विकाश और उत्पादन में लगातार महत्वपूर्ण भागीदारी रहेगी। अंत में सभी डीआरडीओ, सरकारी – निजी उत्पादन संस्थानों, सेनाओं तथा सरकार के बीच सही समन्वय से आत्मनिर्भरता को गति मिलेगी और साथ-साथ रोजगार के अवसर भी बढ़ेगें।

देश की आत्मनिर्भरता के परिप्रेक्ष्य का मेरा ये छोटा सा प्रयास रहा है। अंत में इस दिशा में कुछ सुझाव इस प्रकार हैं;

1) आज भी हम लगभग बड़ी मात्रा में रक्षा सामग्री विदेशों से आयात करते हैं। इसलिए सरकार द्वारा उचित दिशा निर्देश, सशक्तीकरण, संसाधनों का उचित प्रयोग, आदि द्वारा समयबद्ध आयात को कम करने की दिशा में ओर अधिक प्राथमिकता होनी चाहिए।

2) देशी या विदेशी कंपनियों के निवेश, संयुक्त उत्पादन एवं विकास, उत्पादन कारखाने लगाने हेतु, आदि सभी प्रस्तावों के स्वीकृति हेतु एकल बिंदु समाधान की व्यवस्था होनी चाहिए।

3) हमारा बिंदुगत ध्यान बड़े प्रणालियों (पोत, हवाई जहाज, टेंक, मिसाइल) के समयबद्ध 100 प्रतिशत स्वदेशीकरण पर होना चाहिए। यही सही मायनों में आत्मनिर्भरता है और ये सब हमारे वैज्ञानिकों और उत्पादन संस्थानों के लिए बड़ी चुनौती है।

4) डिफेंस इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर, नीति निर्धारण आदि में कुशल सेवानिवृत्त सैनिकों का डिजाइन, उत्पादन, गुणवत्ता, परीक्षण, आदि क्षेत्रों में उपयोग हेतु सरकारी नीति निर्धारण से इस अनुभवी मानव संसाधन का सदुपयोग हो सकता है।

5) आत्मनिर्भरता नीति पर नजर रखने और उचित दिशा निर्देश हेतु सरकार द्वारा एक निगरानी कमेटी होनी चाहिए।

6) आत्मनिर्भरता गति को सफल बनाने हेतु हर नागरिक से सहयोग और ईमानदारी अपेक्षित है।

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