उत्तराखंड में कृषि एवं बागवानी की संभावनाएं और समस्यायें

उत्तराखंड में कृषि एवं बागवानी की संभावनाएं और समस्यायें

उत्तराखंड राज्य बने 23वां वर्ष चल रहा है, 23 वर्ष के युवा राज्य में क्या विकास भी आन्दोलनकारियों की आकांक्षाओं के अनुरूप युवा अवस्था को प्राप्त किया कि नहीं वह भी कृषि विकास जो कि मुख्य व्यवसाय है यह विचारणीय विषय है। कृषि विकास के बारे में देखें तो तराई का क्षेत्र उधम सिंह नगर एवं हरिद्वार एक विकसित क्षेत्र है यदि थोड़े समय हेतु यह माना जाये कि उत्तराखंड में कृषि विकास हुआ है तो यह इन्ही दो जिलों में सिमटकर रह गया है हालांकि वस्तुस्थिति कुछ और है और पहाड़ों पर यदि जहां कहीं भी थोड़ी बहुत खेती हो रही है तो वह अभी भी पुरानी पद्धति से हो रही है।

वीके गौड़, पूर्व अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक, राष्ट्रीय बीज निगम, पूसा

उत्तराखंड के विकास के बारे में या यूं कहें कि उत्तराखंड के कृषि विकास के बारे में पंतनगर विश्व विद्यालय में छात्र जीवन से लेकर, सेवा में रहते हुए विभिन्न जगहों पर प्रवासी उत्तराखंडी बुद्धिजीवियों, चिन्तकों, हितैषियों आदि के साथ विचार सुनने एवं अपने विचार रखने का समय-समय पर सौभाग्य प्राप्त हुआ। प्रारम्भिक शिक्षा उत्तराखंड के सुदूर ग्रामीण क्षेत्र में होने के कारण एवं सेवा के दौरान समय-समय पर उत्तराखंड से जुड़े होने के कारण इसके पिछड़ेपन की थोड़ी बहुत जानकारी रखने का अवसर मिला। मैं इसको अपना सतही ज्ञान मानता हूं दुर्भाग्य यह भी समझता हूं कि उत्तराखंडी परिवार जो विकसित हुए वे वापस पहाड़ नहीं आये अतः उनकी आर्थिक एवं बौद्धिक विकास का समुचित लाभ उत्तराखंड के पहाड़ों को नहीं मिला। अतः सोचा कि अपने क्षेत्र में सेवानिवृति के बाद जरूर रहूंगा और जो भी अल्प जानकारी रखता हूं उसको लोगों के साथ साझा करूंगा। अतः विगत लगभग डेढ़ वर्ष से उत्तराखंड के पहाड़ी एवं मैदानी भागों की जमीनी हकीकत जानने का अवसर मिला।

कुल क्षेत्रफल का 86 प्रतिशत भाग पहाड़ी

कृषि से जुड़े होने के कारण इस बारे में ज्यादा जानने का अवसर मिला। 53.48 लाख हैक्टेयर कुल भौगोलिक क्षेत्र वाले प्रदेश में कृषि योग्य 9.94 लाख हैक्टेयर जमीन उपलब्ध है जिसमें 43.2 प्रतिशत मैदानी भाग में मुख्य रूप से उधम सिंह नगर एवं हरिद्वार जिले आते हैं। शेष 56.8 प्रतिशत भाग पहाड़ के 11 जिलों में हैं। अतः कृषि योग्य भूमि की मैदानी दो जिलों में जहां ओद्योगिकीकरण हुआ जो भी हम समझते हैं कृषि के लिए इसकी महत्ता समझी जा सकती है। प्रदेश के कुल क्षेत्रफल का 86 प्रतिशत भाग पहाड़ी होने के कारण भी पहाड़, अभी भी पहाड़ ही है। कृषि विकास के बारे में देखें तो तराई का क्षेत्र उधम सिंह नगर एवं हरिद्वार एक विकसित क्षेत्र है यदि थोड़े समय हेतु यह माना जाये कि उत्तराखंड में कृषि विकास हुआ है तो यह इन्ही दो जिलों में सिमटकर रह गया है हालांकि वस्तुस्थिति कुछ और ही है और पहाड़ों पर यदि जहां कहीं भी थोड़ी बहुत खेती हो रही है तो वह अभी भी पुरानी पद्धति से हो रही है। मैंने यह कहा कि वस्तु स्थिति कुछ और ही है मेरा तात्पर्य यह है कि इन दो जिलों, जिनको हम कृषि में विकसित कहते हैं यहां कृषि विकास उत्तराखंड बनने से पहले से ही था जब उधम सिंह नगर नैनीताल का और हरिद्वार सहारनपुर जिले का हिस्सा था।

