उच्च हिमालयी क्षेत्रों में घास के मैदानों पर मंडरा रहा है खतरा!

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में घास के मैदानों पर मंडरा रहा है खतरा!

उच्च हिमालय के निचले इलाके में घास के कई बड़े मैदान हैं। इंसानी स्वरूप के रूप में देखें तो उच्च हिमालय का बर्फ वाला क्षेत्र यदि मुकुट है, तो घास के मैदान इसकी गर्दन का परिक्षेत्र कहा जा सकता है। लेकिन अब इन बुग्यालों पर खतरा मंडरा रहा है।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

कुदरत की अनमोल देन बुग्याल (उच्च हिमालयी क्षेत्र में घास के मैदान) पर खतरा मंडरा रहा है। केंद्र सरकार के निर्देश पर हुए वन विभाग के ताजा सर्वेक्षण में खुलासा हुआ कि टिहरी जिले के 51 बुग्यालों में भू-धंसाव हो रहा है। इसके चलते वनस्पति और बुग्यालों की घास नष्ट हो रही है। उच्च हिमालय में हिम रेखा और ट्री लाइन के बीच का इलाका इको सिस्टम के संतुलन की अहम कड़ी है। करीब 3500 मीटर से 4500 मीटर ऊंचाई के बीच का ये क्षेत्र पर्यावरण के स्वास्थ्य का थर्मामीटर माना जाता है, लेकिन पिछले कुछ दशकों से बुग्यालों (ऊंचे पहाड़ों में स्थित घास के मैदान) की सेहत बिगड़ रही है और घास का एक बड़ा इलाका लगातार बर्बाद हो रहा है। इसके पीछे की वजह केवल प्राकृतिक नहीं, बल्कि इंसानों का इन क्षेत्रों में दखल भी यहां की सूरत को बदल रहा है।

उच्च हिमालय के निचले इलाके में घास के कई बड़े मैदान हैं। इंसानी स्वरूप के रूप में देखें तो उच्च हिमालय का बर्फ वाला क्षेत्र यदि मुकुट है, तो घास के मैदान इसकी गर्दन का परिक्षेत्र कहा जा सकता है। इस हिमालय इकोलॉजी का महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है। वेस्टर्न हिमालय में उत्तराखंड से लेकर अफगानिस्तान तक बुग्याल के कई क्षेत्र मिलते हैं। हालांकि अलग-अलग क्षेत्र में इसे अलग-अलग नाम से जाना जाता है। जम्मू-कश्मीर में गुलमर्ग जैसे बड़े घास के मैदान हैं, जबकि उत्तराखंड के कई जिलों में घास के बड़े बुग्याल मौजूद हैं।

हिमालय में ग्लेशियर से निकलने वाली जलधारा इन्हीं बुग्याल से होते हुए नदियों के रूप में आगे बढ़ती है। इस दौरान बुग्याल में मौजूद तमाम जड़ी बूटियों से निकलने वाला पानी नदियों को भी औषधीय गुण वाला बनाता है। घास के मैदानों पर पिछले कई दशकों से लगातार दबाव बढ़ रहा है। यह दबाव केवल प्राकृतिक रूप से ही नहीं है, बल्कि इंसानों की तमाम गतिविधियों ने भी घास के इन बड़े मैदानों को खतरे में डाला है। जलवायु परिवर्तन के कारण घास के मैदान सिमट रहे हैं। इन इलाकों में भारी मृदा अपरदन भी हो रहा है। इसके अलावा लैंडस्लाइड से भी घास के मैदानों का स्वरूप बदल रहा है। बादल फटने जैसी घटनाओं ने भी बुग्यालों को कम किया है। इन प्राकृतिक वजहों के अलावा घास के मैदानों में पर्यटन के लिहाज से कैंपिंग और चरवाहों द्वारा घास के मैदानों में जानवरों को ले जाने, जड़ी बूटियां के अवैध दोहन की घटनाओं समेत पर्यटन गतिविधियों में प्लास्टिक के कचरे के उपयोग ने भी बुग्यालों के लिए खतरा पैदा कर दिया है।

