प्रोफेसर वल्दिया ने अपनी आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर’ में अपने जीवन के कई पन्नों को शब्दों में व्यक्त किया। उन्होंने बताया कि जब वह हाई स्कूल में थे तब डॉक्टर बनने का सपना देखते थे। पिथौरागढ़ में हाई स्कूल से आगे की पढ़ाई के लिए तब इंटर कॉलेज नहीं था। उन्होंने क्रिश्चियन कॉलेज लखनऊ में दाखिला लिया।
- प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया
जन्म भले ही म्यांमार की सरजमीं पर हुआ हो, पर प्रोफेसर खड्ग सिंह वल्दिया उत्तराखंड के सच्चे सपूत थे। पिथौरागढ़ के निवासी प्रोफेसर वल्दिया ने इंटर तक की पढ़ाई पिथौरागढ़ से और उच्च शिक्षा लखनऊ से पूरी की। कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति रहे हों या वाडिया संस्थान देहरादून के अध्यक्ष, पद्मभूषण प्रोफेसर वल्दिया की सादगी, ज्ञान और पर्यावरण संरक्षण में योगदान हमेशा उत्तराखंड की पीढ़ियां याद रखेंगी। भू-वैज्ञानिक पद्मश्री खड्ग सिंह वल्दिया कुछ समय से फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे थे। 29 सितंबर को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
20 मार्च 1937 को तब के बर्मा में जन्मे प्रो. वाल्दिया का बचपन वहीं बीता। जब वह बच्चे थे, तभी विश्वयुद्ध के दौरान एक बम धमाके में उनकी सुनने की क्षमता लगभग समाप्त हो गई थी। जीवनभर इसके साथ उन्हें रहना पड़ा, पर लोगों को आश्चर्य होगा कि प्रोफेसर ने इसे कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने दिया। उनकी कही एक बात आज के युवाओं और विशेष रूप से सक्षम लोगों को हमेशा प्रेरणा देती रहेगी- मुझे सुनने से ज्यादा दुनिया को अपनी बात सुनानी है। यह किस्सा उस समय का है जब वह पहली बार प्रवक्ता पद का साक्षात्कार देने के लिए विश्वविद्यालय पहुंचे। उनसे कहा गया कि आप ठीक से सुन नहीं पाते तो बच्चों को कैसे पढ़ाएंगे। इस पर उन्होंने कहा था कि मैं वैसे ही पढ़ाऊंगा जैसे मैंने खुद शिक्षा ग्रहण की और वैसे भी मुझे सुनने से ज्यादा दुनिया को अपनी बात सुनानी है।
बचपन में दूसरे बच्चे उनका मजाक बनाते थे, पर वह कभी नकारात्मकता में नहीं जिए। उनका मनोबल ऊंचा था और अपने कठिन परिश्रम से उन्होंने देश में सम्मान हासिल किया। आज के बच्चों को ताज्जुब होगा कि उस समय हियरिंग मशीन जैसी चीजें नहीं थी। ऐसे में वह बचपन में हाथ में एक बड़ी बैटरी लिए चलते थे और उसकी मदद से थोड़ा बहुत सुन पाते थे। कुछ इसी तरह की मुश्किलों का सामना करते हुए उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की।
सादगी ऐसी थी कि कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति रहते हुए भी वह कभी कुर्सी पर नहीं बैठे। बगल में वह एक साधारण कुर्सी लगाकर बैठते थे और अपना काम करते थे। काम के प्रति समर्पण इसी से समझा जा सकता है कि वह फालतू की बातों में समय व्यर्थ नहीं करते थे। जब किसी बैठक में विषय से हटकर बात होने लगती तो वह अपनी सुनने की मशीन उतारकर मेज पर रख देते थे। इस तरह से वक्ताओं को भी संकेत मिल जाता कि वह फालतू बातों को पसंद नहीं करते।
प्रोफेसर वल्दिया ने अपनी आत्मकथा ‘पथरीली पगडंडियों पर’ में अपने जीवन के कई पन्नों को शब्दों में व्यक्त किया। उन्होंने बताया कि जब वह हाई स्कूल में थे तब डॉक्टर बनने का सपना देखते थे। पिथौरागढ़ में हाई स्कूल से आगे की पढ़ाई के लिए तब इंटर कॉलेज नहीं था। उन्होंने क्रिश्चियन कॉलेज लखनऊ में दाखिला लिया। उसी साल पिथौरागढ़ में इंटर कॉलेज खुल गया। वहां के प्राचार्य चाहते थे कि वल्दिया वहीं पढ़ें क्योंकि वह बहुत मेधावी थे। वल्दिया के घरवालों से आग्रह किया गया। परिवार ने उन्हें समझाया तो वल्दिया ने तर्क दिया कि पिथौरागढ़ में जूलॉजी, बॉटनी नहीं है और मैं डॉक्टर बनना चाहता हूं। बुबू ने उनसे कहा कि तुम ठीक से सुन नहीं पाते तो मरीजों की धड़कन स्टेथेस्कोप से कैसे सुनोगे। उनका मर्ज कैसे समझोगे। बुबू के तर्क पर बालक वल्दिया ने डॉक्टर बनने का इरादा त्याग दिया।
