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मेरे हिस्से का पहाड़ – Hill Mail https://hillmail.in Fri, 12 Jan 2024 08:49:37 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.4.4 https://i0.wp.com/hillmail.in/wp-content/uploads/2020/03/250-X-125.gif?fit=32%2C16&ssl=1 मेरे हिस्से का पहाड़ – Hill Mail https://hillmail.in 32 32 138203753 एनीमिया – उत्तराखंड में स्वास्थ्य पर बोझ https://hillmail.in/anaemia-a-health-burden-in-uttarakhand/ https://hillmail.in/anaemia-a-health-burden-in-uttarakhand/#respond Fri, 12 Jan 2024 08:23:10 +0000 https://hillmail.in/?p=47708 डॉ. तानिया जी. सिंह

कोई राष्ट्र, कोई राज्य या कोई घर भी तब तक प्रगति नहीं कर सकता, जब तक वह रोगमुक्त न हो। किसी भी शरीर को चलाने के लिए रक्त सबसे आवश्यक घटक है जो हमें ऑक्सीजन और अन्य महत्वपूर्ण पोषक तत्व प्रदान करता है।

हमारी प्रगति की कसौटी यह नहीं है कि हम उन लोगों की प्रचुरता में और वृद्धि कर पाते हैं जिनके पास बहुत कुछ है; बात यह है कि क्या हम उन लोगों को पर्याप्त मुहैया कराते हैं जिनके पास बहुत कम है।

इसे ध्यान में रखते हुए, मैं हममें से हर किसी को इस तथ्य से अवगत कराना चाहती हूं कि इलाज सबसे महत्वपूर्ण उपाय नहीं है, बल्कि बीमारी को रोकना महत्वपूर्ण है।

एनीमिया (खून की कमी)

एनीमिया संभवतः दुनिया भर में सबसे अधिक ज्ञात बीमारियों में से एक है। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें लाल रक्त कोशिकाओं की संख्या या उनकी ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता शरीर की शारीरिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपर्याप्त होती है, जो उम्र, लिंग, ऊंचाई, धूम्रपान की आदतों और गर्भावस्था के दौरान भिन्न होती है।

उत्तराखंड के विभिन्न शहरों में इसकी व्यापकता अत्यधिक है, विशेष रूप से निम्न सामाजिक आर्थिक स्थिति वाले लोगो में और जहां गरीबों तक स्वास्थ्य सुविधाएं कम पहुंच रही हैं। उत्तराखंड की 40 प्रतिशत से अधिक आबादी एनीमिया से पीड़ित है, खासकर जहां मलेरिया और अन्य वेक्टर जनित बीमारियों का प्रसार अधिक है। मलेरिया संक्रमण एरिथ्रोसाइट्स को नष्ट कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप हीमोग्लोबिन (एचबी) का स्तर कम हो जाता है जिसे एनीमिया कहा जाता है।

क्या आप जानते हैं कि इस बीमारी के कई अलग-अलग प्रकार हैं, और सबसे आम प्रकार आयरन की कमी से होने वाला एनीमिया है? हां, एनीमिया का सबसे आम पोषण संबंधी कारण आयरन की कमी है, हालांकि फोलेट, विटामिन बी12 और विटामिन ए की कमी भी महत्वपूर्ण कारण हैं।

हम एनीमिया को लेकर इतने चिंतित क्यों हैं?

  • शरीर में आयरन की कमी से कार्य क्षमता में कमी आती है
  • गर्भावस्था में हीमोग्लोबिन कम होने से माँ की मृत्यु या बच्चे की मृत्यु हो सकती है, यह कम वजन वाले शिशुओं में वृद्धि से भी जुड़ा है
  • बच्चे के मानसिक और शारीरिक विकास में देरी का भी यही कारण है
  • आँख और कान की कार्यक्षमता कम होना
  • बच्चों के विकासशील मस्तिष्क पर भी पड़ता है असर
  • एनीमिया बुद्धि को प्रभावित करता है, बुद्धि कम करता है

आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया के मुख्य कारण

किसी भी बीमारी को रोकने के लिए हमें उसके मूल कारणों को समझने की ज़रूरत है। तो आइये जाने कि एनीमिया के मुख्य कारण क्या हैः

शिशुओं में जोखिम कारक

  • नवजात शिशु में जोखिम कारकों में वे जोखिम कारक शामिल हैं जो मां को गर्भावस्था के दौरान हो रहे थे जैसे आयरन की कमी से एनीमिया, समय से पहले शिशु का जन्म, जन्म के समय शिशु का कम वजन होना, प्रसव के बाद रक्तस्राव में वृद्धि, जन्म के समय गर्भनाल को जल्दी काटना
  • मधुमेह से पीड़ित माताओं के शिशुओं में आयरन की कमी से होने वाले एनीमिया का खतरा होता है
  • आयरन से भरपूर पूरक आहार के समय पर लंबे समय तक केवल स्तनपान कराना
  • कम आयरन वाले शिशु फार्मूला का उपयोग करना
  • असंशोधित (गैर-फ़ॉर्मूला) गाय का दूध, बकरी का दूध या सोया दूध, अपर्याप्त आयरन युक्त खाद्य पदार्थ, और गाय के दूध का अत्यधिक सेवन करना

बच्चों में जोखिम कारक

  • कम आयरन वाला आहार
  • आयरन और फोलिक एसिड वाली खुराक की कमी
  • फाइटेट्स, पॉलीफेनोल्स और अन्य लिगैंड्स से भरपूर अनाज आधारित आहार, जो आंतों में आयरन के अवशोषण को बाधित करने के लिए जाना जाता है, भारत जैसे विकासशील देशों में प्रमुख है।

बड़े लोगों में जोखिम कारक

  • पसीने से आयरन की सामान्य हानि त्र 15 मिलीग्राम/माह होती है, इसलिए इस अदृश्य हानि को कभी नहीं गिना जाता है
    पीरियड्स के दौरान अधिक ब्लीडिंग होना, विशेषकर किशोरावस्था में
  • प्रसव और स्तनपान के दौरान खोए गए लगभग 1000 मिलीग्राम आयरन को फिर से भरने के लिए लगभग दो साल की आवश्यकता होती है)। इसलिए पहली और अगली गर्भावस्था के बीच न्यूनतम अंतर 2 वर्ष होना चाहिए।
  • हुकवर्म के संक्रमण से प्रतिदिन 0.5-2 मिलीग्राम तक आयरन की हानि होती है (प्रत्येक कीड़ा प्रतिदिन 0.05 मिलीलीटर तक रक्त निकालता है)।
  • मलेरिया, खूनी बवासीर/पेचिश के कारण दीर्घकालिक रक्त हानि एक अन्य महत्वपूर्ण कारण है
  • सिकल सेल एनीमिया और थैलेसीमिया का समय पर इलाज होना
  • गैर-आहार संबंधी जोखिम कारकः बार दृ बार श्वसन पथ संक्रमण होना , मलेरिया और एचआईवी जैसे दीर्घकालिक संक्रमण; सीलिएक रोग ((ग्लूटेन एंटरोपैथी)), आंतों के रोग, हुकवर्म संक्रमण आदि
  • नियमित रक्तदाताओं को एनीमिया होने का खतरा रहता है
  • हेमट्यूरिया (मूत्र में रक्त), जिसे कई लोग अनदेखा कर देते हैं और उपचार नहीं किया जाता है
  • अत्यधिक शारीरिक व्यायाम (पहाड़ियों पर चढ़ना उत्तराखंड में रहने वाले लोगों के लिए रोजमर्रा का काम है)
  • लाल रक्त कोशिकाओं का अपने आप टूटना
  • अंतिम लेकिन महत्वपूर्ण बात, शिक्षा, विशेष रूप से लड़कियों के लिए जरूरी होनी चाहिए क्योंकि घर पर एक शिक्षित महिला देश को बदलने की क्षमता रखती है।

एनीमिया के लिए रोगनिरोधी उपाय

  • जीवन के पहले 6 महीनों के लिए, विशेष स्तनपान (मगबसनेपअम इतमेंजमिमकपदह) आदर्श होना चाहिए। 6 माह के बाद शिशुओं को आयरन फोर्टिफाइड पूरक आहार देना चाहिए। कई महिलाएं 6 महीने के बाद भी बच्चे को केवल स्तनपान कराना जारी रखती हैं, जिससे बच्चे में आयरन की कमी हो जाती है। इसलिए, उन्हें अलग से आयरन दिया जाना चाहिए।
  • आयरन की कमी शुरू होने से पहले आयरन दें
  • स्कूलों में आयरन युक्त मध्याह्न भोजन उपलब्ध कराया जाए
  • एनीमिया के प्रकार की जांच के लिए हमेशा रक्त परीक्षण कराना चाहिए क्योंकि यह फोलिक एसिड की कमी, विटामिन बी 12 की कमी या थैलेसीमिया जैसे रक्त विकार के कारण भी हो सकता है।
  • मलेरिया प्रभावित क्षेत्रों में रोगनिरोधी आयरन की गोलियां दी जानी चाहिए ।
  • रोगनिरोधी रूप से मलेरिया रोधी दवाएं दें
  • कृमिनाशक दवा समय-समय से दी जानी चाहिए
  • भारी मासिक धर्म के दौरान रोगनिरोधी आयरन की गोलियां दी जानी चाहिए
  • भोजन लोहे के बर्तन में पकाना चाहिए
  • गर्भधारण से पहले आयरन अनुपूरण अनिवार्य होना चाहिए ताकि महिला स्वस्थ अवस्था में गर्भावस्था में प्रवेश कर सके।
  • बेहतर अवशोषण के लिए आयरन के साथ विटामिन सी की गोली दी जानी चाहिए
  • आयरन की गोलियां चाय या कॉफी के साथ नहीं लेनी चाहिए
  • बेहतर होगा कि कैल्शियम, आयरन के कुछ समय के बाद ली जाए
  • हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उत्तराखंड के लोग समय पर सभी गोलियां लें

अंत में मैं यही कहना चाहूंगी कि यदि उपरोक्त उपायों को रोगनिरोधी तरीके से अपनाया जाए तो हम जल्द ही उत्तराखंड से एनीमिया को जड़ से खत्म करने में सफल होंगे।

डॉ. तानिया जी. सिंह
एम.डी (चिकित्सक); एम.एस (प्रसूति एवं स्त्री रोग);
एफ आई ए ओ जी; एसोसिएट सदस्य रॉयल कॉलेज, लंदन,
उच्च जोखिम गर्भावस्था विशेषज्ञ

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जनसरोकारों को समर्पित ‘प्लस अप्रोच फाउंडेशन’ का नौवां वार्षिक सम्मेलन-2023 सम्पन्न https://hillmail.in/ninth-annual-conference-of-plus-approach-foundation-dedicated-to-public-concerns-2023-concluded/ https://hillmail.in/ninth-annual-conference-of-plus-approach-foundation-dedicated-to-public-concerns-2023-concluded/#respond Mon, 18 Dec 2023 12:41:43 +0000 https://hillmail.in/?p=47396 सी एम पपनैं

राष्ट्र निर्माण में पाजिटिव, इंस्पायर्ड और इम्पावर्ड के नारों को प्रधानता के साथ आगे बढ़ा रही, वर्ष 2011 में स्थापित जनसरोकारों को समर्पित ख्याति प्राप्त ‘प्लस अप्रोच फाउंडेशन’ का नौवां वार्षिक सम्मेलन-2023 का आयोजन ’मुश्किलों से लड़ो और आगे बढ़ो’ विषय पर 16 दिसंबर को इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के सी डी देशमुख अडिटोरियम में देश के विभिन्न संस्थानों के शीर्ष अधिकारियों, वरिष्ठ पत्रकारों, समाज के विभिन्न वर्गो के प्रमुख प्रबुद्ध जनों, उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों से आई विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मांगल ग्रुपों व श्रमिकों की गरिमामयी उपस्थिति में आयोजित किया गया।

