पहाड़ की दहाड़: गढ़वाल रेजीमेंट के 125 साल

भारत का इतिहास उत्तराखंड के वीरों के अनुपम शौर्य एवं गौरवशाली सैनिक परम्पराओं तथा बलिदान की गाथाओं से भरा पड़ा है। विपरीत परिस्तिथियों में संघर्ष करने की शक्ति गढ़वालियों की विशेषता रही है। गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट अपना 125 वां स्थापना दिवस मना रही है। हम

भारत का इतिहास उत्तराखंड के वीरों के अनुपम शौर्य एवं गौरवशाली सैनिक परम्पराओं तथा बलिदान की गाथाओं से भरा पड़ा है। विपरीत परिस्तिथियों में संघर्ष करने की शक्ति गढ़वालियों की विशेषता रही है। गढ़वाल राइफल्स रेजीमेंट अपना 125 वां स्थापना दिवस मना रही है। हम आपको गढ़वाल रेजीमेंट की वीरता से रूबरू कराते हैं।

गढ़वाल रेजीमेंट की स्थापना 1887 में हुई। गढ़वाल रेजीमेंट की स्थापना के पीछे बलभद्र सिंह नेगी का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने सन् 1879 में कंधार के युद्ध में अफगानों के विरुद्ध अपनी अद्भुत हिम्मत, वीरता और लड़ाकू क्षमता के फलस्वरूप ‘आर्डर ऑफ मैरिट’, ‘आर्डर ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’, ‘सरदार बहादुर’ आदि कई सम्मान पदक प्राप्त करे। उस समय दूरदृष्टि रखने वाले पारखी अंग्रेज शासक गढ़वालियों की वीरता और युद्ध कौशल का रूझान देख चुके थे। तब तक बलभद्र सिंह नेगी प्रगति करते हुए जंगी लाट का अंगरक्षक बन गए थे। माना जाता है कि बलभद्र सिंह नेगी ने ही जंगी लाट से अलग गढ़वाली बटालियन बनाने की सिफारिश की। लम्बी बातचीत के उपरान्त लार्ड राबर्ट्सन ने 4 नवम्बर 1887 को गढ़वाल ‘कालौडांडा’ में गढ़वाल पल्टन का शुभारम्भ किया। कुछ वर्षों पश्चात् कालौडांडा का नाम उस वक्त के वाइसराय लैन्सडाउन के नाम पर ‘लैन्सडाउन’ पड़ा, जो आज भी गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर है।

गढ़वाली, कुमाऊंनी एवं गोरखा कम्पनी में थोड़ा बहुत हेर-फेर करने के पश्चात एक शुद्ध रूप से गढ़वाली पलटन बनाई गई, जिसका नाम 39वीं गढ़वाली रेजीमेंट इनफैन्ट्री रखा गया। इस रेजीमेंट की एक टुकड़ी को 1889 ई. में 17000 फीट की ऊंचाई पर नीति घाटी में भेजा गया, जहां इन्होंने बहुत दिलेरी एवं कर्तव्यनिष्ठता से अपना कार्य किया, जिसके लिए इनको तत्कालीन जंगी लाट ने प्रशंसा पत्र दिए। उसके बाद 5 नवम्बर 1890 ई. में इस रेजीमेंट की 6 कम्पनियों को चिनहिल्स (बर्मा) में सीमा सुरक्षा हेतु भेजा गया। विपरीत परिस्थितियों में असाधारण शौर्य एवं साहस दिखाने के वास्ते प्रत्येक सिपाही को ‘बर्मा मेडल’ एवं ‘चिनहिल्स मेडल’ दिये गये। इस लड़ाई में 44 गढ़वाली ‘चिनहिल्स मेडल’ दिए गए। इस लड़ाई में 44 गढ़वाली सिपाही शहीद हुए। इस सफलता के फलस्वरूप 1892 ई. में रेजीमेन्ट को सम्मानजनक ‘राइफल’ की उपाधि प्रदान की गई। धनसिंह बिष्ट तथा जगत सिंह रावत की वीरता विशेष उल्लेखनीय रही जिसके वास्ते उन्हें विशेष पदवी से अभिनंदित किया गया।