पंतनगर विश्वविद्यालय की वजह से उत्तर प्रदेश के दौरान इन क्षेत्रों को विश्वविद्यालय के नजदीक होने का लाभ मिला, पर नजदीक के पहाड़ी क्षेत्रों पर विश्वविद्यालय द्वारा भी ध्यान नहीं दिया गया। अतः इन मैदानी दो जिलों के किसान जो कि ज्यादातर पंजाबी मूल के हैं विकसित हैं और टेक्नोलोजी के प्रति प्रोएक्टिव हैं। अतः वैज्ञानिकों को भी आसानी रही। या ये कहें कि ये किसान सेल्फ स्टार्टर है। अतः उत्तराखंड बनने के बाद भी कृषि योजनाओं का मुख्य लाभ इन्हीं जिलों को मिल रहा है।

यह भी अजीब बिडम्बना है कि इन जिलों के लोगों ने उत्तराखंड में शामिल होने का विरोध किया था और पहाड के लोग आन्दोलन में शहीद हुए थे। उधम सिंह नगर के खरमासा गांव में रहने के कारण इस जिले के किसानों को अक्सर मिलने का अवसर मिलता है एवं पहाड़ में पौड़ी गढ़वाल के नैनीडांडा ब्लाक में मेरा गांव हल्दूखाल होने की वजह से उस क्षेत्र के किसानों से भी रूबरू होने का अवसर मिलता रहता है। दोनों क्षेत्रों का विकास की तुलना हमारा भारत व इंडिया की बात याद दिलाता है और यह विकास के दोनों क्षेत्र आर्थिक विकास एवं बौद्धिक विकास में दिखता है विषमताओं के कई कारण है पहाड़ी क्षेत्रों में अधिकारी एवं कर्मचारीगण यहां की कठिन जीवनचर्या, भौगोलिक परिस्थियां व आधारभूत सुविधाओं की कमी के कारण रहना या कार्य नहीं करना चाहते हैं। उनको किसानों को मिलने हेतु दूर दूर जाना पड़ता है और यहां किसानों की संख्या भी कम है (घनत्व कम है) तथा किसानों की रूचि भी कम है, उदासीनता ज्यादा है।

मैदानी क्षेत्रों की तुलना में पर्वतीय क्षेत्रों में अपेक्षित परिणाम या तो बहुत कम मिलता है और कभी-कभी नहीं मिलता है। यदि परिश्रम देखा जाये तो मैदानी क्षेत्रों के मुकाबले पहाड़ी क्षेत्रों में बहुत ज्यादा करना पड़ता है मोटा मोटा समझा जाये तो मैदानी क्षेत्रों के मुकाबले इनपुट आउटपुट रेसो (आदान उत्पादन अनुपात) में अत्यधिक अन्तर होने के कारण यह उदासीनता नजर आती है मेरा यह समझना है कि यही उदासीनता यहां नेतृत्व में भी है, क्योंकि पहाड़ों के जन प्रतिनिधि को आबादी के कम घनत्व के कारण अधिक क्षेत्र वह भी सुदूर और वीहड़ होने की वजह से मैदानी क्षेत्र का नेतृत्व करना आसान होगा। परन्तु इसी सब की वजह से ही तो उत्तराखंड की मांग हुई थी और प्रदेश बना था। कहीं न कहीं दृढ़ निश्चय की कमी झलकती है।