आयोजित स्थापना समारोह का श्रीगणेश फाउंडेशन प्रमुख डॉ आशुतोष कर्नाटक, फाउंडेशन चेयरमैन आर पी गुप्ता, पर्यावरण विद अनिल प्रकाश जोशी, वरिष्ठ पत्रकार विनोद अग्निहोत्री द्वारा दीप प्रज्वलित कर व सामूहिक रूप से गाए गीत ’हम होंगे कामयाब एक दिन…। गाकर किया गया।

फाउंडेशन चेयरमैन आर पी गुप्ता द्वारा सभागार में उपस्थित सभी विशिष्ट अतिथियों व प्रबुद्ध जनों का स्वागत अभिनंदन कर कहा गया, कृत संकल्प होकर ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए किए जा रहे कार्यो, लक्ष्य हासिल करने के लिए किए जा रहे प्रयत्न, मिल रही सफलता व राष्ट्र निर्माण मे योगदान देने हेतु फाउंडेशन अपने उद्देश्यों के तहत निरंतर प्रयत्नशील है।

फाउंडेशन चेयरमैन द्वारा अवगत कराया गया, सकारात्मक सोच और व्यक्तियों और विशेष रूप से युवाओं के बीच सकारात्मकता का प्रसार तथा संसाधनों व उर्जा और पर्यावरण को बचाना तथा गांवों के सर्वांगीण विकास फाउंडेशन की मुख्य सोच रही है। सर्वशिक्षा, सर्व ऊर्जा, सर्व सकारात्मक सोच परियोजनाओ कार्यो के बारे में सेमिनार और कार्यशालाओं का आयोजन कर राष्ट्र निर्माण में सहयोग दिया जा रहा है। सकारात्मक ऊर्जा, समाज के वंचित व आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग की प्राथमिक जरूरतों को पूरा कर रही है। जिनकी परिकल्पना समाज के गरीब वर्ग के सतत विकास के लिए सकारात्मक प्रभाव लाने के लिए की गई है। जीवन के विभिन्न क्षेत्रों मे अचीवर्स जो सकारात्मक के पथ प्रदर्षक रहे, विभिन्न पुरूष्कारों से सम्मानित करना फाउंडेशन अपना कर्तव्य समझता है। व्यक्त किया गया, ‘किया गया प्रयास कभी विफल नहीं होता है।’

स्थापना दिवस के इस अवसर पर फाउंडेशन ट्रस्टी हेमपंत द्वारा फाउंडेशन के कार्यों के बावत अवगत कराया गया। विगत वर्षो में फाउंडेशन द्वारा किए गए कार्यों व उत्तराखण्ड के ग्रामीण अंचल में ग्रामवासियों द्वारा पर्यावरण को बचाने के लिए किए जा रहे प्रयासों पर निर्मित प्रभावशाली डाक्युमैंन्ट्रीयां भी प्रदर्शित की गई। सभागार में उपस्थित सभी श्रोताओं को सकारात्मक सोच पर शपथ भी आयोजकों द्वारा दिलवाई गई। आयोजकों द्वारा सभी मंचासीन अतिथियों का शाल ओढा कर, पुष्पगुच्छ व स्मृति चिन्ह भेंट कर सम्मानित किया गया।

फाउंडेशन द्वारा आयोजित पहले सत्र में मुख्य वक्ता के तौर पर देश के प्रतिष्ठित पर्यावरणविद पद्मश्री व पद्मभूषण अनिल प्रकाश जोशी द्वारा कहा गया, आज दुनिया भटकी हुई है। प्रवास में किसी भी मंच से भागीदारी हो जुड़ना चाहिए। विचारों की लंबी-चौडी सीमा नहीं विचार होते हैं। उन्होंने कहा मैं जिस विषय से आया हूं, वह पूरे विश्व का विषय है। सभी की समस्या एक समान है। प्रकृति से जो छेड़छाड़ हुई है उसके दुष्परिणाम आने शुरू हो गए हैं। दिल्ली की हवा बिगडी है, उत्तराखंड में प्राकृतिक घटनाएं घट रही हैं यह सब चेन्नई को भी ले डूबेगा।

पर्यावरणविद अनिल जोशी ने कहा, अपने देश में बड़े आंदोलन होते रहे हैं, कुछ बातें हैं, साझेदारी करनी चाहिए। उन्होंने कहा, जी-20 की बैठक हुई मैं गया नहीं। अंर्तराष्ट्रीय स्तर पर गंभीर बैठकें होती हैं, बातचीत होती है। जब से जी-20 हुआ है तापमान कम हुआ? दशा सुधरी? नदियां बची हैं? ऐसा होता मैं जी-20 को प्रणाम करता, वहां जाता। जलवायु परिवर्तन की जब जी-20 में बात करते हैं वे उन चीजों को नहीं दिखाते जहां से तापमान में वृद्धि हो रही है। प्रकृति के नियमों की पालना करना जरूरी है। आपका दायित्व है इसे बचाए। जी-20 में वही हुआ जो पहले हुआ था, आगे भी वही होता रहेगा। उन्होंने कहा, प्रकृति की मार को नहीं रोका जा सकता है। कोविड में प्रकृति ने प्राणवायु दी। प्रकृति मां है। बड़े फैसले होने चाहिए। आपके पास आंकड़े हैं, हवा, पानी कितना बचा है? मकान आदि के आंकड़े होंगे। पर प्रकृति के आंकड़े नहीं हैं।

स्थापना दिवस के इस अवसर पर विनोद अग्निहोत्री द्वारा भी पर्यावरण के बिगड़ते हालातों पर प्रकाश डाल कर व्यक्त किया गया, पर्यावरण के मुद्दे पर सरकारे पाखण्ड कर रही हैं। पर्यावरण बिगाड़ने का काम सरकारे कर रही हैं, जो विकास के नाम पर किया जा रहा है। बड़े बड़े डैम, सुरंगे व टनल भी बना रहे हैं, चिंता भी व्यक्त कर रहे हैं। उन्होंने कहा, प्रकृति को जीतना व जीना अलग-अलग बातें हैं। विकास के नाम पर प्रकृति विरोधी चरित्र है। राजनीति का मुद्दा प्रकृति नहीं हिंदू, मुसलमान इत्यादि इत्यादि है। जन चेतना जब तक विमर्श का मसला नहीं बनता यह सब होता रहेगा। भारत की नदियों में प्रदूषण सबसे ज्यादा है। तुलसी बरगद, आम पेड सबकी पूजा हम करते हैं, जंगल जल रहे हैं यह पाखण्ड है। प्रकृति अनंत है उसे जीत नहीं सकते। केदारनाथ की त्रासदी में सब सामने आ जाता है। सबक नहीं लिया। तीर्थाटन को पर्यटन व उद्योग बनाकर सब खत्म किया जा रहा है, ये मुद्दे विमर्श में आने चाहिए।

आयोजन के दूसरे सत्र मे पंकज नवानी, विदुषी कर्नाटक, अनीता कनवाल द्वारा भी पर्यावरण सुरक्षा पर विचार व्यक्त किए गए। सकारात्मक सोच से जुडे तथ्यो पर ज्ञान वर्धक विचार व्यक्त किए गए। असफलताओं से गुजर कर सफलता के पथ पर अग्रसर होने की बात पर बल दिया गया। युवाओ द्वारा कैसे चुनोतीपूर्ण कार्य कर मुकाम हासिल किया जा सकता है, के बावत प्रेरणाजनक वक्तव्य दिए गए।

प्रेरणा डांगी व शैलेंद्र यादव द्वारा सकारात्मक तथ्यों पर अपने स्वयं के जीवन पर सारगर्भित विचार व्यक्त किए गए। पद्मश्री, प्रख्यात कवि व लेखक डॉ अशोक चक्रधर द्वारा सकारात्मक सोच से जुडी व व्यंग से ओतप्रोत रचनाओं के द्वारा श्रोताओं को लोटपोट कर स्थापना दिवस को यादगार बनाया गया। फाउंडेशन प्रमुख डॉ आशुतोष कर्नाटक द्वारा भी स्वरचित रचनाओं का पाठ कर श्रोताओं को खूब गुदगुदाया गया।

स्थापना दिवस के इस अवसर पर ’प्लस अप्रोच फाउंडेशन’ द्वारा वर्ष 2023 के विभिन्न नामों से विभिन्न विधाओं में निपुण लोगों व संस्थाओं को पद्मश्री डॉ अशोक चक्रधर, फाउंडेशन प्रमुख डॉ आशुतोष कर्नाटक तथा उद्योग जगत से जुड़े रहे टी सी उप्रेती इत्यादि इत्यादि के कर कमलों सम्मानित किया गया। सम्मान स्वरूप प्रशस्ति पत्र, स्मृति चिन्ह व पच्चीस हजार रुपयों के चैक प्रदान किए गए।

सम्मान प्राप्त करने वालों में

दधीची- अवार्ड मनोरमा जोशी विद्या मंदिर अल्मोड़ा।
सोशियल ट्रांसफॉर्मर अवार्ड – महिला मंगल दल शीतलाखेत (अल्मोड़ा) व रास्ता फाउंडेशन हिसार, हरियाणा।
यस आई केंन स्टार्टअप तथा अचीबर अवार्ड- रंजीत सिंह शीतलाखेत (अल्मोड़ा), नमिता तिवारी अल्मोड़ा, कविता परिहार शीतलाखेत (अल्मोड़ा), प्रताप द्विवेदी, नवीन कपूर, डॉ बिहारी लाल जलंधरी (लेखक कुमाऊनी, गढ़वाली बोली-भाषा), अनुज गांधी, संध्या भोला (नोएडा), एसडीजी (ओ) पॉजिटिव अंबेसडर अवार्ड- रंजीत सिंह, नवीन टम्टा, नवीन बिष्ट व प्रताप बिष्ट सभी अल्मोड़ा जिला तथा रवि दुबे (दिल्ली) के साथ-साथ स्टयुडैन्ट अवार्ड- हर्षित बिष्ट व खुशी को प्रदान किया गया।

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गढ़वाली नाटक ‘अपणु-अपणु सर्ग’ का सफल मंचन https://hillmail.in/successful-staging-of-garhwali-drama-apanu-apanu-sarg/ https://hillmail.in/successful-staging-of-garhwali-drama-apanu-apanu-sarg/#respond Wed, 04 Oct 2023 18:05:38 +0000 https://hillmail.in/?p=46399 सी एम पपनैं

मंचित नाटक का श्रीगणेश गढ़वाली, कुमांऊनी एवं जौनसारी भाषा अकादमी दिल्ली सरकार सचिव संजय गर्ग तथा ‘दि हाई हिलर्स’ ग्रुप संस्था सदस्यों में प्रमुख दिनेश बिजल्वाण, रमेश घिल्डियाल, रविंद्र रावत, राजेन्द्र चौहान, संयोगिता ध्यानी इत्यादि द्वारा दीप प्रज्वलित कर तथा नाटक रचयिता सुरेश नौटियाल द्वारा मंचित नाटक के संक्षिप्त सार के बावत अवगत करा कर किया गया।

सीमित परिवेश में मंचित नाटक ’अपणु-अपणु सर्ग’ का मुख्य पहलू मौलिक रूप में उत्तराखंड की विभिन्न समस्याओं व पीड़ाओं के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है। प्रवास में निवासरत अंचल के एक पत्रकार व अन्य प्रबुद्ध लोगों की विभिन्न प्रकार की सोच, बाल्यकाल में अंचल मे बिताए दिनों की याद, अंचल के प्रवासी युवाओं व युवतियों के प्रेम प्रसंग व उच्च व्यवसाय की ओर बढती सोच तथा ग्रामीण अंचल के लोगों की नशे की लत तथा बढती आकांशाओं व प्रवास में निवासरत अपने ही कुल कुटम्बियों की गांव वापसी की चाहत पर उनको झूट व फरेब का पाठ पढ़ा कर गुमराह करने की महारथ तथा अंचल के अभाव ग्रस्त जीवन व बुढ़ापे के दंश को नाटक में बडी खूबी से पिरोया गया है।

