प्लास्टिक की बोतलों से हानिकारक केमिकलों के रिसने का खतरा बना रहता है, खासकर अगर पानी को लंबे समय तक इन बोतलों में स्टोर किया जाता है, या फिर इन्हें धूप या बेहद अधिक तापमान में छोड़ दिया जाता है। कई ब्रांड पानी को सुरक्षित और बेस्ट क्वालिटी का दावा करके बेच रहे हैं। लेकिन जिसे हम अमृत समझ कर पीते हैं उस पानी में कई ऐसे घटक हो सकते हैं जो हमारे स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाल सकते हैं।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
बोतलबंद पानी आम लोगों और पृथ्वी पर गहरा प्रभाव डाल रहा है। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ग्लोबल हेल्थ में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में करीब 200 करोड़ लोग ऐसे हैं जो आज भी सुरक्षित पेयजल से दूर हैं, यदि उन तक पीने का साफ पानी पहुंच भी रहा है तो वो बहुत सीमित है। ऐसे में यह बोतल बंद पानी उनकी मजबूरी है। लेकिन हममें से काफी लोगों के लिए यह सुविधा और विश्वास का मामला है। बोतल बंद पानी का व्यापार करने वाली कंपनियां अक्सर ऐसे प्रस्तुत करती हैं कि बोतल बंद पानी, नलजल की तुलना में कहीं ज्यादा सुरक्षित और स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद है। हालांकि कतर स्थित वेइल कॉर्नेल मेडिसिन और अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं के मुताबिक यह हमेशा सच नहीं होता। इस बारे में शोधकर्ताओं ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि बोतलबंद पानी, हमेशा नल जल की तरह सख्त गुणवत्ता जांच से नहीं गुजरता।
विशेषज्ञों के मुताबिक प्लास्टिक की बोतलों से हानिकारक केमिकलों के रिसने का खतरा बना रहता है, खासकर अगर पानी को लंबे समय तक इन बोतलों में स्टोर किया जाता है, या फिर इन्हें धूप या बेहद अधिक तापमान में छोड़ दिया जाता है। देखा जाए तो कई ब्रांड पानी को सुरक्षित और बेस्ट क्वालिटी का दावा करके बेच रहे हैं। लेकिन जिसे हम अमृत समझ कर पीते हैं उस पानी में कई ऐसे घटक हो सकते हैं जो हमारे स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाल सकते हैं। अध्ययन से पता चला है कि बोतलबंद पानी के दस से 78 फीसदी तक नमूनों में दूषित पदार्थ होते हैं। यहां तक कि इनमें माइक्रोप्लास्टिक जैसे प्रदूषक भी पाए गए हैं, जो हार्मोन को प्रभावित कर सकते हैं। इसके साथ ही बोतलबंद पाने में अन्य हानिकारक पदार्थ जैसे कि फथलेट्स और बिस्फेनॉल ए भी पाए गए हैं।
गौरतलब है कि फथलेट्स का उपयोग प्लास्टिक को मजबूत बनाने के लिए किया जाता है। शोधकर्ताओं के मुताबिक माइक्रोप्लास्टिक की मौजूदगी से ऑक्सीडेटिव तनाव, प्रतिरक्षा प्रणाली में कमजोरी और रक्त में वसा के स्तर में बदलाव जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं। वहीं बीपीए के संपर्क में आने से जीवन में आगे चलकर स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। इनमें उच्च रक्तचाप, हृदय रोग, मधुमेह और मोटापा शामिल हैं। वहीं इन दूषित पदार्थों के लम्बे समय में क्या प्रभाव पड़ेंगें इस बारे में अभी भी बहुत अधिक जानकारी नहीं है। इस बात की भी आशंका है कि माइक्रोप्लास्टिक हमारी खाद्य श्रृंखला में भी प्रवेश कर सकते हैं।