विशेष राज्य के दर्जे का दुरूपयोग

हमारे पास सफल कृषि एवं उद्यानिकी का उदाहरण हिमाचल का है। क्या उत्तराखंड में मैदानी भाग होना उत्तराखंड के लिए एक अभिशाप हो गया है क्योंकि यहां के निवासी हो, अधिकारी हो या हमारे जन प्रतिनिधि हो पहाड़ों पर रहना या जाना किसी की स्वेच्छा से प्राथमिकता नहीं है। दुभाग्य से ओद्योगिक विकास भी उत्तराखंड बनने के बाद जो कुछ भी हुआ वह भी कृषि योग्य मैदानी भागों में हुआ जो कि एक बहुत बड़ी भूल हमारे नेतृत्व एवं नीति निर्धारकों के द्वारा की गई, जिससे दोहरा नुकसान प्रदेश को हुआ, कृषि योग्य भूमि गई एवं पहाड़ पलायन के कारण टूट गये। विशेष राज्य के दर्जे के दौरान जो सुविधायें दी गई उनका दुरूपयोग हुआ यह मैं अदूरदर्शिता ही मान सकता हूं क्योंकि भ्रष्टाचार को तो हम शिष्टाचार कहते हैं। खेती योग्य भूमि में बिना स्थानीय कच्चे माल को ध्यान में रखकर ओद्योगिक इकाई लगाई गयी, यदि ये इकाइयां पहाड़ों पर उपलब्ध कच्चे माल या पैदा किया जा सकते वाले कच्चे माल को ध्यान में रखते हुए लगाई गयी होती तो आज पलायन की यह दशा न होती और न ही मैदानी कृषि योग्य भूमि पर ईटों के जंगल बनते शायद हम शुरूआती विशेष राज्य के दर्जे के दौरान जो निवेश हेतु सुविधायें दी गई थी उस लाभकारी नीति का निवेश पहाड़ों में न ले जा पाने का अभिशाप भोग रहे हैं और इसके भविष्य में भयावह परिणाम होने की आशंका मुझे प्रतीत होती है।

जंगली जानवर भी पलायन की बड़ी वजह

मेरा क्षेत्र कार्बेट नेशनल पार्क के नजदीक होने के कारण जंगली जानवरों द्वारा खेती एवं अब इंसानों को बहुत नुकसान पहुंचाया जा रहा है और इस कारण जो कुछ लोग गांवों में बचे थे उनको भी जीवन का खतरा सता रहा है और अब पलायन की बड़ी वजह बनने जा रही है। अभी भी नैनीडांडा रिखणीखाल ब्लाक जो पौड़ी गढ़वाल में है एवं मरचूला क्षेत्र जो अल्मोड़ा जिले में है आये दिन गुलदार एवं चीता के द्वारा मानव हत्या एक आम बात है। नरभक्षी चीते एवं गुलदार अब घरेलू जानवरों के अलावा इंसानों को अपना निवाला बना रहे हैं एवं अभी तक कोई ठोस नीति नहीं बनी है कि इस समस्या का स्थायी निदान क्या है। हाल ही में हमारे गुरूजी को चीते ने अपना निवाला बनाया वह भी एक ऐसे व्यक्ति को जिसने अपने परिवार के साथ देहरादून जाने को मना कर दिया था और अकेले गांव में रहकर फलों का एक सुंदर बगीचा बनाया एवं बगीचे में ही पौधा रोपंण करते हुए चीते का शिकार बन गये। ‘एनिमल ह्यूमन कानफिलिक्ट’ (जानवर मानव विवाद) का ऐसा उदहारण हृदय को व्यथित करता है उस पर भी वन विभाग की सफाई कि नरभक्षी तभी माना जायेगा जब वह तीन आदमियों को खायेगा। जनता में रोष है दो और आदमियों की जान और चाहिए ये कैसा प्रेम?