मंचित नाटक में सूत्रधार के माध्यम से नाटक की आत्मा को अभिव्यक्त करने का प्रयास सराहनीय कहा जा सकता है। सूत्रधार के माध्यम व्यक्त गूढ़ व प्रभावशाली विचारों में नव गठित राज्य उत्तराखंड की विभिन्न प्रकार की दुर्दशा व अभावां की असलियत बया होती दिखती है जो खचाखच भरे सभागार में बैठे प्रवासी श्रोताओं का ध्यान आकर्षित करने व दिलो दिमांग को झकझोरने वाला कहा जा सकता है।

‘दि हाई हिलर्स’ ग्रुप द्वारा गढ़वाली बोली के इस पहली बार मंचित नाटक के पात्रां में बृजमोहन वेदवाल (अचलानंद सती), सविता पंत (अन्नपूर्णा सती), कुसुम बिष्ट (कुसुमलता रावत), रवीन्द्र (गौरी) सिंह रावत (संपूर्णानंद सती), रमेश ठंगरियाल (सचलानंद सती), मुस्कान भंडारी (लगुली सिंह), दर्शन सिंह रावत (प्रो. राम सिंह रावत), ममता कर्नाटक (रेन्जरबोडी), गिरधारी रावत (गोपाल सिंह व वेटर) तथा उमेश बंदूनी (सूत्रधार) द्वारा व्यक्त संवादो व अभिनय ने मंचित गढ़वाली बोली-भाषा के नाटक को सफलता प्रदान की है।

खास तौर पर दर्शकों का ध्यान नाटक के मुख्य पात्रों बृजमोहन वेदवाल (पत्रकार), सविता पंत (पत्रकार पत्नी) व रमेश ठंगरियाल द्वारा व्यक्त संवादों व अभिनय पर केन्द्रित रहा। उक्त कलाकार अपनी अदा से श्रोताओं पर विशेष छाप छोडने में सफल रहे।
मंचित नाटक की अन्य छोटी-छोटी भूमिकाओं में शशि बडोला, लक्ष्मी शर्मा जुयाल, इंदिरा प्रसाद उनियाल, सुधा सेमवाल, धर्मवीर सिंह रावत द्वारा अपने अभिनय तथा व्यक्त संवादों से श्रोताओं को प्रभावित किया।

नाटक के सफल मंचन मे निर्देशक हरि सेमवाल की मेहनत रंग लाती दिखी है। श्रोताओं द्वारा नाटक निर्देशन की भुरि-भुरि प्रशंसा की गई। नाटक के नाटककार सुरेश नौटियाल एवं दिनेश बिजल्वाण के संयुक्त प्रयास के बल बहुत हद तक अंचल के मूलभूत मुद्दों पर गहराई व निपुणता से प्रकाश डाला गया है, गढ़वाली रंगमंच को एक नया मौलिक नाटक व जनमानस को एक नई दिशा देने का प्रयास किया गया है, जो सराहनीय प्रयास है। रचित इस मौलिक नाटक के माध्यम से प्रवासी जनो पर गांव वापसी व उठाए गए मुद्दों से कितना प्रभाव पडेगा! शायद एक शो से नहीं। इस सफल आंचलिक नाटक के अनेको शो करने के बाद ही नाटक लेखन का मूल औचित्य व महत्व अंचल के लोगों की समझ में आयेगा, समझा जा सकता है।

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घर की रसोई में कभी बादशाहत हुआ करती थी कांसे के बर्तनों की https://hillmail.in/once-upon-a-time-there-used-to-be-a-kingdom-of-bronze-utensils-in-the-kitchen-of-the-house/ https://hillmail.in/once-upon-a-time-there-used-to-be-a-kingdom-of-bronze-utensils-in-the-kitchen-of-the-house/#respond Thu, 29 Jun 2023 10:01:10 +0000 https://hillmail.in/?p=44171 भुवन चंद्र पंत

पांच-छः दशक पहले तक पीतल, तांबे और कांसे के बर्तनों की जो धाक घरों में हुआ करती, उससे उस घर की सम्पन्नता का परिचय मिलता। रईस परिवारों में चांदी के बर्तनों की जो अहमियत थी, सामान्य परिवारों में कांसे के बर्तन को वही सम्मान दिया जाता। पानी के लिए तांबे की गगरी तो हर घर की शान हुआ करता। तब ’आर ओ’ व ’वाटर फिल्टर’ जैसे उपकरण नहीं थे और पानी की शुद्धता के लिए तांबे के बर्तनों का प्रयोग ही एकमात्र विकल्प था। सामान्य परिवारों में कलई की हुई पीतल की थालियां आम थी, जब कि कांसे की थालियां व अन्य बर्तन प्रत्येक घर में सीमित संख्या में होते और इन्हें सहेज कर जतन से रखा जाता।

घर में कांसे के एक दो ही बर्तन होते तो घर के मुखिया को ही कांसे की थाली में भोजन परोसा जाता। पीतल की कलई युक्त थालियों का कुछ समय प्रयोग करने के बाद उनकी कलई उतर जाती और पीतल का असली रंग उभर आता। पीतल के कलई वाले बर्तनों में अम्लीय खाना (दही, झोली आदि) खाने पर इनकी कलई उतरने के साथ इनमें खाना खाने पर पीतल की महक (पितवैन) आती जो सारे खाने को बेस्वाद कर देती, जब कि कांसा अम्लीय पदार्थों के साथ मिलकर रासायनिक प्रतिक्रिया नहीं करता। शादी आदि मौंकों पर दहेज व उपहार में पीतल, तांबे व कांसे के बर्तन देने का ही चलन था।

दहेज के बर्तन इन्हें रखने के लिए बने एक विशेष जाल में भेजे जाते। दुल्हन मायके से आने वाले बर्तनों की संख्या बताने से नहीं थकती कि मेरे दहेज में इतनी संख्या मे थाली, परात और गगरी आई थी। दहेज में रूपये-पैसों का चलन नहीं के बराबर था और गांवों में अखबार में लपेटी एक थाली को बगल में दबाकर ले जाते हुए लोग देखे जा सकते थे, यह जानने के लिए पर्याप्त था कि अमुक व्यक्ति किसी शादी समारोह में जा रहा है। नजदीकी रिश्तेदार भी भेंट स्वरूप बर्तन ही देते थे, वह अपनी सामर्थ्यानुसार परात अथवा तांबे की गगरी दहेज में भेंट करते। गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने वाले नव बर-बधू को गृहस्थी का सामान जुटाने की यह अनूठी पहल थी।

कांसे के बर्तनों की घरों में इस कदर बादशाहत थी, कि बर्तनों का नामकरण ही इस धातु के जोड़कर कर दिया गया। हमारे कुमाऊं में लोटे को ’कसिन’ बोला जाता था, जिसका नाम कांसे की होने से ही पड़ा लगता है। शुरू मे कांसे के लोटे को ही कसिन नाम दिया गया, बाद में अन्य धातुओं के लोटे ने भी यह नाम सहज स्वीकार कर लिया। इसी तरह सामाजिक उत्सवों में दाल-भात का चलन आम था और दाल प्रायः कसेरे में बनाई जाती, जो कांसे के बने होते थे। जाहिर है कसेरा नाम भी कांसे से लिया गया है। कांसे का तब कितना चलन रहा होगा कि बर्तन बनाने वाले जो तब कांसे के बर्तन बनाते होंगे उनको ही कसेरा नाम से संबोधित किया जाने लगा, लेकिन बाद में हर बर्तन व्यवसायी के लिए कसेरा शब्द आम चलन में हो गया।

कुमाऊं में शादी समारोहों के लिए एक आम शब्द चलन में है – भात- बरात। तब शादी समारोहों का मुख्य भोजन दाल-भात ही हुआ करता था। भात तांबे अथवा पीतल की बड़ी-बड़ी पतेलियों में बनता जब कि दाल के लिए कांसे का पतीला ही उपयुक्त माना जाता। कसेरा (कांसे का बड़े आकार का मोटे तले वाला पतीला) बनाने के पीछे यहीं कारण रहा होगा कि कांसे में ताप को अधिक समय तक संरक्षित करने का गुण है, इसे खड़ी दालों को गलाने में मुफीद माना जाता है। तब आज की तरह प्रेशर कूकर तो थे नहीं, कांसे के बर्तन ही मोटी दाल गलाने के लिए सबसे उपयुक्त माने जाते थे। इनमें बनी दालें सुस्वादु होने के साथ स्वास्थ्य के लिए भी अनुकूल मानी जाती थी। ये कसेरे आकार में बड़े होने के साथ-साथ इतने वजनदार होते हैं कि दो-दो आदमी मिलकर इनको चूल्हे से उतार पाते थे। आज भी पहाड़ के सुदूर गांवों में सार्वजनिक उत्सवों में कहीं कहीं ये कसेरे यदा-कदा देखने को मिल जाते हैं।

कांसा एक मिश्रित धातु है। जो तांबा व रांगा को मिलाकर तैयार किया जाता है, जिसमें तांबे व रांगे का अनुपात लगभग 80 और 20 के लगभग होता है। पीतल अथवा तांबे के समान इसमें लोच न होकर ज्यादा कठोर होता है। कांसे को संक्रमण अवरोधी तथा रक्त व त्वचा रोगों से बचाव करने के लिए जाना जाता है, बुद्धि व मेधावर्धक के साथ यकृत व प्लीहा संबंधित विकारां में भी इसे फायदेमन्द बताया गया है। गाय के घी के साथ कांसे के बर्तन को पैर के तलवों में रगड़ने से त्वचा व रंक्त जनित विकारों के उपचार में भी प्रयोग में लाया जाता है।

कांस्य अथवा कांसा एक पवित्र धातु मानी जाती है और पूजा के पात्रां तथा मंदिर की घंटियों व मूर्तियों के निर्माण में भी इसका उपयोग किया जाता है। कांसे की खनकदार आवास कर्णप्रिय, स्निग्ध व अन्य धातुओं की अपेक्षा ज्यादा तेज गूंजती है।

कांसे की थाली का भोजन पात्र के अलावा और भी कई उपयोग थे। जब गांवों में मवेशी कहीं खो जाते तो कांसे की थाली में पानी भरकर उसके बीचों बीच एक बूंद सरसों का तेल डाला जाता। सरसों के तेल की बॅूद जिस दिशा को जाती, पशु की तलाश उसी दिशा की ओर की जाती थी। यदि पानी में तेल की बूंद फट जाय तो खोये हुए पशु की मृत्यु का सूचक माना जाता। यह वैज्ञानिक आधार पर भले खरा न उतरे, लेकिन यही लोकविश्वास पर विश्वास करना उस समाज मजबूरी थी।

हमारे बुजुर्ग भले ही पढ़े लिखे नहीं थे, लेकिन ये जानते थे कि सूर्यग्रहण को नंगी आंखों से देखने पर आंखों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है। इसलिए बच्चे जब सूर्य ग्रहण देखने की जिद करते तो कांसे की थाली में पानी भरकर सूर्य को सीधे न देखकर कांसे की थाली में पानी पर पड़ने वाले सूर्य ग्रहण के प्रतिबिम्ब पर सूर्यग्रहण की छवि को देखा जाता।

