उत्तराखंड के बर्फ विहीन पर्वत पर्यावरणीय संकट की ओर बढ़ रहा है

उत्तराखंड के बर्फ विहीन पर्वत पर्यावरणीय संकट की ओर बढ़ रहा है

इस वर्ष उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बर्फबारी की कमी ने पर्यटन उद्योग और स्थानीय निवासियों को चिंता में डाल दिया है। मौसम में इस बदलाव के कारण जलवायु परिवर्तन के संकेत मिल रहे हैं, जिससे आने वाले समय में इस क्षेत्र की पर्यावरणीय स्थितियों पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में इस वर्ष मौसम में आए बदलाव का प्रभाव साफ नजर आ रहा है। नवंबर माह में, जब बर्फबारी सामान्यतः शुरू हो जाती है, हेमकुंड साहिब जैसे अत्यधिक ऊंचाई वाले क्षेत्रों में भी इस बार बर्फ का अभाव देखने को मिल रहा है। गुरुद्वारा प्रबंधक सेवा सिंह के अनुसार, हेमकुंड साहिब के कपाट बंद होने के दिन यहां हल्की बर्फ गिरी थी, लेकिन इसके बाद से कोई भी महत्वपूर्ण बर्फबारी नहीं हुई उत्तरकाशी जनपद के गंगोत्री धाम से लगी चोटियां, यमुनोत्री धाम के आसपास की चोटियां, सप्त ऋषि कुंड और बंदरपूंछ में भी नाममात्र की बर्फ ही नजर आ रही है। कालिंदी पर्वत, गरुड़ टॉप, छोटा कैलाश, भीथाच और बंगाणी क्षेत्र भी बर्फ विहीन हैं। इसके अलावा, बदरीनाथ धाम की नीलकंठ, नर नारायण, माता मूर्ति मंदिर की चोटी, और वसुधारा ट्रेक भी बर्फ से मुक्त हैं। रुद्रप्रयाग जिले के केदारनाथ, तुंगनाथ, मदमहेश्वर, कालीशिला, हरियाली डांडा, टंगनी बुग्याल, बेदनी बुग्याल, पौड़ी और ग्वालदम के ऊपरी क्षेत्रों में भी बर्फ नहीं है।

इस वर्ष उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में बर्फबारी की कमी ने पर्यटन उद्योग और स्थानीय निवासियों को चिंता में डाल दिया है। मौसम में इस बदलाव के कारण जलवायु परिवर्तन के संकेत मिल रहे हैं, जिससे आने वाले समय में इस क्षेत्र की पर्यावरणीय स्थितियों पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है। हिमालय में बर्फबारी की देरी और कमी ग्लेशियरों के पिघलने की प्रक्रिया को तेज कर सकती है। इसका सीधा असर ग्लेशियर के साथ ग्लेशियर पोषित नदियों पर पड़ेगा। उत्तरकाशी के पूर्व जिला आपदा प्रबंधन अधिकारी ने बताया कि पिछले 15 वर्षों के आंकलन के आधार देखे तो यह स्थिति केवल मौसम के असामान्य पैटर्न का नतीजा नहीं है, बल्कि वैश्विक स्तर पर बढ़ते तापमान का प्रभाव भी है। हिमालय जैसे संवेदनशील क्षेत्र में इस तरह की घटनाएं पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित कर सकती हैं। यह न केवल स्थानीय स्तर पर बल्कि वैश्विक पर्यावरण पर भी गंभीर प्रभाव डाल सकता है।

पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए सरकार की ओर से ढेरों प्रयास किए जा रहे हैं लेकिन पर्यटन बढ़ने से यहां एक विपरीत प्रभाव भी बढ़ने लगा है। दरअसल बीते समय में हिमालय में तेजी से बर्फ पिघलने की घटनाएं सामने आ रही हैं। इसी का नतीजा है कि बर्फ से ढकी रहने वाली पंचाचूली की चोटियां काली पड़ने लगी हैं। चूंकि सर्दियां आने वाली हैं तो ऐसे में जमकर बर्फबारी होगी। एक बार अच्छी बर्फ पड़ गई तो पहाड़ की चोटियां भी श्वेत दिखने लगेंगी। इस क्षेत्र में कैलाश-मानसरोवर दर्शन के चलते बीते समय में लोगों की आवाजाही बढ़ी है। एक आंकड़ा बताता है कि बीते एक साल में 28 हजार से अधिक पर्यटक हिमालय क्षेत्रों में आए हैं। मौसम पैटर्न में बदलाव और ग्लोबल वार्मिंग के चलते बर्फबारी कम हो रही है, जिससे हिमालय के ग्लेशियरों पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है। ग्लेशियरों में बर्फ इकट्ठा नहीं हो पा रही, जोकि भविष्य में होने वाले पानी के संकट का संकेत है।

उन्होंने कहा कि बर्फबारी का न होना तो चिंता का विषय है ही लेकिन उससे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि ग्लेशियर में रात का तापमान बढ़ रहा है, जिससे अगर बर्फबारी होती भी है, तो वह ज्यादा तेजी से पिघल रही है। इससे ग्लेशियर का मास बैलेंस नेगेटिव में जा रहा है। मास बैलेंस से मतलब है कि साल भर में जितनी बर्फ आ रही है, उससे ज्यादा बर्फ पिघल रही है। वैज्ञानिक ने कहा आगे कहा कि नवंबर से लेकर मार्च तक सबसे ज्यादा बर्फ गिरती है, जो वहां ग्लेशियर में इकट्ठा होती है और अप्रैल से लेकर अक्टूबर में बर्फ पिघलती है। अभी पृथ्वी वार्मिंग स्टेज में है। जब भी पृथ्वी वार्मिंग स्टेज में होती है, तो ग्लेशियर पीछे की ओर खिसकते हैं यानी उनके वॉल्यूम और मोटाई में कमी आती है।

लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं और वह दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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