उत्तराखंड में वन प्रबंधन एवं जंगल की आग

उत्तराखंड में वन प्रबंधन एवं जंगल की आग

उत्तराखंड में जोशीमठ जैसा धार्मिक आस्था का पुराना शहर धंस रहा है और उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा है। इसके कारणों पर लंबी बहस हो सकती है परंतु यदि हमें पहाड़ बचाना है, हिमालय बचाना है तो इसके लिए हमें ठोस कदम उठाने होंगे। जोशीमठ जैसी त्रासदियां अभी भी उत्तराखंड में मुंह बाएं खड़ी है। उत्तरकाशी में भटवाड़ी, नैनीताल के कई क्षेत्र, चमोली जिले के कई इलाकों में यह स्थिति भविष्य में हो सकती है। इसके लिए सब लोगों को प्रयास करने होंगे और विकास के नाम पर पहाड़ को बचाना होगा।

दुर्गा सिंह भंडारी

उत्तराखंड में जोशीमठ जैसा धार्मिक आस्था का पुराना शहर धंस रहा है और उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगा है। इसके कारणों पर लंबी बहस हो सकती है परंतु यदि हमें पहाड़ बचाना है, हिमालय बचाना है, तो समाधान है :-

  • पहाड़ों में सस्टेनेबल डेवलपमेंट और वर्नाकुलर आर्किटेक्चर को बढ़ावा देना।
  • पेड़ लगाओ जंगल बचाओ।

जोशीमठ जैसी कई त्रासदियां अभी भी उत्तराखंड में मुंह बाएं खड़ी है। उत्तरकाशी में भटवाड़ी, नैनीताल के कई क्षेत्र, जिला चमोली के कई इलाकों में यह स्थिति भविष्य में हो सकती है।

ऐसी त्रासदी को रोकने के लिए उत्तराखंड में वन प्रबंधन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। वन प्रबंधन में एक महत्वपूर्ण विषय है : जंगल की आग और उससे निपटने के उपाय। आज हम इसी विषय पर चर्चा करेंगे। जंगल में उग्र आग का लगना पूरे विश्व में पर्यावरण के लिए एक मुख्य खतरा बन चुका है। जंगल की आग से कार्बन का उत्सर्जन होता है और जो जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण बनता जा रहा है। यह हमारे जंगलों में पाई जाने वाली जैव विविधता को भी नष्ट कर रहा है तथा कई विलुप्त होती जा रही प्रजाति के जानवरों की प्राकृतिक वास को भी ध्वस्त कर देता है। आग के कारण बड़ी संख्या में पेड़ों की मृत्यु हो जाती है। इन भयावह जंगल की आग में 97 प्रतिशत आपके घटनाएं मानव जनित कारणों से होती हैं तथा मात्र 3 प्रतिशत घटनाएं प्राकृतिक कारणों से होती है।

उत्तराखंड के परिपेक्ष में स्थिति दिन-प्रतिदिन गंभीर होती जा रही है। आमतौर पर यह देखा जाता है कि जंगल की आग मार्च माह से लगनी शुरू होती है और जून के मध्य तक चलती रहती है। मानसून की बारिश के शुरू होने पर ही समाप्त होती है। जंगलों की आग की घटना सूखी और घने जंगलों जैसे चीड़ के जंगलों में अधिकतर होती है। जहां पिरुल सूख कर जमीन पर गिर जाती है और यह आग को और ज्यादा बढ़ाने में सहायता करती है। उत्तराखंड में मानव जनित जंगल की आग निम्न प्रकार से लगती है :-

  • गांव से किसान खेतों में फसल अवशेष आदि को जलाते हैं, कभी-कभी हवा सके कारण यह जंगल की आग में तब्दील हो जाता है।
  • कभी कोई व्यक्ति लापरवाही से या मदिरा के नशे में जलती हुई बीड़ी को रास्ते के किनारे फेंक देता है, जहां सूखी घास आग पकड़ लेती है और उग्र रूप ले लेती है।
  • कृषि योग्य भूमि में अब आप लोग खेती नहीं कर रहे हैं जिससे यहां का घास उग जाती है तथा यह सूखकर आग जल्दी पकड़ती है।
  • ग्राम वासी पशुओं को कम पाल रहे हैं जिससे गांव के आसपास के जंगलों में उगी घास खड़ी रहती है और सूखकर वह भी आग लगने का कारण बनती है।
  • कुछ दशकों में कई कारणों से वन प्रबंधन में सामाजिक सहभागिता में व्यापक कमी आई है। जिस कारण से स्थानीय व्यक्ति जमीन की आग को बुझाने में रूचि नहीं दिखाते तथा वन कर्मियों को जब खबर मिलती है तब तक आग उग्र रूप धारण कर लेती है।

