हरेला त्योहार मानव को प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की सीख देता है

हरेला त्योहार मानव को प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की सीख देता है

हरियाली इंसान को खुशी प्रदान करती है। हरियाली देखकर इंसान का तन-मन प्रफुल्लित हो उठता है। आज बाजारवाद और पूंजीवादी संस्कृति मानव को प्रकृति के विरुद्ध खड़ा कर रही है। जो प्रकृति के करीब है उसे जंगली, बर्बर और असभ्य माना जाने लगा है। वहीं, हरेला प्रकृति और मानव के बीच के संबंधों को दर्शाता है।

ललित फुलारा

हरेला सिर्फ एक त्योहार न होकर उत्तराखंड की जीवनशैली का प्रतिबिंब है। यह प्रकृति के साथ संतुलन साधने वाला त्योहार है। प्रकृति का संरक्षण और संवर्धन हमेशा से पहाड़ की परंपरा का अहम हिस्सा रहा है। हरियाली इंसान को खुशी प्रदान करती है। हरियाली देखकर इंसान का तन-मन प्रफुल्लित हो उठता है। इस त्योहार में व्यक्तिवादी मूल्यों की जगह समाजवादी मूल्यों को वरीयता दी गई है।

हरेले के त्योहार में लोग अपने घर के हरेले (समृद्धि) को अपने तक ही सीमित न रखकर उसे दूसरे को भी बांटते हैं। यह विशुद्ध रूप से सामाजिक सद्भाव और प्रेम की अवधारणा है। हरेले के त्योहार में भौतिकवादी चीज़ों की जगह मानवीय गुणों को वरीयता दी गई है। मानवीय गुण हमेशा इंसान के साथ रहते हैं जबकि भौतिकवादी चीज़ें नष्ट हो जाती हैं।

जहां आज प्रकृति और मानव को परस्पर विरोधी के तौर पर देखा जाता है वहीं, हरेले का त्योहार मानव को प्रकृति के साथ सामंजस्य बैठाने की सीख देता है। हरेला पर्व हरियाली और जीवन को बचाने का संदेश देता है। हरियाली बचने से जीवन भी बचा रहेगा। इस प्रकार यह पर्व प्रकृति के संरक्षण और संवर्धन को खासा अहमियत देता है।

हरेला पारिवारिक एकजुटता का पर्व है। संयुक्त परिवार चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो उसमें हरेला एक ही जगह बोया जाता है। आसपड़ोस और रिश्तेदारों के साथ ही परिवार के हर सदस्य चाहे वह घर से कितना भी दूर क्यों न हो ‘हरेला’ भेजा जाता है। यह त्योहार संयुक्त परिवार की व्यवस्था पर जोर देता है। संपत्ति के बंटवारे और विभाजन के बाद ही एक घर में दो भाई अलग-अलग हरेला बो सकते हैं।

सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक महत्व के इस पर्व को दसवें दिन काटा जाता है। वैशाखी और होली की तरह ही यह एक कृषि प्रधान त्योहार है। हरेले से नौ दिन पहले घर में स्थित पूजास्थल पर छोटी-छोटी डलिया में मिट्टी डालकर सात बीजों को बोया जाता है। इसमें – गेंहू, जौ और मक्के के दाने प्रमुख हैं। हर दिन जल डालकर इन बीजों को सींचा जाता है ताकि यह नौ दिन में लहलहा उठे। घर की महिलाएं या बड़े बुजुर्ग सांकेतिक रूप से इसकी गुड़ाई भी करती हैं।

इसके बाद इसे काटकर विधिवत् पूजा-अर्चना कर देवताओं को चढ़ाया जाता है और फिर परिवार के सभी लोग हरेले के पत्तों को सिर और कान पर रखते हैं। हरेले के पत्तों को सिर और कान पर रखने के दौरान घर के बड़े बुजुर्ग, आकाश के समान ऊंचा, धरती के समान विशाल और दूब के समान विस्तार करने का आशीर्वाद देते हैं।

इस दौरान – ‘जी रया जागि रया, आकाश जस उच्च, धरती जस चाकव है जया, स्यावै क जस बुद्धि, सूरज जस तराण है जौ..’ कहा जाता है। हरेला कृषि प्रधान त्योहार है। इसमें जो बीज डाले जाते हैं वो सीजन में होने वाले अन्न के प्रतीक हैं।

इन बीजों को धन-धान्य और समृद्धि के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है। ‘जी रे जाग रे’ के रूप में जो भी कामनाएं की जाती हैं वो आज की अपेक्षाओं के समान बाजारवाद में रची-बसी नहीं होती। आकाश के समान ऊंचा, धरती के समान विशाल और दूब के समान विस्तार का आशीर्वाद हमें सीधे तौर पर प्रकृति के साथ जोड़ता है। हरेले का त्योहार प्रकृति से सीखने और उसके जैसे बनने के लिए प्रेरित करता है।

जहां आज बाजारवाद और पूंजीवादी संस्कृति मानव को प्रकृति के विरुद्ध खड़ा कर रही है। जो प्रकृति के करीब है उसे जंगली, बर्बर और असभ्य माना जाने लगा है। वहीं, हरेला प्रकृति और मानव के बीच के संबंधों को दर्शाता है।

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