प्रदेश के नीति निर्धारकों एवं नेतृत्व को एक बार पुनः गम्भीरता से अपनी नीतियों में स्थानीय जनता से संवाद कर स्थानीय समस्याओं को मध्यनजर रखकर ‘नीचे से ऊपर – वाटम टू टॉप’ अप्रोच पर नीति बनानी होगी तभी स्थानीय समस्याओं का समाधान निकलेगा। ऊपर से नीचे की अप्रोच काम नहीं करेगी। क्योंकि हर जगह एक सी समस्या नहीं है। ब्लाक को इकाई मानकर योजनाओं को बनाकर तब राज्य स्तरीय योजनायें बने। उत्तराखंड राज्य के समय पहाड़ से 42 विधायक एवं मैदान से 28 विधायक वाला प्रदेश में आने वाले समय में पहाड़ से 28 से भी कम विधायक होने वाले हैं यानि पहाड़ों से अत्यधिक पलायन हो रहा है परन्तु इस का कोई समाधान नहीं है और यदि कुछ कमेटियां बनाई गई तो वह भी कागजी खाना पूर्ति, इसके प्रदेश एवं सीमावर्ती प्रदेश होने के कारण देश के लिए भी गंभीर परिणाम होने वाले हैं। हमें नहीं भूलना चाहिए कि कारगिल में घुसपैठ की पहली जानकारी स्थानीय जनता ने दी थी और आज भी चीन की घुसपैठ की जानकारी यदा कदा स्थानीय जनता ही देती है।

देश की सुरक्षा एक गंभीर विषय

चीन से सटा हुआ क्षेत्र होने के कारण पहाड़ों का खाली होना देश की सुरक्षा के लिहाज से एक गंभीर विषय है। साथ-साथ यदि हम दूसरी स्थिति समझे कि यदि मजबूरी बस जो लोग यहां रहते हैं और उनका विकास नही होता है तो विकास की आशा में वे लोग क्या फिर आंदोलित नहीं होंगे और हम क्या नार्थ ईस्ट की भांति उत्तराखंड में भी पुनः विभाजन की मांग को दावत तो नहीं दे रहे हैं। जब विकास न होने के कारण उत्तराखंड हेतु आन्दोलन हो सकता है तो दोबारा नहीं होगा इसे भी नकारा नहीं जा सकता। जब 42ः28 का प्रतिनिधित्व का अनुपात होने के कारण विकास का यह हाल है तो प्रतिनिधित्व कम होने पर तो विकास वहीं का होगा जहां से वोट मिलेगा क्या इसको कोई झुठला पायेगा। जो नेता बड़ा होगा वह पहाड़ पर नहीं जायेगा अतः पहाड़ में कम प्रभावशाली या नये नेता ही रहेंगे जिनका प्रभाव कम होगा तो विकास क्या होगा।

नीति आयोग ने सन् 2018 में कुछ पिछड़े जिलों का चयन किया जिनको एस्पिरेशनल जिले कहा गया है। देश के 112 जिलों में से उत्तराखंड को एक जिला मिला वह भी हरिद्वार मेरी समझ में जो कि काफी विकसित जिला है। मैं इसका कारण वहां का प्रभावशाली नेतृत्व होना मानता हूं। चाहे अब कारण कोई भी बताया जाये यदि किसी पहाड़ी जिले को चुना गया होता तो किसी पहाड़ का विकास होता क्योंकि इन जिलों के विकास की समीक्षा प्रधानमंत्री कार्यालय के द्वारा हो रही है अतः अभी भी समय है कि हमारा नेतृत्व एवं नीति निर्धारक पहाड़ों पर ध्यान देकर प्रदेश का संतुलित विकास कर देश की सुरक्षा एवं अखंडता पर समय रहते हुए ध्यान देंगे।

