वीरान होते उत्तराखंड के गांवों को दोबारा गुलजार करने के लिए एक अनूठा और व्यावहारिक प्रयास चल रहा है। पहाड़ की खूबसूरती को बरकरार रखते हुए जैविक खेती की तरफ लोगों को मोड़ने का भागीरथ प्रयास शुरू किया है। मिट्टी का कटान रोकने और स्थानीय स्तर पर रोजगार मुहैया कराने के साथ ये लोगों की थाली में रसायन मुक्त भोजन पहुंचाने की भी बड़ी पहल है। नवीन और उन्नत बीजों के क्षेत्र में काम करने वाली कंपनी के पूर्व सीएमडी विनोद कुमार गौड़ का कहना है कि उत्तराखंड की भौगोलिक संरचना और पलायन की गंभीर समस्या को देखते हुए इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है।
उत्तराखंड में कृषि एवं पशुपालन में अपार संभावनाएं हैं जिससे पहाड़ से पलायन रुक सकता है सिर्फ हमें लोंगों को उधमी बनाना हैं, परिश्रम करवाना है और रिस्क लेने कि क्षमता को विकसित करना है। राज्य के बाहर से काफी लोग आकर यहां पर जमीन खरीद रहे हैं और हम लोग उस पर मजदूरी कर रहे हैं पर खुद बाग लगाने को तैयार नहीं हैं। पूरा सिस्टम पढे लिखे लोगों के न होने से भ्रष्ट हो चुका है और जो लोग यहां पर हैं वह भी इसको जीवन कि सच्चाई मान कर समझौता कर चुके हैं, एक और आंदोलन के द्वारा जन जागरण कि जरूरत है। इस राज्य में अपार संभावनाएं हैं पर ईमानदारी से काम करने कि जरूरत है।
उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में जो भी लोग बाहर गए और कुछ पद पर रहे वह वापस नहीं आते हैं मेरा कृषि से लगाव रहा है और नेशनल सीड़ कॉरपोरेशन के सीएमडी रहते हुए ही मैंने यहां पर कुछ बीज बनवाना शुरू कर दिया था, इसलिए मैं वापस आ गया हूं और एक फ़ार्मर प्रोडूसर ऑर्गेनाईजेसन (एफपीओ) हिटो पहाड़ के माध्यम से अपने क्षेत्र के किसानों को कृषि व पशु पालन के बारे में विभिन्न संस्थानों के साथ मिलकर जानकारी दे रहा हूं। नेशनल सीड्स कॉरपोरेशन के पूर्व सीएमडी विनोद कुमार गौड़ से हिल-मेल के संपादक वाई एस बिष्ट की खास बातचीत की।
1 आप अपने बारे में बताइये, आप किस गांव में पैदा हुए आपकी पढ़ाई लिखाई कहां हुई?
मेरा जन्म सन् 1961 मैं ग्राम बवाणी विकास खंड नैनीडांडा जिला पौड़ी गढ़वाल में हुआ। मेरे पिताजी उस समय बडखेत माध्यमिक विद्यालय मैं उप प्रधानाचार्य थे, अतः प्रारम्भिक शिक्षा भी उनके साथ ही हुई। उसके बाद वे हल्दूखाल मैं प्रधानाचार्य बने अतः कक्षा 3 में हल्दूखाल आ गया और 5वीं तक कन्या विद्यालय हल्दुखाल में पढ़ा। फिर 10वीं तक माध्यमिक विद्यालय हल्दूखाल में पढ़ा। 12वीं करने के लिए फिर बडखेत चला गया क्योंकि हल्दूखाल में तब इंटर कालेज नहीं था। 1978 में विनोद कुमार ने पंतनगर में बीएससी (कृषि एवं पशुपालन) में प्रवेश लिया। 1984 में एमएससी (कृषि विज्ञान) की डिग्री हासिल की। इसके बाद मेरा चयन राष्ट्रीय उवर्रक लिमिटेड (एनएफएल) में बतौर मैनेजमेंट ट्रेनी हुआ।
2. आपके परिवार में कौन कौन लोग हैं और आपके परिवार ने पहाड़ों में किस प्रकार का संर्घष देखा ?