गढ़वालियों की युद्ध क्षमता की असल परीक्षा प्रथम विश्व युद्ध में हुई जब गढ़वाली ब्रिगेड ने ‘न्यू शैपल’ पर बहुत विपरीत परिस्थितियों में हमला कर जर्मन सैनिकों को खदेड़ दिया था। 10 मार्च 1915 के इस घमासान युद्ध में सिपाही गब्बर सिंह नेगी ने अकेले एक महत्वपूर्ण निर्णायक व सफल भूमिका निभाई। कई जर्मन सैनिकों की खन्दक में सफाया कर खुद भी वह वीरगति को प्राप्त हुआ। उत्कृष्ट सैन्य सेवा हेतु उसे उस समय के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ‘विक्टोरिया क्रास’ मरणोपरांत प्रदान किया गया।

लैन्सडाउन’ में हमें गढ़वाल रेजीमेंट के विक्टोरिया क्रास से सम्मानित पहले सैनिक दरबान सिंह नेगी के बेटे कर्नल बी एस नेगी से मिलने का मौका मिला। खास बात ये कि आज इस वीर परिवार की तीसरी पीढ़ी गढ़वाल रेजीमेंट में है। स्वर्गीय दरबान सिंह नेगी के पोते कर्नल नितिन नेगी गढ़वाल रेजीमेंट की एक पलटन की कमान संभाल रहे हैं। दरबान सिंह नेगी के बेटे कर्नल बी एस नेगी के मुताबिक इसी युद्ध में फेस्ट्वर्ड की भयंकर लड़ाई हुई, जहां जर्मन सेना ने मित्र राष्ट्र के कई महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्जा कर लिया था। यहां पहले गढ़वाल बटालियन ने छापामार तरीके से ठिकाने वापस लिए व भारी संख्या में जर्मन सैनिकों को बन्दी बनाया, जिसमें विजय ब्रिटेन को मिली। न मालूम उस वक्त कितने जर्मन मारे गये, 105 जर्मन कैद किये गये। तीन तोपें बहुत सी बन्दूकें और सामग्री भी हाथ लगी। इस संघर्ष में नायक दरबान सिंह नेगी को अद्भुत रणकुशलता और साहस दिखाने के लिए ब्रिटेन के राजा ने युद्ध भूमि में ही सर्वोच्च पुरस्कार ‘विक्टोरिया क्रास’ से अलंकृत करके गढ़वालियों का सम्मान बढ़ाया। उस समय विपक्षी जर्मन व फ्रांसीसी सैनिक भी गढ़वाली सैनिकों का लोहा मानने लगे थे। उनकी शूरवीरता तथा दिलेरी की सब जगह चर्चाएं होती थी।

23 अप्रैल 1930 में गढ़वाली सैन्य इतिहास में एक ऐतिहासिक घटना घटी जब नायक चन्द्रसिंह के नेतृत्व में गढ़वाली सिपाहियों ने एक शान्तिप्रिय तरीके से आन्दोलन कर रहे पेशावरी, निहत्थे जनसमूह पर गोली चलाने को मना कर कोई भी दण्ड स्वीकारना श्रेयस्कर समझा। गढ़वालियों का यह आश्चर्यचकित करने वाला साहसिक एवं राष्ट्रवादी प्रदर्शन था जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ा। इस घटना से प्रभावित होकर बाद में हजारों सैनिक आजाद हिन्द फौज की तरफ से लड़े। नौसेना में भी विद्रोह की चिंगारी इसी घटना के बाद फूटी।

गढ़वाल रेजीमेंट का 125 वर्षो का इतिहास शूरवीरता से भरा पड़ा है। इस मौके पर देश विदेशों से गढ़वाल रेजीमेंट के पुराने शूरवीर अपने परिवारों के साथ आये हैं। बात फिर चाहे पहले विश्वयुद्ध की हो, 1962 में चीन के साथ जंग, 1965, 1971 या फिर कारगिल में पाकिस्तान के साथ युद्ध गढ़वाल रेजीमेंट के जवानों ने हर मोर्चे पर अपना जौहर दिखाया। इस मौके पर 1962 की जंग में शामिल रहे कई वीर सेनानी लैन्सडाउन पहुंचे। इनमें 1962 की लड़ाई में वीर चक्र से सम्मानित हवलदार गोपाल सिंह गुसाईं और स्वर्गीय कर्नल एस एन टंडन की पत्नी सुनीला टंडन शामिल थी।