पीलिया जैसे रोग का उपचार भी गांव-देहातों में झाड़कर ही किया जाता था। पीलिया झाड़ने के लिए भी कांसे के बर्तन में सरसों का तेल भरकर इसी में पीलिया झाड़ा जाता और तेल का पीलापन बढ़ना पीलिया के बाहर निकलने संकेत बताया जाता। धार्मिक अनुष्ठानों के लिए भी कांसे का बर्तन पवित्र माना जाता है।

आज स्टेनलैस स्टील, प्रेशर कूकर आदि के चलन से कांसे के बर्तनों का उपयोग अतीत की बात हो गयी है। चमक-धमक और दौड़-भाग भरी जिन्दगी में कांसा भले चलन से बाहर होता जा रहा है, लेकिन इसकी उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता।

(लेखक भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय नैनीताल से सेवानिवृत्त हैं)

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‘चंद्रशिला’ एक ऐसा स्थान जहां राम, रावण और चंद्रमा ने तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया https://hillmail.in/chandrashila-is-a-place-where-rama-ravana-and-moon-performed-penance-to-please-shiva/ https://hillmail.in/chandrashila-is-a-place-where-rama-ravana-and-moon-performed-penance-to-please-shiva/#respond Tue, 25 Oct 2022 16:05:53 +0000 https://hillmail.in/?p=38237 यात्रा वृत्तांत
जे पी मैठाणी/फोटो – पूनम पल्लवी

पहाड़ अडिग हैं – तुंग यानी पर्वत या चोटी के शीर्ष के साथ – यात्रा आगे जारी है – चन्द्रशिला की ओर, जो 2 किलोमीटर ऊपर है – तुंगनाथ मंदिर से –

अभी हमने श्री तुंगनाथ के दर्शन किये – पांव बुरी तरह से ठन्डे हो गए हैं, जूते बदलने वाले स्थान पर बहुत भीड़ है मंदिर के दाहिने ओर छोटे – छोटी कटुवा पत्थर के पांडवों के मंदिर भी है। तुंगनाथ मंदिर के मुख्य द्वार के ठीक सामने जो नंदी विराजमान है लगता है बेहद शांत हैं, उनके सारे शरीर पर चन्दन, लाल पिठाई (रौली) चांवल पोत दिए गए हैं, भक्त नंदी के कान में मंत्र या अपने अपने मनोकामना की प्रार्थना कर रहे हैं ऐसा ही ठीक मैंने भी किया जीवन में पहली बार पर मांगा कुछ नहीं।

इस सारे परिदृश्य और शिव के जयकारों के बीच हमने मंदिर प्रांगण से बाहर निकलकर – पहले कुछ खाने का मन बनाया, मंदिर के लिए लिया गया प्रसाद पैक करवाने के बाद चाय पीने और आलू परांठे खाये। महंगाई बहुत है, सुबह से हमने कुछ खाया नहीं था। हां पीपलकोटी घर से निकलने से पहले हमने सिर्फ चाय पी थी (घर वाले कोई उठे नहीं थे ये सुबह साढ़े तीन बजे के आस पास की बात होगी)।

हम मंदिर से नीचे उतरे हैं – सामने की पर्वत श्रृंखलाओं को धीरे धीरे बादल अपने आगोश में लेने लगे हैं धूप बढ़ने लगी है लेकिन दूसरी तरफ ठंडी हवाएं भी बीच बीच में नाक और कान पर अपना तीखा स्पर्श दे रही हैं। चाय नाश्ते बाद अब पूनम और मेरा लक्ष्य था चंद्रशिला जिसका रास्ता मंदिर के प्रवेश द्वार के दाहिने ओर से ऊपर को जाता है। यहां पर एक बोर्ड लगा है जिस पर लिखा है चंद्रशिला 1 किलोमीटर पर ये दूरी किसी भी स्थिति में डेढ़ – दो किलोमीटर से कम नहीं है।

कृपया ध्यान रखिये – चंद्रशिला को जाने वाले ट्रेक पर आगे पीने का पानी नहीं है और न ही किसी प्रकार की चाय पानी की दुकाने हैं – सीधी चढ़ाई है, इसलिए बेहद धीरे – धीरे चलिए लेकिन बार-बार रुकिए नहीं। मैन ट्रेक थोड़ा लम्बा है लोग शोर्ट कट चले रहे हैं लेकिन आप अपनी सांसों को काबू कीजिये, ध्यान आस पास की घाटियों और पर्वत श्रृंखलाओं के विस्तार पर लगाये और धीरे धीरे चढ़ाई की ओर बढ़ते रहिये।

वापस मुख्य ट्रेक पर – तीखी चढ़ाई होने की वजह से कई बार ट्रेकर या यात्री घबरा जाते हैं, सांसे उखड़ने लगती है लेकिन – मानव की लक्ष्य को पाने की चुनौती उसको रुकने नहीं देती यही हमारे साथ भी हुआ। इससे पूर्व मैंने तीन बार चंद्रशिला तक का ट्रेक कर लेना था लेकिन अलग अलग कारणों से ये नहीं हो पाया।

रुद्रनाथ मंदिर आते आते – पूरा क्षेत्र पेड़ विहीन हो जाता है अब ट्री लाइन पीछे छूट गयी हैं और तुंगनाथ मंदिर से आगे चंद्रशिला के रास्ते में भी अब पेड़ पौधों की जगह सुंदर लाल-आंकुडी-बांकुडी, नीले-कैम्पानुला, पुष्करमूल, बुरांस, आदि अनेक प्रकार के फूलों ने ले ली है। अब बुग्याल की हरी घास मखमली बुग्याल में बदल गयी है, और कई स्थानों पर पूरी की पूरी मिटटी दिखाई दे रही है जो इस हिमालयी बुग्याल की सेहत के लिए ठीक नहीं है, यहीं से चंद्रशिला की पहाड़ी की मिटटी भी बह रही है अगर ये आगे भी जारी रहा तो इस क्षेत्र के शायद पारिस्थितिकी या इकोलोजी के लिए ठीक नहीं है। पूरी की पूरी पहाड़ी नमी से भरी है शॉर्ट कट रास्ता थोड़ा खतरनाक है – ऊपर चोटी पर चंद्रशिला मंदिर के ऊपर बना छोटा मंदिर और झंडे दिखाई दे रहे हैं इस बार देश का तिरंगा भी हिमालय की बर्फीली हवा और फिजां में लहरा रहा है ये सब आपको आमंत्रित कर रहे हैं।

मंदिर से घंटियों की आवाज आपको हिमालय की इस शिला पर आमंत्रित कर रही हैं। ये दो किलोमीटर की चंद्रशिला की राह पूनम के लिए शुरू में थोडा कठिन लग रही थी लेकिन उसने जल्दी ही ट्रैकिंग के टिप्स सीख लिए और वो धीरे – धीरे आगे बढ़ रही है। मंजिल पास है और हिमालय का अविभूत करने वाला बेहद शानदार दृश्य – हमारे चारों और फ़ैल गया है – कुछ याद नहीं रहा – न पानी न सांस – बस नीला आसमान और उसके नीचे चन्द्रशिला से हिमालय की चोटियों का शानदार दृश्य। ये स्थान लगभग 4000 मीटर ( 13,200 फीट) की ऊंचाई पर स्थित है।

मुझे लगने लगा –
पूरा का पूरा हिमालय विस्तारित है
उत्तर से दक्षिण तक
पूरब से फिर उत्तर तक
चौराबारी, त्रिशूली, केदार
बन्दरपूंछ, हाथी दृघोड़ा
उधर नंदा घुंघुटी, ठीक पीछे –
नंदादेवी का एक पार्श्व,
कामेट और द्रोणागिरी का पूर्वार्ध
अनेक अनाम चोटियों के विहंगम दृश्य
और पृथ्वी के मापदंड को स्थापित करती
पहाड़ की संरचना…

ओह ये कितना रोमांचक है और विस्मयकारी है।
(बस यही शानदार अहसास हुआ मुझे – चंद्रशिला पहुंचकर)
कुछ ने कहा – ये वन देवियों का गढ है,

कुछ ने सुनायी परियों और ऐरी आछरी की कहानियां (ऐरी आछरी – गढ़वाली में दूसरे लोक की परियों को कहा जाता है) और किस्से – जहां परियों द्वारा लोगों को हर लिए जाने की कहानिया पूरे पहाड़ में सुनायी जाती हैं।

क्या है चंद्रशिला का पौराणिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक महत्व – तुंगनाथ मंदिर के ऊपर इस पहाड़ी के शीर्ष पर चंद्रशिला की चोटी है –

प्रथम जनश्रुति के अनुसार – भगवान् शंकर को प्रसन्न करने के लिए और हिमालय पर जाने से पहले और शिव का आशीर्वाद पाने के लिए लंकापति रावण ने चंद्रशिला में तपस्या की और भगवान् शिव को प्रसन्न किया।

दूसरी जनश्रुति के अनुसार त्रेता युग में रावण लंकापति के साथ युद्ध के बाद जब भगवान् राम ने रावण का वध किया तो इसका उन्हें बहुत दुःख था। क्यूंकि रावण एक योगी, विद्वान और ब्राहमण थे और रावण वध या ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति पाने लिए चंद्रशिला में ही भगवान् राम ने शिव को प्रसन्न करने के लिए तपस्या की और क्षमा याचना की।

तीसरी जनश्रुति के अनुसार –

सतयुग में राजा दक्ष हुए जिनकी कई पुत्रियां थी उनमे से एक पुत्री दृसती का विवाह शिव से हुआ था लेकिन उनके आत्मदाह के बाद जब तांडव के साथ पूरे हिमालय में भ्रमण कर रहे थे तब हिमालय में 51 शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। राजा दक्ष की 27 पुत्रियों का विवाह देव चन्द्रमा से हुआ था लेकिन चन्द्रमा का विशेष प्रेम राजा दक्ष की बड़ी पुत्री रोहिणी से ही था।

इस बात की शिकायत राजा दक्ष की अन्य 26 पुत्रियों ने अपने पिता से की, राजा दक्ष ने देव चन्द्रमा को बहुत समझाया लेकिन चन्द्रमा नहीं माने तो उन्हें क्षय रोग का श्राप मिला। चंद्रशिला ही वो स्थान है जहां क्षय रोग से मुक्त होने के लिए चन्द्रमा ने कुछ समय के लिए इसी पहाड़ी छोटी पर शिवजी की प्रार्थना और तपस्या की,और तब भगवान् शिव ने चन्द्रमा को क्षय रोग से मुक्त होने का आशीर्वाद दिया और तब से इस शिला खंड का नाम चंद्रशिला (डववद त्वबा) पड़ा।

तुंगनाथ मंदिर के उपर भगवान् राम द्वारा शिव की तपस्या करना और चंद्रशिला के ठीक सामने – जोशीमठ के उत्तर में काकभुशुण्डी झील का होना – जहां – हाथी – घोड़ा और बरमल पर्वत श्रृंखला भी है – और यहां काकभुशुण्डी रामायण का पाठ करते हैं – ये सब अजीब संयोग है – भूगोल और कल्पना के पार।

बताते हैं कि – सर्वप्रथम भगवान् शिव ने ही माता पार्वती को रामायण की कथा सुनायी थी और वो कथा एक कोव्वे ने सुन ली थी जिसका पुनर्जन्म काकभुशुंडी के रूप में हुआ, यह भी बताया गया है कि, लोमश ऋषि के शाप के कारण ही काकभुशुण्डी कौवा बन गए और तुंगनाथ क्षेत्र में पीली चोंच वाले पूरे काले कौवे दिखाई देते हैं।

कितनी बातें कितने किस्से कहानियां ख़तम होने का नाम ही नहीं ले रही हैं, इस ट्रेक में मेरी सहयात्री और मित्र पूनम ने मुझे चन्द्रमां के श्राप वाली बात बताई तो महाराष्ट्र से आयी टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस की मेरी विद्यार्थी वेदिका ने कल मुझे रावण की चंद्रशिला में तपस्या वाली बातें बताई।