हम चार भाई एवं एक बहन है। हम लोग स्कूल से 2 किलोमीटर दूर पैदल जाते थे। वापस आते समय पानी भर के लाते थे क्योंकि रास्ते में पानी 1 किलोमीटर की दूरी पर था। बडखेत लगभग 16 किलोमीटर दूर था जहां 10 किलोमीटर पैदल जाना होता था और एक ही बस थी यदि छूट गई तो पूरा 16 किलोमीटर पैदल जाना होता था। सप्ताह या पखवाड़ा में एक बार घर आते थे। रेडियो समाचार का एक मात्र साधन था।समाचार पत्र साप्ताहिक था जो कि 15 दिन बाद डाक से आता था। बस अड्डा 7 किलोमीटर दूर था। राशन खच्चर के द्वारा हल्दुखाल आता था, फिर गांव तक सिर पर लाया जाता था। सुबह एवं शाम को जनवरों को भी देखना होता था। खेती का काम भी छुट्टी के दिन या सुबह शाम देखना होता था। बिजली न होने के कारण पढ़ाई लालटेन में करनी होती थी। पहाड़ी जीवन चुनौतियों से भरा रहता है गांव जिम कार्बेट पार्क के पास होने से जंगली जानवरों से भी हर समय खतरा रहता था।
3. आप अपने कैरियर में कैसे कैसे आगे बढ़े ?
12वीं में मेरी प्रथम श्रेणी आने के कारण मेरा एड्मिशन पंतनगर में हुआ तब मैरिट के हिसाब से होता था। एमएससी में रिटन एक्जाम हुआ जिसमें मैंने टाप किया और फिर एमएससी में भी टॉपर रहा। यमयससी में स्कालरशिप मिल गयी थी, तो परिवार पर भी भार नहीं पड़ा। एमएससी करते समय ही नौकरी के लिए एक्जाम दिए। चार पांच जगह सलेक्सन हुआ, जैसे बैंक, प्राइवेट कंपनियां और मैंने भारत सरकार की खाद की कम्पनी नैशनल फर्टिलाईजर में मैनजमैंट ट्रेनी कि नौकरी ज्वाइन की। 23 साल कि उम्र में नौकरी शुरू की। यहां 2006 तक काम किया और अपनी लगन व मेहनत से सीनियर मैनेजर के पद तक पहुंचे।
इसके बाद ब्रह्मपुत्र फर्टिलाइजर कारपोरेशन (बीवीएफसीएल) में मैंने बतौर डिप्टी जनरल मैनेजर (मार्केटिंग) और जनरल मैनेजर (मार्केटिंग) काम किया जहां बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की ओर से मेरे काम को खूब सराहना मिली। अक्टूबर 2010 में स्टेट फार्म्स कारपोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (एसएफसीआई) में बतौर चेयरमैन-कम-मैनेजिंग डायरेक्टर ज्वाइन किया और कंपनी में व्यापक बदलाव किए। एचआर, प्रोडक्शन, मार्केटिंग सभी क्षेत्रों में हुए परिर्वतन के बाद कंपनी ने भारत सरकार को डिविडेंड देना शुरू किया और सार्वजिनक उद्यम विभाग, भारत सरकार की ओर से एक्सीलेंट रेटिंग मिली।
जून 2013 में मैंने नेशनल सीड्स कारपोरेशन में बतौर चेयरमैन-कम-मैनेजिंग डायरेक्टर ज्वाइन किया। 1 अप्रैल 2014 को एसएफसीआई का नेशनल सीड्स कारपोरेशन में विलय हो गया जिससे दोनों कारपोरेशन में संसाधन के लिहाज से भारी बचत हुई। इसका परिणाम यह हुआ कि नेशनल सीड्स कारपोरेशन ने साल के दौरान भारत सरकार को सबसे ज्यादा डिविडेंड दिया। अंत में मैं सीएमडी के पद से सेवानिवृत हुआ।
4. आपको क्या क्या करना पंसद है ?
मेरा ध्यान हर समय जो भी काम रहता है उसी पर केन्द्रित रहता है, मोनो फोकस, ग्रामीण पृष्ठभूमि होने के कारण पढ़ाई के समय सारा ध्यान पढ़ने पर रहा, खेल के लिए बहुत कम समय रहता था। यूनिवर्सिटी में कई समितियों में रहा व छात्र यूनियन में भी रहा। नौकरी में पूरा ध्यान कैसे काम को समय पर ईमानदारी से व कुछ अलग तरह से किया जाये इस पर रहता था। मेरा मानना है कि देवभूमि उत्तराखंड के बनने की एक मुख्य वजह पलायन को रोकना था।
1980 के दशक में लोगों के पलायन की रफ्तार सबसे ज्यादा रही और इसके बाद ही एक अलग राज्य की मांग ने जोर पकड़ा। उम्मीद जताई गई कि इससे आर्थिक विकास होगा तो पलायन रुकेगा लेकिन जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2000 में अलग प्रांत बनने के बाद पहाड़ी क्षेत्रों से और तेजी से पलायन होने लगा। इसका असर यह हुआ कि गांव के गांव वीरान होते गए।
5. उत्तराखंड में आप आर्गेनिक पर काम कर रहे हैं इसके बारे में विस्तृत से बताइये ?