यहाँ पर खासतौर से अरुणाचल की सीमा पर चीन के दांत खट्टे करने वाले 4 गढ़वाल रायफल्स के जसवंत सिंह को याद करना जरुरी है। यहाँ पहुँचकर उनकी माँ लीला देवी अपने बहादुर बेटे को याद कर रही थी। 1962 की जंग में उनकी वीरता के लिए जसवंत सिंह को मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया था। नूरानांग की पहाड़ियों पर जो लड़ाई हुयी उसमें कुल 161 जवान वीरगति को प्राप्त हुए और 264 कैद कर लिए गए।

उत्तराखंड की पहाड़ियों में बसे लैन्सडाउन में सालों से वीर सैनिक तैयार किये जा रहे हैं। ब्रिटिश सरकार ने दो फरवरी 1921 को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान रेजीमेंट की वीरता व पराक्रम को देखते हुए नई दिल्ली में इंडिया गेट की आधार शिला के एतिहासिक अवसर पर रेजीमेंट को रायल के खिताब से सम्मानित किया था। इसी समय से रेजीमेंट का प्रत्येक सैनिक बड़े सम्मान के साथ अब तक अपने दाहिने कंधे में वर्दी के साथ रायल रस्सी धारण करता है। 9 महीने की कड़ी ट्रेनिंग के बाद एक रंगरूट सैनिक में तब्दील होता है। ट्रेनिग कई मोर्चों पर होती है। कड़ी ट्रेनिग के बाद अब वक्त देश के लिए कुछ कर गुजरने का आता है। देश के लिए कसम परेड की तैयारी हो रही है। इस मौके पर कर्नल ऑफ द रेजीमेंट लेफ्टिनेंट जनरल एस ए हसनैन को जीआरआरसी परेड ग्राउंड पर गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया। गार्ड ऑफ ऑनर लेने के बाद उन्होंने सलामी ली और फिर टुकड़ी का निरीक्षण किया। नए जवानों को देश सेवा की कसम दिलाई गयी। इस मौके पर नए जवानों को वायुसेना के जगुआर लड़ाकू जहाजों ने भी सलामी दी गयी। इस खास मौके पर गढ़वाल रेजिमेंट की सभी 23 पलटनों के वर्तमान और भूतपूर्व कमांडिंग ऑफिसर भी यहाँ आकर अपनी यादें ताजा कर रहे थे। इस मौके पर खासतौर से कर्नल ऑफ द रेजीमेंट लेफ्टिनेंट जनरल एस ए हसनैन ने 4 गढ़वाल के पूर्व कमांडिंग ऑफिसर कर्नल अजय कोठियाल और उनकी टीम को सम्मानित किया। हाल ही में कर्नल अजय कोठियाल सेना की पहली महिला अधिकारियों की टीम को लेकर ऐवरेस्ट पर तिरंगा फहराने में कामयाब रहे थे।

परेड ग्राउंड निकट स्थित युद्ध स्मारक की प्रतिमा इंग्लैंड से बनाने के बाद यहां स्थापित की गई है। इस प्रतिमा की पहचान गढ़वाली सैनिकों के बीच विक्टोरिया क्रॉस गब्बर सिंह के रूप में की जाती है। कर्नल ऑफ द रेजीमेंट लेफ्टिनेंट जनरल एस ए हसनैन ने हमें खासतौर से बताया की मौजूदा दौर में देश की सरहद पर बढती चुनौतियों के बीच गढ़वाल रेजीमेंट के जवान हर तरह से अपने आप को तैयार कर रहे हैं। उनकी शारीरिक और हथियारों की ट्रेनिग और कड़ी होती जा रही है। इसके साथ ही उन्हें आधुनिक युद्ध तकनीक से भी अवगत कराया जा रहा है। लेकिन सबसे अहम है गढ़वाल रेजीमेंट के जवानों का जोश और देश पर मर मिटने का जज्बा जो पिछले सैकडों सालों से जस का तस कायम है।

– मनजीत नेगी इंडिया टीवी में विशेष संवाददाता हैं।
मीडिया सलाहकार, उदयपुर मंडल (गढ़वाल) दिल्ली (पंजीकृत)।

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