ये सिलसिला यहीं खत्म नहीं होता – आयुर्वेद के एक विद्वान वैध्य जो अल्मोड़ा के लाला बाजार में रहते थे उन्होंने वर्ष 1997 में मुझे और योगी भाईसाब को चन्द्रमा के – आमवस्या से पूर्णमासी की यात्रा या परिक्रमा काल और चांद के बदलते रूप के हिमालय की जड़ीबूटियों पर पड़ने वाले दिव्य प्रभाव के बारे में बताया था और कहा था कि, इस विषय पर उत्तराखंड में आयुर्वेद में अध्ययन होना चाहिए।

तुंगनाथ में – गढ़वाल विश्वविध्यालय के – हाई अल्टीट्यूड प्लांट फिजियोलोजी रिसर्च सेंटर के इस क्षेत्रीय लैब में जड़ी बूटी की खेती और संरक्षण पर कार्य किया जा रहा है। लेकिन शायद चन्द्रमा से जड़ी बूटियों के तत्व और प्रभाव पर ध्यान दिया जाता हो ऐसा दिखाई नहीं पड़ता है।

चंद्रशिला में पहुंचकर सारी थकान दूर हो जाती है – अब लगभग 11ः45 बज गए हैं – थोड़ी देर तक पूरे हिमालय – के साथ गोपेश्वर – पीपलकोटी की घाटी, नागनाथ – पोखरी, उखीमठ और केदारनाथ की घाटियों के साथ आस पास पूरे पूर्वोत्तर और दक्षिण में विस्तारित हिमालय को निहारते हुए – अचानक आस पास की पहाड़ियां बादलों से घिर गई हैं – हमने ठंडी फुहारों से पहले वापस लौटने का मन बनाया हालांकि मन नहीं था।

लेकिन मौसम और समय की सीमा के साथ लौटना शुरू किया। अब नीचे उतरना भी कठिन है आप जल्दी जल्दी नहीं उतर सकते हैं – और शार्टकट का रास्ता खतरनाक और फिसलन भरा हो सकता है इसलिए इस ट्रेक के लिए अच्छे जूते होने चाहिए – चंद्रशिला जाते वक्त – बारिश से बचने के लिए बरसाती – छाते या पौन्चो जरूर रखिये।

हम चंद्रशिला से तुंगनाथ मंदिर के निकट 20 मिनट में वापस पहुंच गए, मेरे बैग में वन अनुसन्धान संस्थान से इकट्ठा किया गया एक रुद्राक्ष था – उसको मैंने वापस तुंगनाथ मंदिर के नंदी को छुआ कर सहयात्री के आग्रह पर वापस अपने पास रख लिया है। लेकिन यह रुद्राक्ष मेरे बैग में कब से था इस बारे में मुझे कुछ याद नहीं है।

अब तुंगनाथ से वापस लौटने लगे हैं ढाल पर पैर जल्दे जल्दे पड़ने लगे हैं कार के ड्राईवर श्री लक्ष्मण जी का फ़ोन आ गया मैंने, अपने साथी से कहा – तो जवाब मिला सर 30-40 मिनट में वापस पहुंच जायेंगे – इस आत्मविश्वास पर ख़ुशी हुई – कुछ शोर्टकट रास्ते पकडे और लगभग 3ः20 पर हम वापस चोपता के ढाबे में पहुंच गए – बेहद अव्यवस्था के बीच बहुत महंगा खाना मिला और फिर हम कार तक वापस पहुंच गए।

चंद्रशिला, तुंगनाथ, चोपता, दुग्गलबित्ठा, धोतीधार पीछे छूट रहे हैं कानों में कैलाश खैर का भजन आदि योगी गूंज रहा है, हिमालय में शिव और उनसे जुडी कथा कहानियों कल्पनाओं के साथ आंखे भी बोझिल हो रही है, कैलाश गा रहे हैं – प्रसून जोशी की धुन के साथ
उस योगी शिव की आराधना में…

कैलाश खैर गाते हैं
दूर उस आकाश की गहराइयों में
एक नदी से बह रहे हैं आदि योगी,
शून्य सन्नाटे टपकते जा रहे हैं
योग धारा बह रही है
पीस दो अस्तित्व मेरा
और कर दो चूरा चूरा
सांस शाश्वत – सनन सनन
प्राण गुंजन – घनन घनन…
उतरे मुझमे आदि योगी…

बस यही सब चलता रहा बाहर भीतर – बहने लगा पूरा का पूरा हिमालय चंद्रशिला की चोटी से और मैंने, मह्सूस किया हम कितने सूक्ष्म हैं – इस धरा पर – इस हिमालय और चंद्रशिला की पहाड की चोटी पर।
ढाल पर उतरते हुए मक्कूमठ – उखीमठ से नीचे कुंड पहुंच गए हैं – ऊपर कही कही फ़ोन लगता है – नेटवर्क की काफी समस्या है, अब हम मन्दाकिनीं के बाएं तट के साथ देहरादून की ओर बढ़ रहे हैं।

मन्दाकिनी नदी की लहरे हैं उसमे ही समाहित है तुंगनाथ और चंद्रशिला की चोटियों से निकलने वाली अक्ष कामिनी जलधारा का शीतल जल जो आगे अलकनंदा और फिर देवप्रयाग में गंगा बनकर समुद्र में समाहित हो जाएगा।

पहाड़ शांत हैं, और अडिग हैं रात के अंधेरे में – वही जहां बर्फ के ग्लेशियरों के साथ वो हिमालय से बंगाल तक भारत की धरा को सिंचित कर रहे है।

फिर यकायक आंख खुलती है – नेशनल हाईवे बन रहा है और हम चाय के लिए श्रीनगर और तीन धारा में रुकने के बाद वापस उत्तराखंड की अस्थायी राजधानी देहरादून सुबह की आहट के साथ वापस पहुचं गए है।

मन शांत है – थकान से और हिमालय में शिव की शक्ति के प्रभाव से। पिछले जून माह से अब तक का शारीरिक और मानसिक कष्ट काफूर हो गया है।

फिर मिलेंगे – हिमालय, ऊपर धुंधलके आसमान में चांद हमारे साथ है – सुबह का सूरज देहरादून में आहट देने लगा है, चंद्रशिला और तुंगनाथ तुम बहुत याद रहोगे।

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उत्तराखंड के लोकगीत, संगीत, लोकगाथाओं, परंपराओं व लोक संस्कृति की विधाओं के संरक्षण व संवर्धन पर 54 साल से जुटा है पर्वतीय कला केन्द्र https://hillmail.in/pahari-kala-kendra-has-been-engaged-for-54-years-on-the-preservation-and-promotion-of-folk-songs-folktales-traditions-and-genres-of-folk-culture-of-uttarakhand/ https://hillmail.in/pahari-kala-kendra-has-been-engaged-for-54-years-on-the-preservation-and-promotion-of-folk-songs-folktales-traditions-and-genres-of-folk-culture-of-uttarakhand/#respond Mon, 17 Oct 2022 07:14:31 +0000 https://hillmail.in/?p=37992 पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना
(1968 से 1980)

सन् 1968, दिल्ली प्रवास में निवासरत, उत्तराखंड के प्रवासी प्रबुद्ध बंधुओं में प्रमुख, लोकगायक व संगीतकार प्रो. मोहन उप्रेती, दिल्ली कमिश्नर बीआर टम्टा, अकादमी सचिव डॉ नारायण दत्त पालीवाल, प्रो. (डॉ) नारायण कृष्ण पंत, दिल्ली विश्वविद्यालय, लोकगायिका व दूरदर्शन प्रोड्यूसर नईमा खान उप्रेती, एलआईसी अधिकारी एचएस राना इत्यादि इत्यादि द्वारा, पर्वतीय कला केन्द्र की स्थापना की गई थी। देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री, इंदिरा गांधी द्वारा, आईफैक्स सभागार में, संस्था का विधिवत उद्घाटन किया गया था। केन्द्र द्वारा मंचित, उत्तराखंड पर्वतीय अंचल के विविधता से ओत-प्रोत गीत-संगीत व नृत्यों का लुफ्त उठा, श्रीमती गांधी द्वारा, केन्द्र के उज्ज्वल भविष्य की कामना की गई थी।

विदेशी अतिथियों के सम्मान में विभिन्न मान्य संगठनों व संस्थाओं द्वारा आयोजित आयोजनों में, केन्द्र के कलाकारों द्वारा, अंचल के गीत-संगीत व नृत्यों की अनेकों प्रस्तुतियों का मंचन किया गया। 1971 में, भारत सरकार द्वारा, पर्वतीय कला केन्द्र के 18 कलाकारों के सांस्कृतिक दल को, सिक्कम (गंगटॉक), भारत का प्रतिनिधित्व करने हेतु भेजा गया।

तत्कालीन राष्ट्रपति फखूरुद्दीन अली अहमद, द्वारा कमानी सभागार में केन्द्र द्वारा आयोजित कार्यक्रम में, मुख्य अतिथि के रूप में शिरकत कर, अंचल के लोकगायक मोहन सिंह ’रीठागाड़ी’ व लोक ढोल वादक कालीराम को सम्मानित गया। कुमाऊं रेजीमेंट की लालकिला में आयोजित डायमंड जुबली में, केन्द्र के गीत-संगीत व नृत्य के कार्यक्रम आयोजित किये गए। लोकगायक मोहन उप्रेती द्वारा गाया व संगीत बद्ध लोकगीत, बेडू पाको बारा मासा… को कुमाऊं रेजीमेंट द्वारा पहली बार अपनी बैंड धुन बना, प्रति वर्ष 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर राजपथ पर बजाया जाने लगा। यह गीत व इसकी धुन, दशकों से, हर उत्तराखंडी का पसंदीदा लोकगीत बना हुआ है।

अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के भारत आगमन पर, उनके राजकीय स्वागत समारोह में, केन्द्र द्वारा उत्तराखंड के गीत-संगीत व नृत्यों का मंचन किया गया।

प्रगति मैदान, बिडला मिल, गांधी दर्शन, यूएसएसआर कल्चरल सेंटर, तालकटोरा स्टेडियम, तीन मूर्ति, मुंबई, जयपुर, उत्तराखंड के कई शहरों इत्यादि में, गीत-संगीत व नृत्य के अनगिनत प्रभावशाली कार्यक्रम केन्द्र द्वारा मंचित किए गए।

(1980 से 2020)

उत्तराखंड के गीत-संगीत व नृत्यों के साथ-साथ पर्वतीय कला केन्द्र द्वारा, 1980 से, उत्तराखंड की लोक संस्कृति, रीति-रिवाजों, परंपराओं, प्रेम गाथा, वीर गाथा इत्यादि इत्यादि से जुडी सु-विख्यात लोकगाथाओं, लोक परंपराओ से जुडी दंत कथाओं, अंचल के जीवन दर्शन व रामलीला इत्यादि पर गीत नाट्य मंचित कर, देश की एक मात्र ऐसी संस्था के रूप में पहचान बनाई, जो गीत-संगीत विधा में निरंतर ख्याति अर्जित करती चली गई। यह देश की एक मात्र ऐसी संस्था है, जो गीत-संगीत आधारित गीत नाट्यां का मंचन करती है।

केन्द्र द्वारा मंचित गीत नाट्यों में, राजुला मालूशाही, अजुबा बफोल, रामलीला, गढ़वाल की पांडव जागर शैली आधारित, ’महाभारत’, रसिक रमोल, जीतू बगडवाल, हिल-जात्रा, भाना गंगनाथ, स्वतंत्रता संग्राम पर आधारित ’वंदेमातरम’, रामी, गोरिया, नंदादेवी, कुली बेगार, हरुहित इत्यादि इत्यादि गीत नाट्यां के अनगिनत मंचन, दिल्ली सहित देश कई शहरां व महानगरां में मंचित किए गए हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर आयोजित अनेकों महोत्सवों में पर्वतीय कला केन्द्र को, दिल्ली और उत्तर प्रदेश का प्रतिनिधित्व करने का अवसर मिला।