उत्तराखंड में जो भी लोग बाहर गए और कुछ पद पर रहे वापस नहीं आते हैं मेरा कृषि से लगाव रहा है और एनएससी के समय से ही मैंने यहां पर कुछ बीज बनवाना शुरू कर दिया था, इसलिए में वापस आ गया हूं और एक फ़ार्मर प्रोडूसर ऑर्गेनाईजेसन (एफपीओ) हिटो पहाड़ (Honest Initiative Towar के Optimizing Potential in Animal Husbandry and Agriculture Development) (HITO PAHAD) के माधयम से अपने क्षेत्र के किसानों को कृषि व पशु पालन के बारे में विभिन्न संस्थानों के द्वारा जानकारी दे रहे हैं।
उत्तराखंड में कृषि और्गेनिक स्वतः ही है अतः इसे बढ़ावा देने की जरूरत है। क्षेत्र में कृषि के वैज्ञानिक तरीके के प्रचार प्रसार की कमी है, इनको किसानों तक पहुंचना है। भूमि का क्षरण एवं मिट्टी का कटाव तेजी से हुआ जिससे बाढ़ आने लगी और जलाशयों में गाद जमा हो गई। धीरे-धीरे स्थिति विकराल होती गई और गांव रहने के लायक ही नहीं बचे। जो गिने चुने गांवों में बचे भी थे उन्होंने भी बाद में घरबार छोड़ दिया। खेती करने योग्य जमीन सिकुड़ती गई और जो बचा वहां जंगल जानवरों ने भारी नुकसान पहुंचाया।
2011 की जनगणना के अनुसार 16,793 गांवों में से 1,053 गांव पूरी तरह से खाली हो गए थे। राज्य में कई सरकारें बनीं और सबने पलायन की समस्या को संज्ञान में लिया लेकिन धरातल पर ठोस प्रयास नजर नहीं आए। उत्तराखंड में खेती की समस्याओं में वर्षा पर आधारित होना और खेतों का टुकड़ों में होना, पलायन, कृषि रसायनों तक पहुंच की समस्या, रासायनिक परीक्षण की कम जानकारी, आजीविका के साधन के तौर पर खेती करने वालों को हीन समझा जाना आदि हैं। अब मैं गांव में आकर यहां के किसानों और पशु पालकों को जागरूक करने में लगा हूं और यहां के लोगों को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रहा हूं।
6. अब आप सेवानिवृत हो गये हैं, अब आप अपने राज्य के लिए क्या करना चाहते हैं ?
राज्य में यदि कोई भी किसान या कोई भी संस्था या सरकार मेरे अनुभव का लाभ उठाना चाहती है तो में हमेशा तैयार हूं, जहां तक मेरे पास सीमित साधन हैं उनके माध्यम से जो भी कार्य हो पाएगा करते रहेंगे, उत्तराखंड में कृषि एवं पशुपालन में अपार संभावनाएं हैं जिससे पहाड़ से पलायन रुक सकता है सिर्फ हमें लोंगों को उधमी बनाना हैं, परिश्रम करवाना है और रिस्क लेने कि क्षमता को विकसित करना है।
बाहर से काफी लोग आकर यहां पर जमीन खरीद रहे हैं और हम लोग उस पर मजदूरी कर रहे हैं पर खुद बाग लगाने को तैयार नहीं हैं। पूरा सिस्टम पढे लिखे लोगों के न होने से भ्रष्ट हो चुका है और जो लोग यहां पर हैं वह भी इसको जीवन कि सच्चाई मान कर समझौता कर चुके हैं, एक और आंदोलन के द्वारा जन जागरण कि जरूरत है। इस राज्य में अपार संभावनाएं हैं पर ईमानदारी से काम करने कि जरूरत है। देवभूमि को सही मायने में अब सच्चे भक्तों की जरूरत है।
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