पहाड़ों के लिए बने अलग कृषि नीति

पहाड़ों के लिए अलग कृषि नीति बनाई जाये जिसमें उद्यानिकी को प्राथमिकता देकर परम्परागत कृषि को बढ़ावा दिया जाये। वर्ष 2023 को संपूर्ण विश्व इन्टरनेशनल मिलेट एयर (अर्न्तराष्ट्रीय पोषक फसल वर्ष) मनाया जा रहा है। परन्तु उत्तराखंड की कृषि पोषक फसल प्रधान होने के बावजूद भी वर्ष सिर्फ नारा बनकर रहा गया। पोषक खाद्यानों के लिए इस वर्ष विशेष प्रयास किये जाने चाहिए थे एवं उत्पादन एवं विपणन नीति बनाकर आने वाले समय में जो भी मांग देश में आती है उसमें उत्तराखंड की समुचित भागीदारी के लिए पूर्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए। इस वर्ष इन फसलों के उत्पादन को एक न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदा जाना चाहिए था। नेशनल लाइवस्टोक मिशन (राष्ट्रीय पशुधन विकास मिशन) का भरपूर फायदा उठाकर पहाड़ों पर बद्रीगाय, भेड़, बकरी पालन पर ध्यान दिया जाना चाहिए। भारत सरकार एवं राज्य सरकार का धन जो 90ः10 प्रतिशत का अनुपात है उसका समुचित फायदा उठाया जाना चाहिए ताकि जो भी योजनायें हैं उनका सम्पूर्ण लाभ पहाड़ के किसानों को मिले।

पूर्व में की गयी गलती में सुधार करके जो कुछ भी सफलता मिले, पहाड़ों में स्थानीय संसाधनों को ध्यान में रखकर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। स्थानीय रोजगार मिलने से पलायन में कुछ कमी आयेगी व कुछ लो जो पलायन कर चुके हैं उनके भी वापस आने की संभावना बन सकती है। स्कूली शिक्षा में कौशल विकास की शिक्षा जैसे इलेक्ट्रैशियन, कारपेंटर, राज मिस्त्री, स्कूटर मोटर साइकिल मैकेनिक आदि क्षेत्र में दी जानी चाहिए जो कि पहाड़ों पर जरूरत है। सूचना क्रांति के युग में भी पहाड़ों पर टेलीफोन व व इंटरनेट की समुचित सुविधा नहीं है जो सुविधा है उसकी गुणवत्ता में सुधार की जरूरत है। कृषि इनपुट (आदानों) का सचल वाहनों के माध्यम से सीजन के शुरू में संपूर्ण पहाड़ी क्षेत्रों में उपलब्धता सुनिश्चित की जानी चाहिए। साथ में पैदावार का किसानों को उचित मूल्य मिले। यह सुनिश्चत किया जाना चाहिए। उत्तराखंड सरकार को हल्दी, अदरक, मिर्च आदि का समर्थन मूल्य सुनिश्चित कर इनकी समय पर खरीददारी की जानी चाहिए व सभी सरकारी विभागों में इनकी आपूर्ति की जानी चाहिए।

यदि हो सके तो आर्गेनिक ब्राडिंग पर मिशन मोड में कार्य शुरू किया जाना चाहिए। वन पंचायतों का यदि समुचित प्रबंध किया जाये तो यह भी आय के अच्छे साधन हो सकते हैं और जो पत्ते आग से जलते हैं उनसे आर्गेनिक खाद बनाई जा सकती है या अन्य उपयोगी चीजें भी बनाई जा सकती हैं। बेमौसमी फल व सब्जी से अत्यधिक आय हो सकती है बशर्ते प्रयास दिखावा मात्र न हो और समूह चाहे गांवों का हो या विकास खंडों का हो एक फसल का चयन कर उत्पादन कराया जाये ताकि विपणन हेतु समुचित मात्रा हो। एक ब्लाक एक फसल जैसी योजना बनाकर किसानों को प्रोत्साहित किया जाये किसानों की हैंड होल्डिंग करके योजनाओं को धरातल पर उतारना होगा। प्रवासी उत्तराखंडियों को कम से कम एक दो माह उत्तराखंड में रहना चाहिए। मुख्यतया जो स्वस्थ सेवानिवृत लोग हैं ताकि उनके आगमन से क्षेत्र के लोगों को उनकी खरीदारी से कुछ आर्थिक सहायता मिलेगी साथ ही साथ उनके ज्ञान से बौद्धिक विकास में भी मदद मिलेगी। मेरा मानना है कि ऐसा करके हम कह पायेंगे कि चलो देर है पर अंधेर नहीं।

Hill Mail
ADMINISTRATOR
PROFILE

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked with *

विज्ञापन

[fvplayer id=”10″]

Latest Posts

Follow Us

Previous Next
Close
Test Caption
Test Description goes like this