जख्म याद कर भावुक हुए राज्य आंदोलनकारी, कब बनेगा इनके सपनों का उत्तराखंड !

जख्म याद कर भावुक हुए राज्य आंदोलनकारी, कब बनेगा इनके सपनों का उत्तराखंड !

अतीत के पन्नों में सितम्बर का महीना उत्तराखंड वासियों के लिए मानों काले दिवसों से कम नहीं है, पहले 1 सितम्बर साल 1994 को खटीमा गोलीकांड और फिर ठीक एक दिन बाद दो सितंबर को हुआ मसूरी गोलीकांड, तब इन दोनों घटनाओं ने उत्तराखंड वासियों को झकझोर कर दिया था।

डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला

आज मसूरी गोलीकांड की 30वीं बरसी है। दो सितंबर का दिन आज भी मसूरीवासियों की धड़कनें तेज कर देता है। आंदोलन की अलख जगाने के लिए पुरुषों के साथ महिलायें भी राज्य आंदोलन में कूद पड़ी। राज्य आंदोलन के इतिहास के पन्नों में दो सितंबर 1994 का दिन बहुत ही खास है। ये वो दिन है जिसे याद कर आज भी लोगों के शरीर में सिहरन सी दौड़ जाती है। 1994 में उत्तराखंड राज्य के लिए पूरे प्रदेश में आंदोलन चल रहा था। खटीमा गोलीकांड के अगले ही दिन 2 सितम्बर, 1994 को मसूरी गोलीकांड हुआ था। खटीमा की घटना के विरोध में मसूरी में मौन जुलूस निकाल रहे राज्य आंदोलनकारियों पर पुलिस और पीएसी ने ताबड़तोड़ गोलियां बरसाकर 7 लोगों को मौत के घाट उतार दिया था। ऐसे में फायरिंग के कारण शांत रहने वाले मसूरी की आबोहवा में बारूद की गंध फैल गई थी।

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में मसूरी की भूमिका को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। राज्य आंदोलन में दो सितंबर 1994 का दिन भले ही इतिहास का काला दिन बन गया हो लेकिन राज्य निर्माण की बुनियाद यहीं से शुरू हुई थी। दो सिंतबर का दिन राज्य आंदोलन की ऐसी घटना थी जिसने तत्कालीन उत्तर प्रदेश को ही नहीं पूरे भारत व विश्व को झकझोर कर रख दिया था। उस वक्त राज्य आंदोलन चरम पर था। खटीमा में पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दी। जिसमें कई लोग शहीद हो गये। जैसे ही यह खबर मसूरी पहुंची तो यहां भी आंदोलन शुरू हो गया।

वर्तमान शहीद स्थल पर क्रमिक अनशन करने वालों को पुलिस ने रात में ही उठा लिया। उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के कार्यालय पर पुलिस एवं पीएसी ने कब्जा कर लिया। सुबह हुई तो खटीमा कांड के विरोध में मसूरी में मौन जुलूस निकालने की तैयारी चल ही रही थी। पता चला कि झूलाघर पर पुलिस ने कब्जा कर लिया है। पूरे क्षेत्र को घेर लिया गया था। जिससे लोग आक्रोशित हो गये। पहाड़ों की रानी मसूरी ने राज्य आंदोलन को दिशा दी। यहां से आंदोलन के दौरान घोषणा होती थी उसे पूरे प्रदेश में माना जाता था। छह साल बाद वर्ष 2000 को तत्कालीन सरकार ने उत्तराखंड राज्य बनाने की घोषणा की।

राज्य बना तो लोगों को लगा कि अब नई सुबह हो गई है। इसका लाभ यहां के युवाओं को मिलेगा, महिलाओं को मिलेगा, पलायन रुकेगा और विकास होगा, लेकिन राज्य बनने के 24 साल बाद भी राज्य की स्थित जस की तस बनी है। पहाड़ आज भी विकास को तरस रहे हैं। जिस सपने को लेकर राज्य निर्माण किया गया था वह सपने आज भी अधूरे हैं। जल, जंगल, जमीन और पहड़ से पलायन के मुद्दे को लेकर राज्य की लड़ाई लड़ी गई थी। लेकिन आज सभी मुद्दे नेताओं की महत्वकांक्षा के सामने गुम हो गये हैं।

उन्होंने कहा कि आज भी उत्तराखंड मूलभूत सुविधाओं से वचिंत है और सपनों का उत्तराखंड बनाने के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना है। राज्य आंदोलन में भाग लेने महिलाएं आगे आई तो उन्हें भी गोली मार दी गई, जिसमें बेलमति चौहान और हंसा धनैई शहीद हो गईं। इस गोलीकांड में मसूरी के छह आंदोलनकारी बलबीर सिंह नेगी, धनपत सिंह, राय सिंह बंगारी, मदनमोहन मंमगाईं, बेलमती चौहान और हंसा धनाई शहीद हो गए, मसूरी के डीएसपी रहे उमाकांत त्रिपाठी ने गोली चलाए जाने का विरोध किया तो उन्हें भी गोली मार दी गई, उन्हें भी बाद में शहीद का दर्जा मिला।

इसके बाद पुलिस ने आंदोलनकारियों की धरपकड़ शुरू की। इससे पूरे शहर में अफरातफरी मच गई। क्रमिक अनशन पर बैठे पांच आंदोलनकारियों को पुलिस ने एक सितंबर की शाम को ही गिरफ्तार कर लिया था। जिनको अन्य गिरफ्तार आंदोलनकारियों के साथ पुलिस लाइन देहरादून भेजा गया। वहां से उन्हें बरेली सेंट्रल जेल भेज दिया गया था। वर्षों तक कई आंदोलनकारियों को सीबीआई के मुकदमे झेलने पड़े थे। बाद में फिर आंदोलन ने तेजी पकड़ ली और नौ नवंबर साल 2000 को 42 शहादत के बाद हमें अलग राज्य मिला।

दुर्भाग्य है की आज तक खटीमा और मसूरी गोली कांड के दोषियों को सजा तक नहीं मिल पाई है। जुल्म सहने के बाद जिन सपनों के लिए राज्य की लड़ाई लड़ी गई, वो अब तक पूरे नहीं हुए हैं। दो सितंबर की घटना को कभी भुलाया नहीं जा सकता। उन्होंने कहा कि पुलिस के सीओ को भी शहीद का दर्जा मिलना चाहिए। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड की सत्ता पर काबिज रही पार्टियों ने पहाड़ को छलने और ठगने का काम किया है। पहाड़ का विकास आज भी एक सपना बना हुआ है। उन्होंने कहा कि हर साल 2 सितंबर को सभी पार्टी के नेता और सत्ता में बैठे जनप्रितिनिधि मसूरी पहुंचकर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं और लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)।

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