वन विभाग ने 83 हेक्टेयर बुग्याल क्षेत्र में ट्रीटमेंट किया राज्य में कुल बुग्याल क्षेत्र का 10 प्रतिशत इलाका प्रभावित होने के बाद उत्तराखंड वन विभाग ने अब तक 83 हेक्टेयर बुग्याल क्षेत्र में ट्रीटमेंट का काम किया है। बड़ी बात यह है कि बुग्याल को पहले जैसा बनने के लिए इको फ्रेंडली तकनीक का उपयोग किया जा रहा है, जिसमें ड्रेसिंग के लिए जूट के साथ पिरूल और बैंबू का भी उपयोग हो रहा है। अच्छी बात यह है कि इस नई तकनीक के परिणाम भी अच्छे आ रहे हैं। इको फ्रेंडली इस तकनीक का प्रयोग करने से लोगों को रोजगार भी उपलब्ध हो रहा है। वन विभाग द्वारा तकनीक का उपयोग करते हुए इन क्षेत्रों का चिन्हीकरण किया जा रहा है।

राज्य में कुल 13 डिवीजन में बुग्याल के ट्रीटमेंट पर काम हो रहा है। इस तरह जहां बुग्याल पर एक बड़ा खतरा मंडरा रहा है, तो वहीं वन विभाग घास के इन बड़े मैदाने को बचाने में जुटा हुआ है। अच्छी बात यह है कि इसके लिए इको फ्रेंडली टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल हो रहा है और इसके अच्छे परिणाम आने के कारण वन विभाग भी बेहद खुश नजर आ रहा है। गौरतलब है कि बुग्यालों में मानवी दखल से बने खतरे को लेकर हाईकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल की थी। इनको बेहतर किया जाए इसे लेकर भी कोर्ट से मांग की गई थी। दरअसल, औषधीय पेड़ों के स्रोत के साथ यहां 500 के करीब औषधीय प्रजातियां मिलती हैं। वैज्ञानिक भी औषधियों का दोहन और मानवीय दखल इनके लिए खतरा बता रहे हैं।

बहरहाल, जो मांग राज्य सरकार से पर्यवारण प्रेमी करते रहें उसको अब हाईकोर्ट ने पूरा किया है। बता दें कि उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय में हिमशिखरों की तलहटी में जहां टिम्बर रेखा (यानी पेडों की पंक्तियां) समाप्त हो जाती हैं, वहां से हरे मखमली घास के मैदान आरम्भ होने लगते हैं। आमतौर पर ये 8 से 10 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित होते हैं हिमालय में मखमली मैदानों को ही बुग्याल कहा जाता है। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन से पता चला है कि कैसे हिमालय का 90 प्रतिशत हिस्सा 3 डिग्री ग्लोबल वार्मिंग (बढ़ते तापमान) के कारण साल भर सूखे का सामना करता है। घोषणा के अनुसार यह जलवायु आपदाएं प्राकृतिक नहीं हैं, बल्कि प्रणालीगत व नीति जनित विफलताओं का नतीजा हैं।

वैश्विक और राष्ट्रीय स्तर से लेकर स्थानीय स्तर तक संसाधनों के शोषण और दोहन के चलते आज हिमालय आपदा ग्रस्त क्षेत्र बन गया है, इसलिए यह केवल पर्यावरणीय संकट नहीं बल्कि राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था का संकट है। आज विकास के नाम पर पूंजीवादी लालच ने हिमालय में संसाधनों की लूट को और गति दी है। बड़े बांध और चार लेन वाले राजमार्ग, रेलवे जैसी अंधाधुंध निर्माण परियोजनाओं, अनियंत्रित शहरीकरण और वाणिज्यिक अनियोजित पर्यटन के कारण भूमि-उपयोग में अभूतपूर्व परिवर्तन से हिमालय की नदियों, जंगलों, घास के मैदानों और भूगर्भीय स्थिति बर्बाद हुई है जिसने आपदाओं को आमंत्रित किया।

सामाज में ऐतिहासिक रूप से शोषित समुदाय – सीमान्त किसान, भूमिहीन, दलित-आदिवासी, वन निवासी, महिलायें, प्रवासी मजदूर, घुमंतू पशुपालक आदि जो संसाधनों से वंचित हैं, जो इन आपदाओं के लिए जिम्मेदार भी नहीं, आज इन आपदाओं से सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। जिन्होंने पहाड़ के प्राकृतिक संसाधनों को अपनी मल्कियत मान कर खरीद फरोख्त का सामान बना दिया है। चाहे वो विश्व, देश और राज्य चलाने वाली सरकारें हो या वर्ल्ड बैंक जैसी वैश्विक संस्थाएं हों, या फिर कोर्पोरेट हो या खुद हमारे अपने स्थानीय नेता और ठेकेदार हों यह पूरी व्यवस्था इन आपदाओं के लिए ज़िम्मेदार हैं। लेकिन अब इनके दीर्घकालिक उपचार पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है।

(लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं और वह दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।)

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