पढ़ाई-लिखाई, पर्यावरण के कामकाज से वह लंबी यात्रा करते थे। किसी भी ग्रामीण के घर सहजता से ठहरते थे। उनके मार्गदर्शन में 20 विद्यार्थियों ने पीएचडी की। अध्यापन और शोध के लिए उन्होंने कई देशों की यात्रा की। उनके शोध विद्यार्थी बताते हैं कि प्रोफेसर साहब को लड्डू और जलेबी काफी प्रिय थे। उनेक दादा चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी थे और पिताजी भी ठेकेदारी किया करते थे। ऐसे में ऊंचे पद पर पहुंचने के बाद भी प्रोफेसर वाल्दिया जमीन से जुड़े रहे।
उन्होंने 14 पुस्तकें लिखी हैं। हिंदी के प्रति उनका विशेष लगाव था। एक पुस्तक उन्होंने हिंदी में भी लिखी। प्रोफेसर वल्दिया पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कार्यकाल में पीएम की विज्ञान सलाहकार समिति के सदस्य रहे। वह सेंटर ऑफ एडवांस साइंटिफिक रिसर्च के मानद प्रोफेसर, आईआईटी मुबंई के गेस्ट प्रोफेसर, आईआईटी रुड़की के विजिटिंग प्रोफेसर रहे। वह जीवनभर पर्यावरण संरक्षण की संस्था से जुड़े रहे। अमेरिका की जॉन हॉपकिंस विश्वविद्यालय से उन्हें स्कॉलरशिप भी मिली थी।
प्रोफेसर वल्दिया को पद्मश्री, पद्मभूषण के अलावा अनेक पुरस्कार मिले। 1976 में CSIR की ओर से भटनागर अवॉर्ड, 1997 में मिनिस्ट्री ऑफ साइंस की ओर से मिनलर अवॉर्ड ऑफ एक्सीलेंस, वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से पीतांबर पंत पर्यावरण पुरस्कार, मानव संसाधन विकास मंत्रालय की ओर से हिंदी सेवा सम्मान, भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के पुरस्कार के अलावा कई सम्मान मिले।
वह 1958 में लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रवक्ता बने। 1969 में मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय में रीडर बन गए। 1973 में वाडिया इंस्टीट्यूट देहरादून में बतौर वैज्ञानिक गए और उपनिदेशक रहे। बाद में इस संस्थान के अध्यक्ष भी रहे। प्रो. वल्दिया ने प्रोफेसर के रूप में कुमाऊं विश्वविद्यालय में 1976 से सेवा दी। 1995 में वह बेंगलुरु स्थित संस्थान चले गए। दुर्गम जिले के छात्रों तक साइंस का ज्ञान पहुंचाने के लिए उन्होंने अपने स्तर पर प्रयास किए। पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर, चमोली, रुद्रप्रयाग में उन्होंने हजारों छात्रों और शिक्षकों को लाभान्वित किया। कुमाऊं विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग के संस्थापक अध्यक्ष रहे प्रोफेसर वाल्दिया को पहाड़ और यहां के लोग कभी नहीं भूलेंगे।
(वरिष्ठ भूगर्भ वैज्ञानिक प्रो. बहादुर सिंह कोटलिया कुमाऊं विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ एडवांस्ड स्टडी इन जियोलॉजी विभाग से संबद्ध हैं।)
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SATYA PAL SINGH MEHTA
October 2, 2020, 5:06 amProfessor KS Badiya Sir was a genius. He not only contributed in Geology as a Scientist, but also educated a number of students from High School level to Ph. D. as a Professor of science. He visited not only big universities all over the world but also visited small villages to extend his knowledge and educate the youth. In his journey to heavenly abode I have lost a very senior colleague, a very senior teacher and a guardian. It’s a personal loss to me. May God bless him R.I.P.
REPLYOm Shanti.
Dr. B.S. Kalakoti
October 2, 2020, 6:03 amThe great personality not only Scientist but
REPLYGreat skill of political scientist. May God give place his soul in heaven
V r dhoundiyal
October 2, 2020, 2:55 pmAcademic hero of Uttarakhand
REPLYBeing a family member ,it’s really a big loss to all of us???