1983 में पर्वतीय कला केन्द्र के 18 कलाकारों को, आईसीसीआर, भारत सरकार द्वारा, ट्युनिशिया, जोर्डन, अल्जीरिया, इजिप्ट और सीरिया में आयोजित, अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक समारोहों में, भारत का प्रतिनिधित्व करने का अवसर प्रदान किया गया।

1988 में उत्तरी कोरिया में आयोजित, ‘Spring Friendship Art Festival’ जिसमें विश्व के 50 देशां द्वारा प्रतिभाग किया गया, आईसीसीआर, भारत सरकार द्वारा, पर्वतीय कला केन्द्र के 24 सदस्यीय कलाकारों के दल को, भारत का प्रतिनिधित्व करने को भेजा गया। उत्तर कोरिया में देश का प्रतिनिधित्व कर, यात्रा के अगले पडाव में, भारतीय दूतावास चीन व थाईलैंड के सहयोग से, भारतीय दूतावास थिएटर, बीजिंग और बैंकाक द्वारा, पर्वतीय कला केन्द्र द्वारा प्रस्तुत उत्तराखंड के गीत-संगीत व नृत्यों के कार्यक्रम, उक्त देशां की राजधानियों के अपार जनसमूह के मध्य मंचित करवाए गए।

भारत में आयोजित अनेक अंतरराष्ट्रीय रंगमंच महोत्सवों में, केन्द्र द्वारा उत्तराखंड की अनेकों लोकगाथाओं का मंचन तथा, विश्व के सबसे बडे रंगमंच महोत्सव, ‘ओलंपिक थिएटर-2018’ में पर्वतीय कला केन्द्र को, भारत सरकार, संस्कृति मंत्रालय द्वारा, प्रतिभाग करने का अवसर प्रदान किया गया।

1974 से 2016 तक, श्रीराम भारतीय कला केन्द्र द्वारा, प्रतिवर्ष दिल्ली में आयोजित, एक म’त्र राष्ट्रीय होली महोत्सव में, पर्वतीय कला केन्द्र द्वारा, खडी होली का मंचन किया गया। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के निवास पर, अटल सरकार की कैबिनेट व विपक्ष के प्रमुख लीडरों की उपस्थिति में, पर्वतीय कला केन्द्र द्वारा खडी होली का मंचन किया गया।

उत्तराखंड के लोकगीत, संगीत, नृत्य विधा, लोकगाथाओं, रीति-रिवाजां, परंपराओं व लोक संस्कृति से जुडी अन्य विधाओं के संरक्षण व संवर्धन पर पर्वतीय कला केन्द्र दिल्ली, दिल्ली प्रवास में, उत्तराखंड के प्रवासियों की एक मात्र, वैश्विक फलक पर ख्याति प्राप्त सांस्कृतिक संस्था है, जो विगत, 54 वर्षों से निरंतर, राष्ट्रीय व अंतर राष्ट्रीय फलक पर कार्य कर रही है।

1968 से 2022 तक पर्वतीय कला केन्द्र के अध्यक्ष पदों पर, स्व. मोहन उप्रेती, स्व. नईमा खान उप्रेती, स्व. भगवत उप्रेती, स्व. प्रेम मटियानी तथा सीडी तिवारी विराजमान रहे हैं। वर्तमान में सीएम पपनैं इस अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त संस्था के अध्यक्ष हैं।

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हरेला पर्व – पर्यावरण संरक्षण का प्रतीक https://hillmail.in/harela-festival-a-symbol-of-environmental-protection/ https://hillmail.in/harela-festival-a-symbol-of-environmental-protection/#respond Sat, 09 Jul 2022 09:44:31 +0000 https://hillmail.in/?p=34658 ईजा ने आज हरेला ’बूत’ (बोना) दिया। जो लोग 10वे दिन हरेला काटते हैं उन्होंने 7 तारीख और हम 9वें दिन हरेला काटते हैं इसलिए ईजा ने आज यानि 8 तारीख को बोया। हरेला का अर्थ हरियाली से है। यह हरियाली जीवन के सभी रूपों में बनी रहे उसी का द्योतक यह लोकपर्व है। ’पर्यावरण’ जैसे शब्द की जब ध्वनि भी नहीं थी तब से प्रकृति पहाड़ की जीवनशैली का अनिवार्य अंग है। जीवन के हर भाव, दुःख-सुख, शुभ-अशुभ, में प्रकृति मौजूद रहती है। जीवन के उत्सव में प्रकृति की इसी मौजूदगी का लोकपर्व हरेला है।

हरेला ऋतुओं के स्वागत का पर्व भी है, नई ऋतु के अगमान के साथ ही यह पर्व भी आता है। इस दिन के लिए कहा जाता है कि अगर पेड़ की कोई टहनी भी मिट्टी में रोप दी जाए तो वो भी जड़ पकड़ लेती है, यहीं से पहाड़ों में हरियाली छाने लगती है। नई कोपलें निकलने लगती हैं।

हरेला हरियाली और समृद्धि का प्रतीक है, सावन का महीना आरम्भ होने से 10 दिन पहले हरेला बोया जाता है, इसे बोने की भी एक प्रक्रिया है, जंगल से चौड़े पत्ते (हमारे यहां तिमिल के पेड़ के पत्ते) लाए जाते हैं और फिर डलिया वाले सीकों से उनके ‘पुड’ (पात्र) बनाए जाते हैं। पुड़ भी 3, 5, 7 या 9 मतलब विषम संख्या में बनाए जाते हैं, इनका एक हिसाब घर के सदस्यों की संख्या और एक देवता से भी लगाया जाता है, जो पुड या पात्र बनाए जाते हैं इनमें साफ़ मिट्टी रखी जाती है, मिट्टी में कोई पत्थर या कंकड़ न हो इसका विशेष ध्यान रखा जाता है।

इसके बाद सप्त अनाज (गेहूं, जौ, धान, मक्का, झुंगर, चौलाई, बाजरा या सफेद तिल) को एक साथ मिलाकर इनमें बोया जाता है। इस सप्त अनाज में काला अनाज छोडकर कोई भी हो सकता है। ये ही अनाज हों ऐसा कोई नियम नहीं है, वैसे तो हरेला घर-घर में बोया जाता है, लेकिन किसी-किसी गांव में सामूहिक रूप से ग्राम देवता के मंदिर में ही हरेला बोया जाता है।

बोने के बाद रोज – सुबह शाम स्वच्छ पानी 9-10 दिन तक दिया जाता है। इसको डलिया से ढक कर रख देते हैं ताकि किसी की नज़र न पड़े। 4-5 दिन के बाद एक लोहे के बने ख़ास यंत्र से इसकी गुड़ाई की जाती है। लोहे के उस यंत्र को ‘ताऊ’ बोला जाता है, एक सीधी लोहे की छड जिसे आगे से दोमुंह करवा के लाया जाता है, वही ताऊ कहलाता है। इसी से हरेले की गुड़ाई होती है। धीरे-धीरे अनाज में अंकुर आने लगता है, 9वें या 10वे दिन तक उसमें ठीक-ठाक पौंध आ जाती है। इन बालियों को ही हरेला बोला जाता है।

ऐसा माना जाता है कि जिसके घर में जितना अच्छा हरेला उगा हो उसके खेतों में उतनी अच्छी फसल होती है। ईजा ने हरेला बो दिया है। इस बार हरेला कैसा होता है, यह तो 9 दिन के बाद ही पता चलेगा। पहाड़, पर्व और प्रकृति का यह अनोखा संबंध है। अब जैसा हरेला होगा वैसी ही इस बार की फसल होगी।

– डॉ प्रकाश उप्रेती

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हरेला महोत्सव 16 जुलाई को, संघ प्रचारक डॉ. रौतेला बता रहे कैसे यह त्योहार पूरी दुनिया के लिए हैं ‘संजीवनी’ https://hillmail.in/what-is-harela-festival-know-all-about-by-rss-leader-dr-harish-rautela/ https://hillmail.in/what-is-harela-festival-know-all-about-by-rss-leader-dr-harish-rautela/#respond Wed, 14 Jul 2021 06:11:45 +0000 https://hillmail.in/?p=26578 पर्यावरण के प्रति समर्पण का संदेश देने वाला ‘हरेला’ पर्व उत्तराखंड की सांस्कृतिक परंपरा का प्रतीक है। यह संपन्नता, हरियाली, और पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। श्रावण मास में हरेला पूजने के बाद पौधे लगाए जाने की परंपरा रही है। यह उत्तराखंडियों के प्रकृति और पर्यावरण के साथ जुड़ाव को दर्शाता है और अब पूरे देश में तेजी से फैल रहा है। लोग इसके महत्व को समझ रहे हैं। ऐसे में यूपी, पंजाब, दिल्ली और दूसरे राज्यों में हरेला उत्सव मनाने की परंपरा शुरू हो रही है। हरेला पर पूरे उत्तराखंड में वृक्षारोपण को लेकर व्यापक कार्यक्रम किए जा रहे हैं। लोकपर्व हरेला 16 जुलाई को है।

हरेला का गंगा और हिमालय कनेक्शन

देश के सबसे बड़े सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ब्रज प्रांत क्षेत्र के प्रचारक डॉ. हरीश रौतेला से समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर हरेला हम सबके लिए जरूरी क्यों है। डॉ. रौतेला कहते हैं कि हरेला एक ऐसा त्योहार है जो हिमालय से निकलकर पूरी दुनिया को एकात्म कर देने का संदेश देता है। हरेला का मतलब क्या है, संपूर्ण प्रकृति हरी-भरी रहती है तो उसके चलते देश खुशहाल होता है। उत्तराखंड में ऋषियों-मुनियों ने हरेला क्यों बनाया, यह समझने की जरूरत है। गंगा, गंगा क्यों बनती है क्योंकि गंगा में एक विषाणु होता है, जिसके चलते उसमें दूसरा कोई विषाणु टिक नहीं पाता। इसीलिए हिमालय से निकलने वाली गंगा वैसी ही बनी रहती है। वह जो विषाणु है, वह निश्चित जलवायु में होता है। अगर तापमान बढ़ेगा तो मुश्किल होगी। हरेला के कारण सारा हिमालय हरा-भरा रहना चाहिए। वहां ठंडक बनी रहनी चाहिए।

शरीर के लिए भी जरूरी कैसे, समझिए

दूसरा, हरेला ऐसी चीज है, अगर आप शरीर को अच्छा करना चाहते हैं। शरीर पंचतत्वों से बना है, शरीर के एक तिहाई हिस्से में फलों का होना जरूरी है। उतना अन्न, उतना फल, उतना जल। अब ये कब होगा जब उत्पादन अधिक होगा। इसलिए हरेला के तहत फलदार वृक्षों का रोपण, छायादार पौधों का रोपण, शिव के बेलपत्रों का रोपण किया जाता है।

ग्रह दशा भी होगी ठीक

वह कहते हैं कि अगर पंडित जी ग्रह दशा सही करने के लिए कुछ पहनने को कहते हैं और आप नहीं पहनना चाहते तो 27 पेड़ भी होते हैं जो ग्रहदशा सही करते हैं। उसे नक्षत्र वाटिका होते हैं। 27 नक्षत्रों के नाम से होते हैं और आपके गुणों को ठीक करते हैं। इसी कारण से हरेला नाम का त्योहार बनाया है।

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कोरोना ने समझाया प्रकृति का महत्व

