उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पेड़ों की छालों से निकलने वाला भोजपत्र का बड़ा ही पौराणिक एवं धार्मिक महत्व है। भोजपत्र का उपयोग पारंपरिक रूप से धर्म ग्रंथों और पवित्र ग्रंथों को लिखने के लिए कागज के तौर पर किया जाता रहा है। अब भोजपत्रों के जंगल संकट में हैं और यह तेजी से सिकुड़ रहे हैं।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
हिमालय क्षेत्र में उगने वाला एक वृक्ष है जो 4,500 की ऊंचाई तक उगता है। यह बहुपयोगी वृक्ष है – इसका छाल सफेद रंग की होती है जो प्राचीन काल से ग्रंथों की रचना के लिये उपयोग में आती थी। भोजपत्र का नाम आते ही उन प्राचीन पांडुलिपियों का विचार आता है, जिन्हें भोजपत्रों पर लिखा गया है। कागज की खोज के पूर्व हमारे देश में लिखने का काम भोजपत्र पर किया जाता था। भोजपत्र पर लिखा हुआ सैकड़ों वर्षो तक संरक्षित रहता है, परन्तु वर्तमान में भोजवृक्ष गिनती के ही बचे हुये हैं। हमारे देश के कई पुरातत्व संग्रहालयों में भोजपत्र पर लिखी गई सैकड़ों पांडुलिपियां सुरक्षित रखी है। जैसे हरिद्वार में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय का संग्रहालय।
कालीदास ने भी अपनी कृतियों में भोजपत्र का उल्लेख कई स्थानों पर किया है। उनकी कृति कुमारसंभवम् में तो भोजपत्र को वस्त्र के रूप में उपयोग करने का जिक्र भी है। भोजपत्र का उपयोग प्राचीन रूस में कागज की मुद्रा ’बेरेस्ता’ के रूप में भी किया जाता था। इसका उपयोग सजावटी वस्तुओं और चरण पादुकाओं-जिन्हे ’लाप्ती’ कहते थे, के निर्माण में भी किया जाता था। सुश्रुत एवं वराद मिहिर ने भी भोजपत्र का जिक्र किया है। भोजपत्र का उपयोग काश्मीर में पार्सल लपेटने में और हुक्कों के लचीले पाइप बनाने में भी किया जाता था।
वर्तमान में भोजपत्रों पर कई यंत्र लिखे जाते है। भोटिया जनजाति के लोगों ने वृक्षविहीन बदरिकाश्रम क्षेत्र में भोजपत्र का जंगल खड़ा करने को मुहिम छेड़ी है और इसके अगुआ बने हैं चीन सीमा पर स्थित देश के प्रथम गांव माणा निवासी ‘पेड़ वाले गुरुजी’ शिक्षक धन सिंह घरिया। नमामि गंगे के सहयोग से शुरू की इस मुहिम के तहत अब तक चीन सीमा पर देश के प्रथम गांव माणा से बदरीनाथ धाम के बीच भोजपत्र के 450 पौधे लगाए जा चुके हैं। चमोली जिले में समुद्रतल से 10,227 फीट की ऊंचाई पर स्थित माणा गांव को शास्त्रों में मणिभद्रपुरी कहा गया है। मान्यता है कि यहीं पर महर्षि वेदव्यास ने महाभारत ग्रंथ की रचना की थी। पहले बदरीनाथ धाम से माणा गांव तक भोजपत्र के साथ बदरी (बेर) का घना जंगल था, लेकिन कालांतर में यह दोनों वृक्ष प्रजाति विलुप्त हो गई।
हालांकि, माणा गांव से 10 किमी दूर स्वर्गारोहणी मार्ग पर आज भी भोजपत्र का घना जंगल मौजूद है, जिसे ‘लक्ष्मी वन’ नाम से जाना जाता है। माणा के बुजुर्ग बताते हैं कि उन्होंने अपने बाल्यकाल में गांव के आसपास भोजपत्र के पेड़ देखे हैं, लेकिन वर्तमान में यह पूरा क्षेत्र वृक्षविहीन है। बीते 20 वर्षों के दौरान माणा से बदरीनाथ के बीच ईको टास्क फोर्स व बामणी गांव की महिलाओं ने ‘राजीव गांधी स्मृति वन’ और वन विभाग ने ‘बदरीश एकता वन’ स्थापित करने को पहल की थी। तब रोपे गए पौधे अब वृक्ष का रूप ले चुके हैं। इस सफलता से उत्साहित होकर पेड़ वाले गुरुजी धन सिंह घरिया ने बदरीनाथ से माणा के बीच भोजपत्र का जंगल लगाने की पहल की। उन्होंने पौधे लगाने और उनके संरक्षण के लिए नमामि गंगा, एचसीएल फाउंडेशन व इंटेक फाउंडेशन से वार्ता की तो सभी ने सहयोग का भरोसा दिलाया।
