भूस्खलन : भारत का सर्वाधिक असुरक्षित राज्य है उत्तराखंड

भूस्खलन : भारत का सर्वाधिक असुरक्षित राज्य है उत्तराखंड

इसरो के राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा तैयार भारत का भूस्खलन मानचित्र हिमालयी राज्य उत्तराखंड की डरावनी तस्वीर दिखा रहा है। रिपोर्ट से पता चला है कि उत्तराखंड में रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, चमोली में भूस्खलन का खतरा सबसे ज्यादा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1988 से 2022 के बीच भूस्खलन की सबसे ज्यादा 12,385 घटनाएं मिजोरम में, उसके बाद उत्तराखंड में 11,219 और फिर त्रिपुरा में 8,070 घटनाएं दर्ज की गई।

-जयसिंह रावत

आदिगुरू शंकराचार्य द्वारा सनातन धर्म की रक्षा के लिये भारत वर्ष के चार कोनों में स्थापित चार धार्मिक पीठों में से एक ज्योतिर्पीठ का भूधंसाव और भूस्खलन तो चिन्ता का विषय बना ही हुआ है। लेकिन उससे भी बड़ी चिन्ता का विषय यह है कि जोशीमठ के अलावा भी उत्तराखंड के सैकड़ों गांव, कस्बे और नगर इसी तरह के खतरे की जद में हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केन्द्र (आइएसआरओ) और राष्ट्रीय दूरसंवेदी केन्द्र (एनआरएससी) के भूस्खलन जोखिम मानचित्र में उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग, टिहरी और चमोली जिले शीर्ष पर रखे गये हैं। इन जिलों में चारधाम ऑल वेदर रोड पहाड़ों को विचलित कर ही चुकी है और अब दिव्यता और भव्यता के लिये भारी मशीनों से बद्रीनाथ नगरी की जड़ें हिलाई जा रही हैं। केदारनाथ में पहले ही हिल चुकी है।

जोशीमठ की जर्जर हालत आज दुनियां के सामने हैं। पता नहीं आने वाली बरसात में इस पौराणिक, सामरिक और पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील नगर की स्थिति क्या होगी। लेकिन जहां तक समूचे उत्तराखंड का सवाल है तो यहां ऐसी कोई बरसात नहीं गुजरती जब भूस्खलन से दर्जनों लोग मारे नहीं जाते होंगे। अब तो फरवरी के महीने में भी भूस्खलन होने लगे हैं, जिसका जीता जागता उदाहरण जोशीमठ और धौलीगंगा की 2021 की बाढ़ है।

सन् 2013 की केदारनाथ आपदा के बाद राज्य सरकार द्वारा कराये गये एक सर्वे में 395 गांव खतरे में पाये गये थे जिनमें से 73 अत्यन्त संवेदनशील थे। राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण द्वारा 7 जून 2021 को जारी विज्ञप्ति के अनुसार 2012 से लेकर 2021 के बीच, सरकार ने 465 संवेदनशील गांवों की पहचान की है, जहां से परिवारों को स्थानांतरित करने की आवश्यकता है। इस अवधि के दौरान, केवल 44 गांवों में 1,101 परिवारों को स्थानांतरित कर दिया गया।

राज्य आपदा प्रबंधन केन्द्र के सर्वेक्षणों में मसूरी और नैनीताल भी खतरे की जद में हैं। नैनीताल में सन् 1880 में आये भूस्खलन में 151 लोग मारे गये थे। उत्तरकाशी के वरुणावत का भूस्खलन बड़ी मुश्किल से थमा है। बद्रीनाथ मार्ग पर कलियासौड़, नन्दप्रयाग और लामबगड़ ऐसे भूस्खलन हैं जो कई दिनों तक एक बड़े इलाके का सड़क सम्पर्क काट देते हैं। मालपा हादसे को लोग अभी तक नहीं भूले जिसमें प्रोतिमा बेदी समेत लगभग 150 मानसरोवर यात्री मारे गये थे।

भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के राष्ट्रीय रिमोट सेंसिंग सेंटर द्वारा तैयार भारत का भूस्खलन मानचित्र या एटलस हिमालयी राज्य उत्तराखंड की डरावनी तस्वीर दिखा रहा है। रिपोर्ट से पता चला है कि देश में रुद्रप्रयाग, टिहरी गढ़वाल, राजौरी, त्रिशूर, पुलवामा, पलक्कड़, मालाप्पुरम, दक्षिण सिक्किम, पूर्वी सिक्किम और कोझिकोड में भूस्खलन का खतरा सबसे ज्यादा है। ये जिले उत्तराखंड, केरल, जम्मू कश्मीर और सिक्किम राज्य में हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1988 से 2022 के बीच भूस्खलन की सबसे ज्यादा 12,385 घटनाएं मिजोरम में दर्ज की गई हैं। इसके बाद उत्तराखंड में 11,219, त्रिपुरा में 8,070 घटनाएं दर्ज की गई थी।