कोरोना महामारी ने समूचे जनमानस को प्रकृति की ओर लौटने पर मजबूर किया। इसने लोगों को पर्यावरण के संरक्षण और प्रकृति के महत्व से रूबरू कराया। एक लंबा जीवन शहरों में बिताने के बावजूद जब कोरोना जानलेवा हुआ तो लोगों को प्रकृति की छांव में ही सुरक्षा का अहसास हुआ। हरेला महज लोकपर्व नहीं बल्कि मानव और प्रकृति के बीच के जुड़ाव का प्रतीक है। उत्तराखंड में हरेला पर्व पर पौधे लगाए जाते हैं। बड़ी संख्या में लोग पौधरोपण कर प्रकृति के संरक्षण का संकल्प लेते हैं।

डॉ. हरीश रौतेला ने 6 साल पहले हरेला पर्व सप्ताह में 25 लाख पेड़ लगाने का लक्ष्य रखा था, यह सफलतापूर्वक पूरा किया गया। पिछले कुछ वर्षों में लोगों का जुड़ाव फिर अपनी सांस्कृतिक जमीन से होने लगा है। इसी का परिणाम है कि अब हरेला पर्व देश-विदेश में बड़े धूम धाम से मनाया जाता है। लोग ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाने का प्रयास करते हैं। पिछले साल लगभग 50 से ज्यादा देशों में हरेला पर्व मनाया गया। कोरोना के चलते यह आयोजन सीमित था, लेकिन इस बार यह भव्य तरीके से होगा।

इस साल हरेला पर एक भागीरथ प्रयास की शुरुआत हो रही है। यह है हरेला के अवसर पर पहाड़ों पर अपने प्राकृतिक स्रोतों, पानी के नौलों का संरक्षण करना। यह बात छिपी नहीं है कि पहाड़ों के बड़े हिस्से में गर्मियों का मौसम पानी की भारी किल्लत के बीच कटता है। ऐसे में जरूरी हो जाता है कि हम अपने प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण करने के लिए व्यापक अभियान चलाएं। इसी के तहत लोगों को प्रेरित किया जा रहा है कि वे अपने गांवों में प्राकृतिक स्रोतों, नौलों का पुनरोद्धार करें, उसके आसपास पेड़-पौधे लगाएं। ताकि नौलों में पानी की उपलब्धता को साल भर सुनिश्चित किया जा सके।

इसके लिए 10 जुलाई को एक वेबिनार का भी आयोजन किया गया था। इसका उद्देश्य हरेला पर्व के अवसर पर लोगों को पौधे लगाने और ‘मेरा गांव, मेरा तीर्थ’ के संकल्प के साथ अपने प्राकृतिक स्रोतों का संरक्षण करने के लिए प्रेरित करना थे। इस आयोजन से कई प्रतिष्ठित शख्सियतें, पर्यावरणविद् एवं विचारक जुड़े। यह सामूहिक प्रयास उत्तराखंड में लोगों को अपने-अपने गांवों में प्राकृतिक स्रोतों एवं नौलों के संरक्षण के लिए प्रेरित करने के लिए किया गया।

हरेला की व्यापकता को देखकर उत्तराखंड सरकार ने भी इस पर्व पर अवकाश की घोषणा कर रखी है। आगामी 16 जुलाई को हरेला पर्व मनाया जाएगा, ऐसे में प्रयास है कि ज्यादा से से ज्यादा लोग इस महाअभियान मे अपनी आहुति दें और हरेला लोकपर्व पर पेड़ लगाने का प्रयास करें।

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आह! दरक रहे रैणी से गौरा देवी की ‘स्मृतियों का विस्थापन’ https://hillmail.in/uttarakhand-raini-village-of-chipko-movement-leader-gaura-devi-rishi-ganga-project-in-chamoli/ https://hillmail.in/uttarakhand-raini-village-of-chipko-movement-leader-gaura-devi-rishi-ganga-project-in-chamoli/#respond Wed, 23 Jun 2021 16:07:11 +0000 https://hillmail.in/?p=25989

 

पूरे विश्व को चिपको का मूल मंत्र देने वाली चिपको आंदोलन की नायिका स्व. गौरा देवी की धरती आज अशांत है। यहां हो रही प्राकृतिक हलचलें लोगों को भयभीत करने लगी हैं। प्राकृतिक संसाधनों को अपनी असली पूंजी समझने वाले और अपने पारिस्थितिकी तंत्र से ताल-मेल बिठाकर जिंदगी जीने वाले रैणी गांव के लोग लगातार प्राकृतिक आपदाओं का दंश झेल रहे हैं। जून माह के दूसरे सप्ताह से हो रही लगातार अतिवृष्टि ने फिर से ऋषिगंगा के स्वरूप को डरावना बना दिया। नदी के लगातार बहाव से रैणी गांव का निचला हिस्सा, मोटर मार्ग का काफी बड़ा हिस्सा खिसक गया है। नया बना संपर्क पुल का एक स्तंभ भी पानी के कटाव से खतरे की जद में आ गया है, जिससे आवागमन रोक दिया गया है। ऋषिगंगा से बड़े क्षेत्र में भूस्खलन का खतरा और बढ़ गया है। रैणी गांव पहले ही खतरे के जद में था, अब वहां अधिक खतरा बढ़ने से प्रशासन की ओर से उन्हें तपोवन विस्थापित करने की पहल शुरू कर दी गई है। कुछ लोग तो अपने रिश्तेदारों के यहां जाकर पनाह ले चुके हैं। लेकिन सौ-एक लोग अब भी अपने गांव को छोड़कर आने को तैयार नहीं हैं। उन्हें अपने काम, अपने पशुओं की ज्यादा चिंता सता रही है। ये हिमालयी लोग पशुपालन के बल पर ही अपनी आजीविका चलते हैं। पशुओं के लिए चारा-पत्ती सबसे बड़ी समस्या है। रैणी गांव के साथ-साथ यहाँ के परितंत्र और परिस्थितियों के अनुरूप ढलने के यह आदी हो चुके हैं।  इन्हें अब दूसरी जगह  पर प्राकृतिक संसाधनों, उपलब्ध व्यवस्थाओं की चिंता ज्यादा है। इनके सामने अब सबसे बड़ी समस्या खड़ी है कि वे जाएं तो जाएं कहां?  जिन लोगों के रग-रग में प्राकृतिक प्रेम समाया हुआ हो, अपने जल, जंगल और जमीन, पुस्तैनी धरोहर संजोये हुए हों, वे भला यहां से दूर जाने में कैसे सुकून मान सकते हैं। यही वनों का प्रेम था कि गौरा देवी के नेतृत्व में यहां महिलाओं ने दुनिया को चिपको का मूल मंत्र देकर वन संरक्षण का पाठ पढ़ाया था।

1974 में चिपको आंदोलन की सफलता के बाद से यहां की महिलाएं, अपने प्राकृतिक संसाधनों की चिंता ज्यादा करने लगी थीं। ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना का यहां की महिलाओं और लोगों के खुलकर विरोध किया था। वे इस लड़ाई को सुप्रीम कोर्ट तक भी ले गए थे। इस प्रोजेक्ट के तहत रैणी गांव के निचले हिस्से में बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए थे। पेड़ इतनी चालाकी से कटे गए थे कि यहां की महिलाओं को भनक तक नहीं लगी। लगातार सुरंग बनाने में हो रहे विस्फोटक पदार्थों के धमाकों ने इनके मकानों में दरार तक डाल दी थी। ये लोग बड़े भयभीत होकर जीवन-बसर कर रहे थे। समय-समय पर भारी विरोधों ओर आंदोलन के चलते भी इस प्रोजेक्ट का कार्य आगे बढ़ता रहा।

वर्ष 2010 में गौरा देवी के स्मारक स्थल रैणी में एक चिपको उत्सव मनाने का कार्यक्रम था। 26 मार्च 2010 को हम रैणी पहुंचे और ग्रामीणों के साथ चिपको उत्सव मनाया। उस आयोजन की सबसे बड़ी बात यह थी कि गांव सभी महिलाएं जो गौरा देवी के साथ चिपको आंदोलन में सम्मिलित रही थी पुनः गांव से चार किमी ऊपर पंगराणी के जंगल तक पैदल गई थी और उन्होंने उन पेडों ओर आलिंगन किया था, जिन्हें उन्होंने 26 मार्च 1974 को बचाया था। इस आयोजन का नाम ‘चिपको स्मृति यात्रा’ दिया गया था। रास्ते मे चलते समय जब मैं इनके साथ चिपको की बारीकियों पर बात कर रहा था तब इन्होंने एक धार में खड़े होकर ऋषिगंगा में बन रहे जल विद्युत परियोजना को दिखाते हुए कहा कि यह हमारे विनाश का कारण बनेगा। हमारे सारे पेड़ काट दिए गए हैं और हमारा गांव अंदर ही अंदर से खोखला हो गया है। गौरा देवी के साथ प्रमुख रूप से कार्य करने वाली तथा गौरा देवी की सहेली श्रीमती बटनी देवी ने कहा था कि हमने कितना समझा दिया है इनको, पर ये समझते ही नहीं। सरकार भी हमारी कुछ सुनती नहीं,  हम क्या करें? उन्होंने रास्ते में बड़े-बड़े तरासे गए पत्थरों के ढेर भी मुझे दिखाए और कहा कि यह भूमाफियाओं की करतूत है, जो हमारे जंगल कर पत्थरों को निकाल कर बेच रहे हैं। पंगराणी जंगल मे पहुंचकर तीस महिलाओं और पुरुषों के दल ने उन पेड़ों की पूजा की जिन्हें उन्होंने चिपको आंदोलन के दौरान बचाया था। उन्होंने मुझे पेड़ों पर कुल्हाड़ी के लगे घाव भी बताए। अस्सी वर्षीय अमृता देवी की आंखों से तो आंसू छलक पड़े थे।

27 मार्च 2010 को ‘वर्ल्ड अर्थ ऑवर डे’ मनाया जाना था। 91 देशों के लोग 8:00 बजे से एक घंटे के लिए अपने-अपने घरों का प्रकाश बुझाकर ऊर्जा बचाने का संकल्प लेने वाले थे। रैणी गांव की महिलाओं के साथ बातचीत करके हमने तय किया कि हम इस अवधि में मशाल जलाएंगे था भैलो खेलेंगे ताकि जब पूरी दुनिया अंधेरे में होगी तब हमारे हिमालय से हमारा प्रकाश दुनिया को दिखाई देगा। हम उनका ध्यान हिमालयवासियों, हिमालय की समस्याओं और हिमालय को बचाने के लिए आकृष्ट करेंगे। 27 मार्च को गांव की सभी महिलाएं, पुरुष एक चौक में एकत्रित हुए और सबने मशाल जलाकर भैलो खेला। सबने हिमालय को बचाने और जंगलों को आग से बचाने का संकल्प किया।  गौरा देवी के स्मारक के पास जाकर गौरा देवी की चिपको सहेलियों ने दीप जलाकर उन्हें याद किया। अपने जल-जंगल और जमीन कि चिंता करने वाले और हिमालय के मिज़ाज को करीब से जानने वाले इन लोगों को हिमालय से अलग नहीं किया जा सकता। इन्हें हिमालय के ही करीब  इसी प्रकार के मिले-जुले पारिस्थितिक तंत्र, सदृश्य सुरक्षित स्थान की तलाश कर स्थापित किया जाना आवश्यक होगा ताकि इनकी संस्कृति, परंपरा के साथ-साथ हिमालय भी सुरक्षित रह सके।

