रिंगाल से बने उत्पादों की बाजार में बढ़ी डिमांड, युवा पीढ़ी भी इन उत्पादों की तरफ हो रही है आकर्षित

रिंगाल से बने उत्पादों की बाजार में बढ़ी डिमांड, युवा पीढ़ी भी इन उत्पादों की तरफ हो रही है आकर्षित

रिंगाल से बने प्रोडक्ट पहाड़ में ही नहीं बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी खूब पसंद किए जा रहे हैं। रिंगाल का पेड़ प्रकृति के लिए भी लाभकारी होता है। जिस जगह पर रिंगाल का पेड़ होता है, वहां भूस्खलन कम होता है। इसके अलावा रिंगाल से बने उत्पादों की बाजार में खूब डिमांड है।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

रिंगाल दूरस्थ ग्रामीण पर्वतीय क्षेत्रों की दस्तकारी हस्तशिल्प का ना केवल सर्वोत्तम माध्यम है। वरन् यहां की सामाजिक-आर्थिक एवं सांस्कृतिक जन जीवन का महत्वपूर्ण अंग भी है। रिंगाल बांस प्रजाति की झाड़ी है जो सामान्यतया 3 मीटर से 25 मीटर तक लम्बी होती है। यह झाड़ी मानसूनी शीतोष्ण जलवायु में समुद्रतल से 4000 फीट से लेकर 10,000 फीट तक ही ऊंचाई, शत प्रतिशत आर्द्रता वाले स्थानों में सभी जगह उपलब्ध होती है। रिंगाल अरून्डिनेरिया प्रजाति की एक बहुपयोगी झाड़ी है। पूरे विश्व में इसकी लगभग 80 प्रजातियां है। जिनमें से 26 प्रजाति भारत में पायी जाती है। इन विभिन्न प्रजातियों में थाम, देव रिंगाल, गिवास, गडेलू आदि रिंगाल का प्रयोग इस क्षेत्र में स्थानीय निवासियों द्वारा काश्तकारी के लिए किया जाता है। रिगाल यहां के जीवन में रच बस गई है। स्कूल में प्रवेश करते ही बच्चों को इसकी कलम की आवश्यकता पड़ती है।

परम्परागत् वस्तुएं जैसे टोकरी, डाला, चटाई, अनाज भण्डारण बनाने में तथा साथ ही घरों की दीवार तथा छत बनाने में भी इसका प्रयोग किया जाता है। इन वस्तुओं का प्रयोग प्रत्येक कृषक परिवार के लिए आवश्यक होता है। ये वस्तुएं जहां एक ओर बहुत आवश्यक है वहीं इसे दूसरी ओर गरीबों की लकड़ी का नाम दिया गया है। ऊंचे पर्वतीय क्षेत्रों में इसे गरीबों की खेती भी कहा जाता है। यह मुख्यतः बांज के जगलों में पाया जाता है। सन् 1962 के युद्ध के पश्चात् तिब्बत और भारत के बीच चल रहे परम्परागत व्यवसाय तथा आवाजाही पर रोक लग गये जिससे कुमाऊं के बुनकरों जो कि मुनसारी के उत्तरी क्षेत्र में रह रहे थे को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा था। उनको वस्तुओं को बनाने के लिए काफी दूरी से कच्चा माल लाना पड़ रहा था उन स्थानों पर आसानी से नहीं पहुचा जा सकता था। वे लोग महीनों तक कच्चा माल एकत्रित करने के लिए अपने घरों को छोड़ कर जाते थे जिसमें उनका काफी पैसा खर्च हो जाता था।

उत्तराखंड के बागेश्वर में रिंगाल का काफी ज्यादा उत्पादन होता है। इससे बने प्रोडक्ट पहाड़ में ही नहीं बल्कि मैदानी क्षेत्रों में भी खूब पसंद किए जाते हैं। रिंगाल का पेड़ प्रकृति के लिए भी लाभकारी होता है। जिस जगह पर रिंगाल का पेड़ होता है, वहां भूस्खलन कम होता है। रिंगाल से बने उत्पादों की बाजार में खूब डिमांड है। इन दिन बागेश्वर के उत्तरायणी मेले में रिंगाल से बने उत्पाद जमकर बिक रहे हैं। पहाड़ के लोग आज भी रिंगाल से बने उत्पादों को पसंद करते हैं। आज की यंग जेनरेशन भी इन उत्पादों की तरफ आकर्षित हो रही है। उत्तराखंड में कई युवा रिंगाल के प्रोडक्ट तैयार कर‌ रहे हैं और इन्हें बेचकर अच्छी आमदनी कमा रहे हैं। बागेश्वर के पर्वतीय क्षेत्रों के लिए रिंगाल हमेशा से वरदान रहा है।