शोध के मुताबिक नलजल एक पर्यावरण अनुकूल विकल्प है। दूसरी तरफ प्लास्टिक से बनी बोतलें समुद्र में बढ़ते प्रदूषण का दूसरा सबसे आम प्रदूषक हैं। यह कुल प्लास्टिक कचरे का करीब 12 फीसदी हिस्सा हैं। अनुमान है कि महज नौ फीसदी बोतलों को ही रीसाइकिल किया जाता है, जबकि अधिकांश लैंडफिल में चली जाती हैं, या फिर जला दी जाती हैं। वहीं इनमें से कुछ को प्रबंधन के लिए कमजोर देशों को भेज दिया जाता है। ऐसे में निष्पक्षता और सामाजिक न्याय को लेकर चिंताएं बढ़ जाती हैं। प्लास्टिक की बोतलों से पैदा हो रहे कचरे के साथ-साथ, इनके लिए कच्चे माल की जरूरत होती है, साथ ही निर्माण के दौरान बहुत ज्यादा उत्सर्जन होता है। जो पर्यावरण के साथ-साथ जलवायु पर गहरा असर डालता है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि हालांकि रेस्तरां और सार्वजनिक स्थानों पर पेयजल उपलब्ध कराने के साथ-साथ सिंगल यूज प्लास्टिक के उपयोग को कम करने के प्रयास किए गए हैं, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। शोधकर्ताओं का सुझाव है कि सरकारी कार्रवाई और जागरूकता अभियान इस दिशा में लोगों की सोच और व्यवहार को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इन अभियानों में लोगों को नलजल से पर्यावरण और स्वास्थ्य को होने वाले फायदों के बारे में जागरूक करना चाहिए। इससे ज्यादा से ज्यादा लोगों की आदतों में सकारात्मक बदलाव आएगा।
अध्ययन में जो निष्कर्ष सामने आए हैं उनके मुताबिक बोतलबंद पानी पर निर्भरता से स्वास्थ्य, धन और पर्यावरण को भारी नुकसान होता है। ऐसे में इसके बढ़ते उपयोग पर दोबारा विचार करने की जरूरत है। सरकारों को भी, खास तौर पर कमजोर देशों में सुरक्षित पेयजल से जड़े बुनियादी ढांचे में निवेश के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए। रिसर्च रिपोर्ट के मुताबिक, कंपनी के बीच बोतलबंद पानी के कारोबार को लेकर बढ़ती प्रतिस्पर्धा सूखे के हालात बना रही है. दुनिया के कई ऐसे हिस्से हैं जहां पर इस कारोबार की कीमत किसान चुका रहे हैं. जमीन का जलस्तर घटने के कारण उन्हें खेती-किसानी के लिए पर्याप्त पानी नहीं मिल पा रहा है। क्लाइमेट चेंज के कारण पहले ही बारिश का स्तर साल दर साल घट रहा है। ऐसे में नया रिकॉर्ड तनाव को बढ़ा रहा है जलवायु परिवर्तन का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पानी पर महत्वपूर्ण असर पड़ता है।
भारत जैसे संवेदनशील देशों में इसके गंभीर सामाजिक और आर्थिक असर देखने को मिलते हैं। लाखों गरीब लोग तेजी से घटते विश्वसनीय जल संसाधनों, बड़े पैमाने पर वेटलैंड में आ रही गिरावट और बदतर जल प्रबंधन के साथ जीने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। जल संसाधन तेजी से घट रहे हैं और खराब भी हो रहे हैं। बदलते बारिश के पैटर्न के कारण सतही जल उपलब्धता में गिरावट से भूजल पर निर्भरता बढ़ती है। अधिक निकासी और बदलते मौसम व वर्षा की तीव्रता के परिणामस्वरूप, भारत के कई हिस्सों में भूजल स्तर खतरनाक दर से घट रहा है। तटीय क्षेत्रों में यह एक्वीफर्स (भूमिगत जल संग्रहण करने वाले चट्टान) में लवणता पैदा करती है। पानी की कमी लोगों के बीच आवंटन और टकराव का कारण बनती है।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव खाद्य सुरक्षा पर दिखने के साथ जल सुरक्षा के लिए भी प्रत्यक्ष होंगे। अंतरराष्ट्रीय खाद्य नीति अनुसंधान संस्थान के एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि दुनिया की आधी से अधिक आबादी और वैश्विक अनाज उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा 2050 तक पानी की कमी के कारण जोखिम में होगा। बाढ़ या सूखे जैसी स्थिति के कारण कृषि विफलता ग्रामीण अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है। ग्रामीण भारत के बड़े हिस्सों में जीवन अब भी कृषि पर निर्भर करता है। बाढ़ और लंबे समय तक सूखे जैसी आपदाएं चिंता-संबंधी प्रतिक्रियाओं के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य संबंधी विकारों का कारण भी बनती हैं। भारत में हजारों किसानों ने पिछले कुछ दशकों में आत्महत्या की है।