रिपोर्ट में भूस्खलन की दृष्टि से भारत के जिन 147 सर्वाधिक संवेदनशील जिलों की रैंकिंग की गयी है उसके अनुसार उत्तराखंड का रुद्रप्रयाग जिला शीर्ष पर है। इसी जिले में केदार घाटी है जहां केदारनाथ स्थित हैं। सन् 2013 की केदारनाथ आपदा से पहले 1998 में इस घाटी में कई गांव भूस्खलन से प्रभावित हुये थे। भारत में भूस्खलन जोखिम रैंकिंग के हिसाब से रुद्रप्रयाग के बाद टिहरी को दूसरे नम्बर पर रखा गया है। टिहरी के बाद चमोली-19, उत्तरकाशी-21, पौड़ी-23, देहरादून-29, बागेश्वर-50, चम्पावत-65, नैनीताल-68, अल्मोड़ा-81, पिथौरागढ़-86, हरिद्वार 146 और उधमसिंहनगर को 147 वीं रैंक दी गयी है।

रिपोर्ट के अनुसार 2014 में देश में वर्षा ऋतु में कुल 17,698 भूस्खलन दर्ज हुये थे जिनमें अकेले उत्तराखंड के 1,593 भूस्खलन थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि 1988 से 2022 के बीच भूस्खलन की सबसे ज्यादा 12,385 घटनाएं मिजोरम में दर्ज की गई हैं। इसके बाद उत्तराखंड में 11,219, त्रिपुरा में 8,070, अरुणाचल प्रदेश में 7,689, जम्मू और कश्मीर में 7,280, केरल में 6,039 और मणिपुर में 5,494, जबकि महाराष्ट्र में भूस्खलन की 5,112 घटनाएं दर्ज की गई थी।

हिमालयी राज्य उत्तराखंड के लिये प्रकृति के साथ अत्यधिक मानवीय हस्तक्षेप भी खतरे का कारण है। जोशीमठ की तबाही के लिये एनटीपीसी का तपोवन-विष्णुगाड प्रोजेक्ट को जिम्मेदार माना ही जाता है। चमोली जिले में ही पिण्डर और अलकनन्दा के संगम नगर कर्णप्रयाग का एक हिस्सा धंस रहा है। पिण्डर घाटी में चमोली जिले का झलिया और बागेश्वर का कुंवारी गांव कभी भी जमींदोज हो सकते हैं। यह जानकर भी झलिया गांव को सड़क निर्माण से और अधिक संवेदनशील बना दिया गया है।

चारधाम ऑल वेदर रोड के निर्माण के समय इसरो द्वारा तैयार लैंड स्लाइड जोनेशन एटलस की अनदेखी किये जाने से दर्जनों सुसुप्त भूस्खलन पुनः सक्रिय होने लगे हैं। ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल की सुरंगों के निर्माण में भारी विस्फोटों के कारण कई बस्तियां खतरे में पड़ गयी। बिजली परियोजनाएं तो पहले से ही पहाड़ों को खोखला कर रही थी। कर्णप्रयाग रेल लाइन की सुरंग के निर्माण से टिहरी का अटाली गांव, चमोली का सारी गांव और रुद्रप्रयाग के मरोड़ा गांव पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। इस परियोजना के विस्फोटों ने श्रीनगर शहर के कुछ कस्बों को भी हिला कर रख दिया। उत्तरकाशी में 1991 के भूकम्प के बाद कई गांव संवेदनशील हो गये। जिला प्रशासन में 26 गांवों को संवेदनशील घोषित किया गया है। गंगोत्री मार्ग पर स्थित भटवाड़ी कस्बा भी जोशीमठ की तरह खिसक रहा है। इसी तरह मस्तड़ी गांव में मकानों पर दरारें आयी हुयी है।