रिंगाल बांस की एक प्रजाति है, जिसे बौना बांस भी कहा जाता है। यह बहुत बारीक होता है, इसलिए इस पर काम करना आसान नहीं होता। रिंगाल से कई तरह के हैंडीक्राफ्ट आइटम बनाए जाते हैं। इससे बने सामानों का इस्तेमाल घरों में किया जाता है। मॉडल डेकोरेशन से लेकर किचन तक में इन प्रोडक्ट्स का इस्तेमाल किया जाता है। रिंगाल से भंडारण कंटेनर, टेबल लैंप, फ्लावर पॉट, फूड बास्केट, पैन, पेन स्टैंड, मैट आदि बनाए जाते हैं। इसके किसी भी प्रोडक्ट में प्लास्टिक का प्रयोग नहीं होता है। इसमें से रेशे भी नहीं निकलते हैं। रिंगाल से बने सामानों में क्राफ्ट की अच्छी फिनिशिंग होती है। लकड़ी और बांस से बनी हुई छोटी-छोटी टोकरी। जैसे-जैसे आधुनिकता आती गई, वो परंपरागत चीजें खत्म होती चली गईं, उत्तराखंड के पहाड़ों में किसी जमाने में रिंगाल से विभिन्न प्रकार के वस्तुएं बनना रोजगार का एक बड़ा साधन था।

वर्तमान में कच्चा माल उपलब्ध न होने से रिंगाल कारोबार सीमित रह गया है। बाजार में इन उत्पादों की डिमांड तो बढ़ रही है। लेकिन कच्चा माल न होने से हस्तशिल्पी वस्तुएं तैयार नहीं कर पा रहे हैं। यहां तक की प्रदेश में किसान अपने ही खेत में रिंगाल की व्यवसायिक खेती नहीं कर सकते हैं। इसके लिए वन विभाग ने परमिट लेना पड़ता है। वहीं, आरक्षित वन क्षेत्र में प्राकृतिक रूप से उगने वाला रिंगाल को निकालना प्रतिबंधित है। रिंगाल की व्यवसायिक खेती में सबसे बाधा यह भी है कि किसान अपने खेत में भी रिंगाल नहीं उगा सकता है। इसके लिए वन विभाग से परमिट लेना पड़ता है। इस वजह से पहाड़ों में रिंगाल की खेती व्यवसायिक तौर पर नहीं हो पाई है। वहीं, आरक्षित वन क्षेत्र में भी प्राकृतिक रूप से उगने वाला रिंगाल का इस्तेमाल करने पर भी प्रतिबंधित है। पहाड़ के लोग आज भी रिंगाल से बने उत्पादों को पसंद करते हैं। आज की यंग जेनरेशन भी इन उत्पादों की तरफ आकर्षित हो रही है।

उत्तराखंड में कई युवा रिंगाल के प्रोडक्ट तैयार कर‌ रहे हैं और इन्हें बेचकर अच्छी आमदनी कमा रहे हैं। बागेश्वर के पर्वतीय क्षेत्रों के लिए रिंगाल हमेशा से वरदान रहा है। बदियाकोट से बागेश्वर मेले में आए व्यापारी ने बताया कि वह रिंगाल से बने सूप, डलिया, ढोकरी, छपरी आदि लेकर आए हैं। वह युवावस्था से ही दानपुर क्षेत्र में बने इन रिंगाल प्रोडक्ट्स की खरीद-फरोख्त कर रहे हैं। बागेश्वर के दानपुर क्षेत्र में रिंगाल से कई प्रकार के प्रोडक्ट्स बनाए जाते हैं। उत्तरायणी मेले में रिंगाल के उत्पाद 150 रुपये से लेकर 500 रुपये तक बिक रहे हैं। उन्होंने कहा कि रिंगाल के उत्पाद तैयार करने में काफी मेहनत लगती है। इसका कोई भी प्रोडक्ट कितने साल चलेगा, यह कच्चे माल और इसकी बनवाई पर निर्भर करता है। रिंगाल पहाड़ में पर्यावरण बचाने के साथ रोजगार का साधन भी बन रहा है।

उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में बहुतायत में पाया जाने वाला रिंगाल और बांस यहां के लोकजीवन का एक अहम हिस्सा है। इससे विभिन्न प्रकार की परम्परागत टोकरियां, डोके, सुपा, झाडू इत्यादि सदियों से बनाये जाते रहे हैं। मगर अब इसका प्रयोग सजावटी सामान बनाने में भी किया जा रहा है। बांस और रिंगाल से निर्मित ये आइटम पूरी तरह पर्यावरण को बचाते हैं। इनको बनाने में रत्ती भर भी प्लास्टिक का यूज नही होता है। प्राकृतिक चीजों से तैयार होने के कारण इनको इस्तेमाल करने में शरीर को भी कोई नुकसान नही है। यही नही इनसे बने आइटम की डिमांड बढ़ रही है तो लोग अपने खेतों में बांस और रिंगाल पैदा भी कर रहे हैं। सबसे बेहतरीन क्वालिटी का बांस-रिंगाल उत्तराखंड और हिमाचल में ही पैदा होता है। जिस कारण इसका महत्व और अधिक बढ़ जाता है।

उत्तराखंड में मुख्य रूप से 5 तरह के बांस पाए जाते हैं। इनके पहाड़ी नाम हैं गोलू रिंगाल, देव रिंगाल, थाम, सरारू और भाटपुत्र इनमें गोलू और देव रिंगाल सबसे अधिक मिलता है। रिंगाल की इतनी उपयोगिता होने के बावजूद इसका भविष्य अंधकारमय होता जा रहा है। जहां आज की युवा पीड़ी दूसरे रोजगार के अवसरों की तरफ दौड़ लगा रही है वहीं लोगों के आज कल प्लास्टिक से बनी वस्तुवों का अधिक उपयोग से इस कला को संभालने वाले काश्तकारों की आय भी बहुत कम है।

लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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