21वीं सदी के अंत तक जलवायु परिवर्तन से सूखे की घटनाएं और तीव्रता में वृद्धि होने की आशंका है और दुनिया का एक बड़ा हिस्सा अकाल का अनुभव कर सकता है। भोजन की कमी या भोजन की गुणवत्ता के मुद्दे भी मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकते हैं। कृषि के अलावा, मत्स्य क्षेत्र में संभावित संकट भी खाद्य सुरक्षा के लिए खतरा है। जलीय प्रजातियां आमतौर पर पानी के तापमान के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं और जलवायु परिवर्तन से मछली का विकास भी प्रभावित होता है। बाढ़ और सूखे के साथ जुड़े पानी से संबंधित स्वास्थ्य मुद्दे भी पैदा हो रहे हैं। बाढ़ ताजे पानी की आपूर्ति को दूषित करती है, जल-जनित बीमारियों के जोखिम को बढ़ाती है और रोग फैलाने वाले कीड़ों के लिए प्रजनन आधार बनाती है। ये इंसानों के डूबने और शारीरिक चोटों, घरों को नुकसान पहुंचाने और चिकित्सा और स्वास्थ्य सहित आवश्यक सेवाओं की आपूर्ति को बाधित करती हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने चेतावनी दी है कि तेजी से परिवर्तनशील वर्षा पैटर्न से मीठे पानी की आपूर्ति प्रभावित होने की संभावना है। सुरक्षित पानी की कमी स्वच्छता से समझौता कर सकती है और डायरिया रोग के खतरे को बढ़ा सकती है, जो हर साल पांच लाख से अधिक बच्चों की मौत का कारण बनता है। सुरक्षित पानी की कमी अक्सर जल संसाधनों में पानी के बंटवारे को लेकर विवाद का कारण बनती है। मौजूदा जल विवादों के भी बढ़ने और नए विवादों के पैदा होने की आशंका है। यह समस्या भारत जैसे देश में गंभीर हो जाएगी, जहां क्षेत्रीय हित राष्ट्रीय हितों पर हावी होंगे और निहित राजनीतिक हितों को हल करना और आम सहमति बनाना मुश्किल होगा।
पानी पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से संबंधित कई अन्य सामाजिक-आर्थिक और पर्यावरणीय मुद्दे भी हैं, जो मानव जीवन को प्रभावित करते हैं। मसलन भोजन और पानी की कीमतों में बढ़ोतरी जो गरीबों के लिए वहन करना मुश्किल होता है, पानी और भोजन के आवंटन को लेकर प्रतिस्पर्द्धा और संघर्ष, पलायन, हिंसा, पर्यटन में कमी, जंगल की आग और प्रजातियों के नुकसान आदि। सुरक्षित पानी एक महंगी वस्तु बन रहा है। आज भी कुछ देशों में बोतलबंद पानी की कीमत फलों के रस से अधिक होती है। मानव प्रवास देशों के बीच तनाव और देशों के विभिन्न वर्गों के लोगों के बीच तनाव पैदा करता है। हालांकि बदलते वर्षा पैटर्न से जुड़ी पानी की कमी के कारण प्रवासन सदियों से हो रहा है, लेकिन यह पिछले कुछ दशकों में वैश्विक जलवायु में असामान्य बदलावों के साथ तेज हो गया है।