बद्रीनाथ को दिव्य और भव्य बनाने की सनक में भारी मशीनों से अलकनन्दा के दोनों तट बुरी तरह खोद दिये गये हैं। इस खुदाई से क्रूम और प्रह्लाद धाराएं गायब हो गयी हैं। गढ़वाल विश्वविद्यालय के शोधार्थियों के अनुसार अगर इस तरह जीसीबी मशीनों का तहस नहस अभियान जारी रहा तो तप्त कुण्ड भी सूख जायेंगे और नदी किनारे खड़े दो बोल्डरों को छेड़ा गया तो बद्रीनाथ पुरी भी जोशीमठ की तरह धंस सकती है, क्योंकि बद्रीनाथ भी ग्लेशियरों द्वारा लाये गये मलबे में बसा हुआ है। धाम में कुछ स्थानों पर दरारें आ चुकी हैं। इस क्षेत्र पर पैनी नजर रखने वाले जानेमाने भूविज्ञानी प्रो. एम.पी.एस. बिष्ट ने मास्टर प्लान के नाम पर हो रही बेतहासा खुदाई एवं तोड़फोड़ पर चिन्ता जताई है। बद्रीनाथ में एसटीपी अक्सर खराब हो जाती है। जिस कारण हजारों लोगों का मलजल सीधे पवित्र अलकनन्दा में प्रवाहित कर दिया जाता है।

बद्री-केदार मंदिर समिति के चेयरमैन अजेंद्र अजय कहते हैं, कि जब इस तरह का बड़ा प्रोजेक्ट होता है तो हर कोई अपने हिसाब से सेटलमेंट चाहता है लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के हिसाब से सेटलमेंट नहीं हो सकता। इसलिए सरकार ने एक कॉमन पॉलिसी बनाकर लोगों को विकल्प दिए हैं।

यात्रियों की बढ़ती संख्या का दबाव

बद्रीनाथ धाम में आने वाले लोगों की संख्या पिछले 50 सालों में तेजी से बढ़ी है। राज्य पर्यटन विभाग के मुताबिक पिछले साल 2022 में ही रिकॉर्ड 40 लाख से अधिक लोगों ने चारधाम यात्रा की। 1980 के दशक तक यहां प्रतिवर्ष 3 या 3.5 लाख से अधिक यात्री नहीं आते थे, लेकिन पिछले 30 साल में यहां पहुंचने वाले पर्यटकों की संख्या 10 गुना से अधिक बढ़ी है। जाहिर है कि ऐसे में किसी मास्टर प्लान या नई कार्ययोजना की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन इसके लिए यहां की भौगोलिक स्थिति को देखकर ही कार्य किया जाना चाहिए।

केदारनाथ को भव्य-दिव्य और सुरक्षित बनाने के लिये अरबों रुपये खर्च हो चुके हैं। लेकिन भूविज्ञानियों के अनुसार ग्लेशियर के मोरेन पर स्थित केदारपुरी से अत्यधिक छेड़छाड़ होने से इसे और अधिक असुरक्षित बना दिया गया है। पिछले साल बार-बार एवलांच आने के बाद राज्य आपदा न्यूनीकरण एवं प्रबंधन केन्द्र के निदेशक डा. पियूष रौतेला के नेतृत्व में गठित एक विशेषज्ञ कमेटी ने केदारनाथ को एवलांच के खतरे से तो सुरक्षित माना मगर चोराबाड़ी तथा एक अन्य ग्लेशियरों द्वारा लाये गये अस्थिर और सक्रिय आउटवाश (मलबे) में स्थित इस धाम में किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगाने की सिफारिश जरूर की।

कमेटी ने इस धाम के दोनों ओर बह रही मंदाकिनी और सरस्वती के द्वारा हो रहे कटाव का भी उल्लेख किया था। इससे पूर्व भूगर्व सर्वेक्षण विभाग ने भी रामबाड़ा से ऊपर किसी भी तरह के भारी निर्माण पर रोक लगाने की सिफारिश की थी। लेकिन केदारनाथ आपदा के बाद सुरक्षा के नाम पर वहां इतना भारी निर्माण हो चुका कि जिसे धारण करने की क्षमता पर ही सवाल उठने लगा है।

यमुना के उद्गम स्थल यमुनोत्री मंदिर के सिरहाने खड़े कालिंदी पर्वत से वर्ष 2004 में हुए भूस्खलन से मंदिर परिसर के कई निर्माण क्षतिग्रस्त हुए तथा छह लोगों की मौत हुई थी। वर्ष 2007 में यमुनोत्री से आगे सप्तऋषि कुंड की ओर यमुना पर झील बनने से तबाही का खतरा मंडराया जो किसी तरह टल गया। वर्ष 2010 से तो हर साल यमुना में उफान आने से मंदिर के निचले हिस्से में कटाव शुरू हो गया है। कालिन्दी पर्वत यमुनोत्री मंदिर के लिये स्थाई खतरा बन गया है। वर्ष 2001 में यमुना नदी में बाढ़ आने से मंदिर का कुछ भाग बह गया था।

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