उत्तराखंड स्टोन वॉर पूरे देश में प्रसिद्ध है। यहां चंपावत जिले में रक्षाबंधन के दिन बड़ा मेला लगता है। कई दिन पहले से चहल-पहल बढ़ जाती है पर इस साल पहले जैसा माहौल नहीं दिखा। जो लोग कार्यक्रम में शामिल भी हुए, उन्होंने सामाजिक दूरी का पालन करते हुए रस्म अदायगी की।
कोरोना के कहर से इंसानों के साथ-साथ तीज-त्योहार, मेले, कारोबार, पढ़ाई, शादी सबकुछ प्रभावित हुई है। उत्तराखंड के चंपावत जिले में रक्षाबंधन के दिन देवीधूरा में होने वाले ऐतिहासिक बग्वाल में भी उतनी चहल-पहल नहीं है। इस बार पूजा अर्चना और मंदिर मैदान की परिक्रमा चार खाम और 7 थोको के चुनिंदा लोगों ने ही की। चार खाम और थोको मंदिर समिति जिला प्रशासन ने यह निर्णय लिया।
सीएम उत्तराखंड के आर्थिक मामलों के सलाहकार आलोक भट्ट ने आज ‘पत्थरों से युद्ध’ के दो वीडियो शेयर किए हैं। कोरोना के चलते इस बार ज्यादा भीड़भाड़ नहीं रही। मंदिर में जुटे लोगों ने भी सामाजिक दूरी का पालन किया।
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— Alok Bhatt (Modi Ka Parivar) (@alok_bhatt) August 3, 2020
मान्यता है कि एक बार अंग्रेजों ने भी बग्वाल को रोकने का प्रयास किया था लेकिन तब भी बग्वाल खेली गई थी। बग्वाल में चार खाम और सात थोको के वीर मां बारही को प्रसन्न करने के लिए एक दूसरे पर पत्थरों की वर्षा करते थे। जब तक एक आदमी के शरीर के बराबर रक्त नहीं बह जाता था, बग्वाल खेली जाती थी।
आपको बता दें कि हर वर्ष रक्षाबंधन के दिन बग्वाल मेले का आयोजन होता है। प्राचीन मान्यता है कि देवीधूरा क्षेत्र में नरवेगी यज्ञ हुआ करता था जिसमें यहां नर बलि दी जाती थी। एक परिवार में से हर वर्ष एक पुरुष की बलि दी जाती थी। जब एक बार चम्याल खाम की एक वृद्ध महिला के परिवार की बारी आई तो उसका एक नाती था, जो उसका एकमात्र सहारा था।
उसने मां बाराही से प्रार्थना की तो मां बाराही ने उसे सपने में दर्शन दिया और समस्त गांव वालों के साथ मिलकर बग्वाल का आयोजन करने के लिए कहा। तब से यह परंपरा सदियों से देवीधुरा में चली आ रही है। यह मेला रक्षाबंधन के दिन ही होता है। कुछ वर्षों से हाई कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद बग्वाल के स्वरूप में परिवर्तन आया और बग्वाल फल और फूलों से खेली जाने लगी है। मंदिर में बलि देने की परंपरा भी थी जो अब बिल्कुल समाप्त हो गई है।
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