यह समय केवल ऋषिगंगा और केदारनाथ आपदा पर सोचने का नहीं, बल्कि पूरे हिमालय के बदलते व्यवहार और स्वरूप को गहराई से मंथन करने का है। उत्तराखंड में समय-समय पर आ रही आपदाएं हमें बार-बार आगाह कर रही हैं। हिमालयी क्षेत्र इस समय कई तरह की धार्मिक, सामरिक और पर्यटन संबंधित गतिविधियों की दिशा में बढ़ रहा है।  उत्तराखंड हिमालय अभी बनने की प्रकिया से गुज़र रहा है। इसका मिजाज़ अभी नाज़ुक है। भारी-भरकम योजनाओं का भार अभी यह क्षेत्र नहीं सहन कर सकता है। विशेषज्ञ भी यही मान रहे हैं कि इस संवेदनशील भू-भाग में संभव हो तो बड़े निर्माण कार्यों से बचा जाना चाहिए। राज्य में इस समय चार हज़ार मेगावाट क्षमता वाले छोटे-बड़े कुल 36 प्रोजेक्ट पहले ही गतिशील हैं जबकि दो हज़ार मेगावाट के लगभग नौ अन्य प्रोजेक्टों पर कार्य चल रहा है। 34 प्रोजेक्ट कतिपय कारणों से अधूरे लटके हुए हैं। सत्तर अन्य पावर प्रोजेक्ट अंतिम मजूरी के लिए भटक रहे हैं। इनमे लगभग 90 प्रतिशत प्रोजेक्ट पहाड़ी जिलों में स्थित हैं। भारी-भरकम पैसा बहाकर जब हिमालय की गोद में हाइड्रो प्रोजेक्ट ढोये जाते हैं तो देर सबेर इनका यही हश्र होता है, जो ऋषिगंगा  तथा तपोवन-विष्णु प्रयाग सहित कई प्रोजेक्टों का हुआ है। अब वक्त आ गया है कि ग्रेटर हिमालय क्षेत्र में मानवीय गतिविधियों पर लगाम लगाई जानी चाहिए।

एक दशक का वातावरणीय मिजाज यही संकेत दे रहा है कि वैश्विक गर्मी के प्रभाव से अब हिमालय भी अछूता नहीं है। हर साल बादल फटने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। विशेषकर हिमालय की ‘वी’ आकार की घाटियों में ये घटनाएं अधिक हो रही हैं। ग्लेशियरों का पिघलकर जलाशयों का रूप ले लेना,  ज्यादा घातक सिद्ध हो रहा है। हिमालय क्षेत्र में मानवीय हस्तक्षेप बढ़ना भी एक कारण है। इसलिए प्राकृतिक आपदाओं में खड़े इस हिमालयी राज्य को विकास की परिभाषा को फिर से लिखनी होगी। राज्य का विकास न रुके इसलिए सावधानीपूर्वक कदम रखने की जरूरत है। हिमालयी क्षेत्र में नदियों के तेज़ ढलान होने के कारण जल विद्युत परियोजनाओं में अधिक उत्पादन की क्षमता होती है। इन परियोजनाओं को ऊंचे हिमालयी क्षेत्रों में स्थापित करने की यही अहम वजह है। हमें यह ध्यान रखना होगा कि अधिक उत्पादन के लालच में हम लागत से अधिक हानि का जोखिम उठा रहे हैं।

रैणी की आपदा अभी टली नहीं है, यह अब धीरे-धीरे गंभीर रूप लेती जाएगी। 7 फरवरी के बाद 13 जून को एक नई झील बनने की बात सामने आई थी और अभी 17-18 जून को भारी बाढ़ से सड़क सहित पुल को क्षति पहुंची है। अब गांव में गौरा देवी का स्मारक हटाकर तथा कई मकानों को तोड़कर सड़क बनाने का कार्य चल रहा है। गौरा देवी की मूर्ति को जोशीमठ स्थापित करने की बात चल रही है। विडंबना है कि ऋषिगंगा गौरा देवी के चिपको आंदोलन की धरती का भूगोल बदलने पर तुली हुई है, जबकि संस्कृति और परंपराएं आस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं।   अच्छा यही होगा कि राज्य में एक ग्लेशियर मॉनिटरिंग सिस्टम तैयार किया जाए, जो समय-समय पर हिमालय में हो रहे परिवर्तनों की जानकारी देता रहे। ग्लेशियर नदियों के उद्गम स्थलों के समीप  भारी-भरकम  प्रोजेक्टों को मंजूरी नही दी जानी चाहिए। हिमालयी क्षेत्रों में प्रस्तावित हर निर्माण कार्य को भू-गर्भीय जांच एवं स्वीकृति के बाद ही कार्यन्वित किया जाना चाहिए। हिमालयी क्षेत्र में मानवीय हस्तक्षेप को सीमित होना चाहिए।

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…राही एक विरासत, जो पहाड़ की संस्कृति में हमेशा रहेगी, 5वीं पुण्यतिथि पर सुरमयी श्रद्धांजलि https://hillmail.in/uttarakhand-folk-singer-chandra-singh-rahi-to-be-remember-on-his-fifth-death-aniversary-on-10-january-online/ https://hillmail.in/uttarakhand-folk-singer-chandra-singh-rahi-to-be-remember-on-his-fifth-death-aniversary-on-10-january-online/#respond Wed, 06 Jan 2021 03:36:30 +0000 https://hillmail.in/?p=22033 उत्तराखंड की संस्कृति एवं लोक विरासत के पुरोधा चंद्र सिंह राही को उनकी 5वीं पुण्यतिथि इस बार अनोखे अंदाज में याद किया जाएगा। 10 जनवरी को शाम पांच बजे राही के परिजन एक ऑनलाइन कार्यक्रम में गीतों के जरिये उन्हें याद करेंगे। इस कार्यक्रम का आयोजन पहाड़ी सोल म्यूजिक बैंड द्वारा किया जा रहा है।

चंद्र सिंह राही को आप किसी भी रूप में याद कर सकते हैं। एक बड़े लोकगायक, कई साजों के जानकार, लोकभाषा के अनुरागी, जिस स्वरूप में उन्हें याद कीजिए एक तरह का मतवालापन आपको जरूर दिखेगा। हुड़का, डोर थाली, ढोल, हर साज में उतना ही अपनापन। हर साज उतना ही पूज्य जितना गांव के जंगलों का बांझ, बुराश, काफल। चंद्र सिंह राही के गीतों में पहाड़ झूमा, पहाड़ रोया, पहाड़ ने अपनों को पुकारा। राहीजी का कोई भी गीत लीजिए, उसे सुनिए, पहाड़ों की संस्कृति आपको एकदम किसी दृश्य की तरह महसूस होगी। वे गीत बहुत सहज थे, लोकलुभावन थे। पहाड़ों में लोग बिना जाने समझे कि यह गीत किसने लिखा, किसने गाया, बस उसे गुनगुनाते थे। वे गीतों पीढ़ियों दर पीढ़ियों चलते रहे।

Image may contain: 1 person, text that says 'JAO Eneredible.Art dible.AtaCultueFounda Murtring Talent Sponsered by PAHAN Soul presents Shri Chander Singh Rahi Memorial Trust IN LOVING MEMORY OF Shri Chander Singh Rahi All Time Legend Artist From UTTARAKHAND Remembering him with his Melody Songs presented by his Family Members his Fifth Puniya Tithi Memorial Service 10 Jan 2021 at 5:00pm ONLINE EVENT *because of covid-19 this year we are doing virtual 5 ANNIVE SARY O. event'

 

राहीजी ने जो शब्द बुने, जो धुन विकसित की, उसमें पहाड़ ने अपने सुकून को तलाशा। वही गीत पहाड़ की महिलाओं, सीमा पर जाते फौजी ने गुनगुनाए। इन गीतों से  दूर परदेश में रहने वाले युवा ने अपने घर को याद किया। कुछ ऐसे गीत जो हमेशा पहाड़ की संस्कृति में घुले-मिले रहेंगे। जरा ठंडो चला दी, भाना रे रंगीली भाना, हिमला चांदी को बटन, सौली घुरा-घुर, एक पूरी गीतमाला है। राहीजी पर कोई भी चर्चा तब तक अधूरी है, जब तक जागर पर बात न हो। कहा जा सकता है कि जागर इसलिए भी विलुप्त नहीं हो पाया कि चंद्र सिंह राही जैसे साधकों ने रह रहकर लोगों को सुनाया, जागर की अनुभूतियों को समझाया। साजों से उसके तालमेल को बताया।

 

किसी अच्छे लोक कलाकार के लिए यह बिडंबना होती है कि अपनी कला संगीत की तमाम निपुणता के बावजूद वह एक क्षेत्र विशेष के दायरे में सिमट कर रह जाता है। बहुत कम लोककलाकार ऐसे होते हैं जिन्हें समाज इस स्तर पर चर्चा मिल पाती है कि वे राष्ट्रीय फलक पर जाने जाएं। मेरा हमेशा मानना रहा है कि चंद्र सिंह राही और नरेंद्र सिंह नेगी जैसे साधक कलाकार के योगदान को राष्ट्रीय क्षितिज पर स्वीकार किया जाना चाहिए। लेकिन राही भी अपने उत्तराखंड में सिमट कर रह गए। जिस स्तर पर शारदा सिन्हा , गुरदास मान भूपेन हजारिका या तीजन बाई को अपनी लोककला और गायकी के बदौलत राष्ट्रीय स्तर पर जाना पहचाना गया, लोकगायन और लोकवादन के लिए अपनी बेहद सार्थक भूमिकाओं के बावजूद राही उस उपलब्धि से वंचित रह गए।

वह उत्तराखंड के लगभग सभी परंपरागत साजों के जानकार थे। वह एक तरह से लोकसंस्कृति और लोकगीतों के लिए किसी वटवृक्ष की तरह थे। साठ के दशक में रेडियो में जब लोगों ने पहले पहले उनके गीत सुने तो वे गीत किसी लोकगीत की तरह हो गए। इसके बाद चंद्र सिंह राही हर बड़े सांस्कृतिक आयोजनों में अपने हुड़के के साथ होते थे। समय बदला लेकिन राही ने अपने संगीत में परंपरागत साजों को नहीं बदला। लोकगीतों की मौलिकता को बरकरार रखा। उन्होंने जिन गीतों को गाया उनमें पहाड़ों की खूशबू थी, वहां का जीवन था।

पौड़ी जिले के गिंवाली गांव में जन्मे चंद्र सिंह राही के मन में बचपन से ही लोकगीतों की ओर रम गए थे। लोकपरंपरा में मिले लोकगीतों की तरफ उनका गहरा रुझान हुआ। इस विधा में पारंगत होने के लिए उन्होंने कई पहलुओं पर एकाग्र साधना की। उन्होंने लोकगीतों के मर्म को समझा। शास्त्रीयता की समझ विकसित की। साथ ही पहाड़ों के परंपरागत साजों को सीखा। उत्तराखंड का शायद ही कोई ऐसा साज हो जिसे उन्होंने न बजाया हो और हुड़का की तो बात ही क्या। उन्हें हुडका के साथ गाते हुए सुनना एक दिव्य अनुभव से गुजरने की तरह था। उनके अंगुलियों की थाप पर हुड़का और मीठा बोलने लगता था। हुडका ही नहीं डौंर थाली, बांसुरी, हारमोनियम , मशकबीन ढोल हर साज को वह बखूबी बजाते थे।

राही जी ने स्थानीय स्तर पर प्रचलित लोकस्वरों को भी पहचान दी। फ्वां बागा रे इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। राहीजी के काम को आगे लाने का प्रयास होना चाहिए। राहीजी के बेटे राकेश भारद्वाज ने पहाड़ी सोल म्यूजिक बैंड चलते हैं। यह परंपरागत साजों के विकल्प में नहीं बल्कि एक सामांतर धारा की तरह खड़ा किया गया है। जिसमें युवा पुराने गीतों को नए साजों और रिद्म में गा रहे हैं। राकेश भारद्वाज के बैंड में जो मुरली बजती है, वह पहाडों की है। गिटार इसमें रफ्तार भरता है। ड्रम बीट झंकार और गूंज। यह नया संगीत भी लुभावना है। पहाड़ों से अलग नहीं करता।

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