उत्तराखंड में वन प्रबंधन एवं कार्य योजना :-

1970 की धारा 28 (2) के तहत उत्तराखंड में वन पंचायतों का गठन हुआ जो कि सामाजिक वन प्रबंधन का कार्य करती थी। इन वन पंचायतों के कामकाज को 1997 में झटका लगा जब ग्राम वन संयुक्त प्रबंधन 1997 को लागू किया गया। इसके कारण सरकारी वन विभाग के अधिकारियों का हस्तक्षेप वन पंचायतों के कार्य में अधिक बढ़ गया। इसके बाद जो भी हुआ वह सर्वविदित है।

उत्तराखंड वन विभाग ने जंगल की आग की समस्या से निपटने के लिए एक 5 वर्षीय एक्शन प्लान बनाया है। जिसके मुख्य प्रावधान निम्न हैं :-
स्थानीय लोगों को ट्रेनिंग एवं प्रोत्साहन जिसने युवाओं महिलाओं को वरीयता दी जाएगी।

  • फायर वाचर की नियुक्ति।
  • मास्टर कंट्रोल रूम की स्थापना जिसका संपर्क दूरदराज के क्षेत्रों से टेक्निकल उपकरण द्वारा होगा।
  • जरूरत पड़ने पर हेलीकॉप्टर का इस्तेमाल।
  • Pine Needles पिरूल का दोहन करने वाले उद्योगों को बढ़ावा देना।

यह एक्शन प्लान सही दिशा में एक अच्छा कदम है परंतु उसे धरातल पर जल्द से जल्द उतारने की जरूरत है। जमीनी स्तर पर यह देखा गया है कि वन विभाग के फील्ड कर्मचारी अभी भी जंगल की आग बुझाने के लिए उपयुक्त उपकरणों एवं आधुनिक प्रशिक्षण से लैस नहीं है। फील्ड स्टाफ को आधुनिक तकनीक एवं उपकरणों की ट्रेनिंग दी जानी चाहिए तथा फील्ड में उपकरणों को उपलब्ध कराना चाहिए। फील्ड स्टाफ सर्दियों में प्रत्येक गांव में 10-15 लोगों को जंगल की आग की रोकथाम एवम बुझाने की ट्रेनिंग देने का काम कर सकते हैं। ट्रेनिंग देने के बाद इन स्वयंसेवकों को फॉरेस्ट फायर फाइटिंग के बेसिक उपकरण मुहैया कराए जाएं एवं इन्हें कुछ प्रोत्साहन राशि का भी प्रावधान हो।

वर्तमान में कुछ स्थानीय जागरूक नागरिक वन विभाग को जमीनी आग की सूचना तुरंत फोन से देते हैं, परंतु उन्हें जवाब मिलता है कि यह स्थान हमारे वन प्रभाग की सीमा में नहीं है। इसी जद्दोजहद में काफी समय नष्ट हो जाता है। इस समस्या से निपटने के लिए जल्द से जल्द मास्टर कंट्रोल रूम बनाया जाए, जिसमें जंगल की आग के लिए पूरे राज्य में 4 नंबर का टोल फ्री नंबर जारी किया जाए जैसा कि हाल में जंगली जानवर हेल्पलाइन नंबर 1926 जारी किया है। इसके अलावा रिस्क मैपिंग के आधार पर जो अति संवेदनशील और मोस्ट बल्नरेबल जोन हैं, वहां पर उपयुक्त उपकरण एवं प्रशिक्षित कर्मचारियों को तैनात किया जाए।

वर्तमान में इंटरनेट एवं सूचना तकनीकी पर आधारित उपकरणों का उपयोग होना चाहिए। कैमरा और ड्रोन का उपयोग भी काफी उपयोगी साबित होता है। जंगल की आग को रोकने के लिए यदि सामुदायिक सहभागिता पर आधारित रोकथाम के उपाय लागू हो, आग लगने पर जल्दी से पता लग सके (Early warning system) तथा जंगल की आग लगने पर उसे काबू करने के लिए प्रभावशाली कंट्रोल सिस्टम होगा तो हम अपने जंगलों को बचा सकते है। यदि ऐसा होता है तो हम अपनी भावी पीढ़ी को एक सुंदर भविष्य प्रदान करने में सक्षम होगें।

(लेखक भारत सरकार के उद्यम में महाप्रबंधक के पद पर कार्यरत है एवम् पहाड़ों के सामाजिक एवं सांस्कृतिक सरोकारों से जुड़े रहते हैं।)

1 comment

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1 Comment

  • Seema Bhandari
    January 14, 2023, 6:10 pm

    Condition of Uttarakhand is a result of development and if not checked immediately, this state is waiting for another disaster.
    Suggested remedies will surely help to overcome the problems faced by Uttarakhand.

    REPLY

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