गणेश शंकर विद्यार्थी जिनकी लेखनी से हिलती थी अंग्रेज सरकार

गणेश शंकर विद्यार्थी जिनकी लेखनी से हिलती थी अंग्रेज सरकार

अपनी बेबाकी और अलग अंदाज से दूसरों के मुंह पर ताला लगाना एक बेहद मुश्किल काम होता है। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हैं जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी।

डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला

गणेश शंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार रहे हैं जिन्होंने अपने कलम की ताकत से अंग्रेजी शासन की नीव हिला दी थी। 26 सितंबर 1890 को कानपुर में जन्मे गणेश शंकर विद्यार्थी एक निडर और निष्पक्ष पत्रकार तो थे ही, एक समाज-सेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ भी थे। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गांधी के अहिंसक समर्थकों और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आजादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते रहे। गणेश शंकर विद्यार्थी की शिक्षा-दीक्षा मुंगावली (ग्वालियर) में हुई थी। इन्होंने उर्दू-फ़ारसी का अध्ययन किया।

वह आर्थिक कठिनाइयों के कारण एंट्रेंस तक ही पढ़ सके, किन्तु उनका स्वतंत्र अध्ययन अनवरत चलता ही रहा। अपनी लगन के बल पर उन्होंने पत्रकारिता के गुणों को खुद में सहेज लिया था। शुरु में गणेश शंकर को एक नौकरी भी मिली थी पर अंग्रेज़ अधिकारियों से ना पटने के कारण उन्होंने वह नौकरी छोड़ दी। पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी कार्य करने के कारण उन्हें पांच बार सश्रम कारागार और अर्थदंड अंग्रेजी शासन ने दिया। विद्यार्थी जी के जेल जाने पर ‘प्रताप’ का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी व बालकृष्ण शर्मा नवीन करते थे। उनके समय में श्यामलाल गुप्त पार्षद ने राष्ट्र को एक ऐसा बलिदानी गीत दिया जो देश के एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक छा गया। यह गीत ‘झंडा ऊंचा रहे हमारा’ है। इस गीत की रचना के प्रेरक थे अमर शहीद गणेश शंकर विद्यार्थी।

जालियावाला बाग के बलिदान दिवस 13 अप्रैल 1924 को कानपुर में इस झंडागीत के गाने का शुभारंभ हुआ था। विद्यार्थी जी की शैली में भावात्मकता, ओज, गाम्भीर्य और निर्भीकता भी पर्याप्त मात्रा में पायी जाती है। उनकी भाषा कुछ इस तरह की थी जो हर किसी के मन पर तीर की भांति चुभती थी। गरीबों की हर छोटी से छोटी परेशानी को वह अपनी कलम की ताकत से दर्द की कहानी में बदल देते थे। 1916 में महात्मा गांधी से पहली मुलाकात के बाद उन्होंने अपने आप को पूर्णतया स्वाधीनता आन्दोलन में समर्पित कर दिया। उन्होंने साल 1917-18 में ’होम रूल’ 26 गणेश शंकर विद्यार्थी की मृत्यु कानपुर के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में निस्सहायों को बचाते हुए 25 मार्च, 1931 ई. को हुई। गणेश शंकर जी की मृत्यु देश के लिए एक बहुत बड़ा झटका रही।

गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे साहित्यकार रहे हैं जिन्होंने देश में अपनी कलम से सुधार की क्रांति उत्पन्न की। गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार’ पुरस्कार हिंदी पत्रकारिता और रचनात्मक साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य तथा विशिष्ट योगदान करने वालों को मिलता है। गणेश शंकर विद्यार्थी एक शॉल और प्रशस्ति पत्र प्रदान किया जाता है। यह पुरस्कार प्रतिवर्ष दो लोगों को प्रदान किया जाता है जब उनकी कलम चलती थी, तो अंग्रेजी हुकूमत की जड़ें हिल जाती थींं गणेश शंकर विद्यार्थी और पत्रकारिता के लिए आदर्श माने जाते हैं।

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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