इसके बाद शिक्षक धन सिंह ने ग्रामीणों की बैठक में स्पष्ट किया कि अगर वह भोजपत्र का जंगल विकसित करते हैं तो वह माणा गांव में एक नए डेस्टिनेशन के रूप में उभरकर सामने आएगा। क्योंकि, भोजपत्र को देखने के लिए आज भी देश-विदेश के लोग लालायित रहते हैं। अक्टूबर 2022 में माणा में जनसभा के दौरान प्रधानमंत्री बदरिकाश्रम क्षेत्र में प्रकृति के संरक्षण और आजीविका बढ़ाने पर जोर दिया था। यह बात उनके दिलो-दिमाग में घर कर गईं और उन्होंने ग्रामीणों के साथ भोजपत्र के जंगल के जरिये धार्मिक व पर्यटन गतिविधियों के लिए नया डेस्टिनेशन बनाने को कवायद शुरू की। इस वर्षाकाल के दौरान क्षेत्र में 1500 पौधे रोपने का लक्ष्य रखा गया है। अभी तक 450 पौधे रोपे जा चुके हैं। बताया कि इन पौधों की देखरेख की जिम्मेदारी हर ग्रामीण की होगी। फिलहाल ग्रामीणों की चिंता यह है कि शीतकाल में बर्फ से इन पौधों को कैसे सुरक्षित रखा जाएगा। इसके लिए विशेषज्ञों से बातचीत कर समधान निकालने का प्रयास हो रहा है। भोज वृक्ष की छाल का उपयोग कभी शास्त्र लेखन, राजा व अन्य लोगों के संदेश लेखन और देव कार्यों में किया जाता था। कई तरह दवाइयां बनाने में तो भोजपत्र का आज भी उपयोग होता है।
नीती-माणा घाटी की महिलाएं तो कैलीग्राफी से भोजपत्र पर आरती, श्लोक, अभिनंदन आदि लिखकर अच्छी-खासी अर्जित कर रही हैं। उनकी भोजपत्र बनाई गई कलाकृतियों की भी काफी मांग है। भोज वृक्ष का पेड़ 10 से 12 फीट ऊंचा होता है। यह पांच वर्ष में सुरक्षित आकार लेना शुरू कर देता है। माणा गांव में भोज की नर्सरी तैयार की गई है। भोज के पौधे पेड़ का आकार लेने के बाद तेजी से फैलते हैं। भोज की छाल समय-समय पर पेड़ से स्वयं अलग होती है। इसी को भोजपत्र के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। भोज वृक्ष के पत्ते मवेशियों समेत जंगली जानवरों का पसंदीदा भोजन हैं, इसलिए इन पौधों को जंगली जानवरों से बचाना सबसे ज्यादा चुनौती है। क्योंकि शीतकाल के दौरान माणा घाटी के सभी लोग निचले स्थानों पर आ जाते हैं। जितना पवित्र माना जाता है, उतना ही अपने चमत्कारी औषधीय गुणों के लिए भी प्रसिद्ध है।
इस पौधे का प्रयोग यूनानी दवाओं में भी किया जा रहा है। इसे स्थानीय भाषा में बिर्च के नाम से जाना जाता है। इस पौधे को इसकी सफेद छाल से पहचाना जा सकता है। इसकी छाल में कई प्राचीन ग्रंथों की रचना भी की गई है। वहीं इसमें कई ऐसे तत्व मौजूद हैं, जो औषधीय रूप में बेहद कारगर हैं। इस पौधे का प्रयोग रक्त पित्त रोग में, कर्ण रोग, विष विकार, कुष्ठ रोग, पेट के कीड़े और हड्डी संबंधित रोगों के उपचार के लिए किया जाता है. भोजपत्र का प्राचीनकाल से ही बहुत ही महत्व रहा है। ऋषि मुनियों ने प्राचीन काल में जब कागज की खोज नहीं हुई थी तब ग्रंथों की रचना भोजपत्र पर की थी जो आज भी हमारे संग्रहालयों में मौजूद है। पांडुलिपियों को भी भेजपत्र पर ही लिखा गया है। छोटे रेशों के कारण उसकी लुगदी से टिकाऊ कागज भी बनता है। इसकी लकड़ी का उपयोग ड्रम, सितार, गिटार आदि बनाने में भी किया जाता है। बेलारूस, रूस, फिनलैंड, स्वीडन और डेनमार्क उत्तरी चीन के कुछ हिस्सों में बर्च के रस का उपयोग उम्दा बीयर के रूप में होता है। इससे जाइलिटाल नामक मीठा एल्कोहल भी मिलता है जिसका उपयोग मिठास के लिए होता है।
उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पेड़ों की छालों से निकलने वाला भोजपत्र का बड़ा ही पौराणिक एवं धार्मिक महत्व है। भोजपत्र का उपयोग पारंपरिक रूप से धर्म ग्रंथों और पवित्र ग्रंथों को लिखने के लिए कागज के तौर पर किया जाता रहा है भोजपत्रों के जंगल संकट में हैं और यह तेजी से सिकुड़ रहे हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाने वाले भोज पत्र के जंगलों पर खतरा मंडरा रहा है। गढ़वाल के साथ ही कुमाऊं के आदि कैलाश को जाने वाले मार्ग पर भी इसके जंगल हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन, सड़कों के निर्माण व यात्रा मार्ग में जाने वाले पर्यटकों द्वारा इसे पहुंचाए जाने वाले नुकसान एवं मलबे के चलते इसका अस्तित्व संकट में पड़ रहा है। हिमालयी बुग्यालों से पहले भोजपत्र ट्री लाइन बनाते हैं। यह 9 से 12 हजार फीट की ऊंचाई पर उगते हैं। इस पादप को इको फ्रैंडली माना जाता है। यह जल संरक्षण की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से भी इसे विशेष महत्व के पौधे के रूप में रखा जाता है। यह हिमालयी क्षेत्र का महत्वपूर्ण पेड़ है। सांस्कृतिक दृष्टि से भी इसका विशेष महत्व है। यह अपनी जड़ों से जल संरक्षित करता है। इसकी छाल का उपयोग प्रचीन समय में पेपर वर्क के लिए किया जाता था। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में इसके बाद कोई पेड़ नहीं दिखाई देता है। उसके बाद यहां वनस्पति, फूल एवं सफेद बर्फ की चादर ही दिखाई देती है।
हिंदुओं के वेद, पुराण से लेकर कई धर्मिक ग्रंथ इसमें लिखे गए हैं। वनस्पति वैज्ञानिकों का कहना है कि इसका जीवन बहुत लंबा होता है। सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से भी भोजपत्र का बहुउपयोग किया जाता रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन और लगातार पेड़ों के कटने से भी भोज वृक्ष नामक प्रजाति पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। अब उत्तराखंड में भोजपत्र के जंगल बहुत कम बचे हैं। भोजपत्र उच्च हिमालय का मुख्य वृक्ष है। इसकी विशेषताएं इस क्षेत्र को विशेष बनाती हैं। उच्च हिमालय में वहां की वनस्पतियों को संरक्षित रखना आवश्यक है। हमने गुंजी, कालापानी, नावीढांग सहित उच्च हिमालयी क्षेत्रों में भोजपत्र, रूद्राक्ष व धूप के पौधों का रोपण किया है। उच्च हिमालयी क्षेत्रों में सड़क बन जाने से काफी संख्या में पर्यटक यहां तक पहुंच रहे हैं, इससे यहां का पर्यावरण भी प्रभावित हो रहा है। पर्यावरण को संरक्षित रखने के लिए पौधारोपण के साथ ही हिमालयी प्रजातियों के वृक्षों का संरक्षण भी आवश्यक है।
‘एक पौधा धरती के नाम’ से अभियान के संरक्षक भोज पत्र जिसे हमारे पूर्वजों ने कागज के रूप में उपयोग किया। जिसने हमारे इतिहास को हम तक पहुंचाया। प्राचीन काल में ग्रंथों की रचना के लिए इसका उपयोग होता था। कागज की खोज से पूर्व हमारे देश में लिखने का काम भोजपत्र पर किया जाता था। उसका विलुप्त होना वाकई चिंताजनक है। हर हाल में इस हिमालयी वृक्ष को संरक्षित करना जरूरी है। यह हमारी प्राचीन संस्कृति का परिचायक वृक्ष है। यह हिमालयी वृक्षों का एक प्रतिनिधि पेड़ है। यह औषधीय गुणों से भरपूर है। इसे बचाया जाना जरूरी है। पर्यटन से हमें इकोनॉमिकली फायदा मिल रहा है लेकिन इकोलॉजिकली संकट पैदा हो रहा है। पर्यटकों के चलते इस प्रजाति को सर्वाधिक खतरा पैदा हो रहा है। कांवडियों और पर्यटक गंगोत्री से पानी लेने के लिए आने के दौरान इन वृक्षों को नुकसान पहुंचाते हैं। वह भोजपत्र को अपने साथ ले जाना शुभ मानते हैं। इसके चलते भोज वृक्ष सिमट रहे हैं। गोमुख जाने वाले यात्री व पर्यटक भी इसे नुकसान पहुंचाते हैं। माना जाता है कि भोजपत्र व भोज छड़ी शुभ होती है। हर माह हजारों यात्री भोजबासा से गुजरते हैं। पर्यावरणविदों का कहना है कि इन पेड़ों को संरक्षण की आवश्यकता है, वरना ये पेड़ विलुप्त हो जाएंगे। केवल सरकार ही नहीं लोगों को भी इस दिशा में आगे कदम बढ़ाना होगा।
लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।
Leave a Comment
Your email address will not be published. Required fields are marked with *