वर्षा का पैटर्न बदल जाने पर जलविद्युत महंगी हो सकती है। कम वर्षा के कारण नदी प्रवाह में कमी या नदियों और जलाशयों में तलछट के कारण कटाव और तीव्र वर्षा के कारण अवसादन जल विद्युत उत्पादन को काफी प्रभावित कर सकता है। केरल जैसे राज्य पहले से ही इस स्थिति का सामना कर रहे हैं।जलवायु परिवर्तन के प्रति कुछ वर्ग बेहद संवेदनशील हैं। इनमें बच्चे और बुजुर्ग शामिल हैं, जो बीमार हैं और जिनमें जन्म दोष है। इसके अलावा वे गर्भवती और प्रसवोत्तर महिलाएं भी अधिक खतरे में हैं जो लोग पहले से ही मानसिक बीमारी से पीड़ित हैं। निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले लोग, प्रवासी, शरणार्थी और बेघर भी अधिक असुरक्षित हो सकते हैं। भारत में हजारों अत्यधिक गरीबों के लिए सुरक्षित पानी के बिना जीवित रहना मुश्किल हो सकता है। विश्व आर्थिक मंच ने वैश्विक जोखिमों में नंबर एक के रूप में जल संकट को स्थान दिया है। इस संकट से दुनिया के सभी क्षेत्रों में आर्थिक और सामाजिक नुकसान पहुंचने की आशंका है।
जलवायु परिवर्तन के साथ रहने का अर्थ होगा, पानी पर पड़ने वाले प्रभावों का मुकाबला करना और समुदायों और अर्थव्यवस्थाओं की कमजोरियों को कम करने के लिए आवश्यक कदम उठाना। यहां तक कि जब पानी से संबंधित आपदाएं हमारे सामने होती हैं, तो राजनेता शायद ही इसे गंभीरता से देखते हैं। महाकाव्य महाभारत में यक्ष, युधिष्ठिर से पूछते हैं, “आप जो सबसे अद्भुत चीज देखते हैं, वह क्या है?” इसका जवाब आज भी प्रासंगिक है। युधिष्ठिर जवाब देते हैं, “जब अनगिनत जीव यम लोक पहुंच जाते हैं, तब भी पीछे रह गए लोग मानते हैं कि यह उन पर लागू नहीं होता और वे अमर हैं।” चिंता और चिंतन हमेशा हमारा मार्गदर्शन करेगी। इन नदियों के पानी की जांच से पता चला है कि इनके जल में कैलिशयम, मैगिन्नीशियम, क्लोराइड, डिजाल्वड आक्सीजन, पीएच, बीओडी, अल्केलिनिटि जैसे तत्वों की मात्रा जरुरत से ज्यादा बढ़ रही है। ऐसा रासयनिक उर्वरकों, कीटनाशकों का खेती में अंधाधुंध इस्तेमाल और कारखानों से निकलने वाले जहरीले पानी व कचरे का उचित निपटान न किए जाने के कारण हो रहा है।
बीते कुछ सालों में जीएम बीजों का इस्तेमाल बढ़ने से भी रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की जरुरत बढ़ी है। यही रसायन मिटटी और पानी में घुलकर बोतलबंद पानी का हिस्सा बन रहा है, जो शुद्धता के बहाने लोगों की सेहत बिगाड़ने का काम कर रहा है। कीटनाशक के रुप में उपयोग किए जाने वाले एंडोसल्फान ने भी बड़ी मात्रा में भूजल को दूषित किया है। केरल के कसारगोड जिले में अब तक एक जहार लोगों की जानें जा चुकी हैं और 10 हजार से ज्यादा लोग गंभीर बीमारियों की चपेट में हैं। हमारे यहां जितने भी बोतलबंद पानी के संयंत्र हैं, वे इन्हीं नदियों या दूषित पानी को शुद्ध करने के लिए अनेक रसायनों का उपयोग करते हैं। इस प्रक्रिया में इस प्रदूषित जल में ऐसे रसायन और विलय हो जाते हैं, जो मानव शरीर में पहुंचकर उसे हानि पहुंचाते हैं। इन संयंत्रों में तमाम अनियमितिताएं पाई गई हैं।
अनेक बिना लायसेंस के पेयजल बेच रही हैं, तो अनेक पास भारतीय मानक संस्था का प्रमाणीकरण नहीं है। जाहिर है, इनकी गुणवत्ता संदिग्ध है। हमने जिन देशों से औधोगीकरण का नमूना अपनाया है, उन देशों से यह नहीं सीखा कि उन्होंने अपने प्राकृतिक संसाधनों को कैसे बचाया। यही कारण है कि वहां की नदियां तालाब, बांध हमारी तुलना में ज्यादा शुद्ध और निर्मल हैं। स्वच्छ पेयजल देश के नागरिकों का संवैधानिक अधिकार है। लेकिन इसे साकार रुप देने की बजाय केंद्र व राज्य सरकारें जल को लाभकारी उत्पाद मानकर चल रही हैं। यह स्थिति देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं और वह दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं)।
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