हिन्दी को ज्यादा से ज्यादा लोग अपना रहे हैं, लेकिन सिर्फ बोलचाल की भाषा के रूप में। जैसे किसान का बेटा गांव छोड़ने को लालायित रहता है, उसी तरह हिन्दी को मातृभाषा बताने वाला भी अपनी हिन्दी से पिंड छुड़ाने के चक्कर में रहता है, हिन्दी की किताब या पत्रिका को घर में रखने से झेंपता है। टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझता है, हिन्दी मजबूरी में बोलता है।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
14 सितंबर को हिन्दी भाषी और हिन्दी के शुभचिंतक गण से अपना पुराना आग्रह चाहूंगा : कृपया हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़े के ढकोसले को बंद कर दीजिए। साल में एक बार हिन्दी की आरती उतारने की बजाय 365 दिन हिन्दी का इस्तेमाल कीजिए। राष्ट्रभाषा का नकली दावा और राजभाषा की सरकारी धौंस छोड़कर हिन्दी को अपने तरीके से फलने-फूलने दीजिए। दफ़्तरों और अफसरों को हिन्दी अपनाने का आदेश भर मत दीजिए, सरकारी कामकाज के लिए ऐसी हिन्दी गढ़िये जिसे बिना अनुवाद के समझा जा सके। बच्चों को हिन्दी पढ़ने-बोलने के उपदेश मत दीजिए, उनके लिए ऐसी कहानियां लिखिए कि उन्हें हिन्दी का चस्का लग जाए।
भाषाओं के संसार में हिन्दी की स्थिति अन्य भाषाओं से अलग है। यह लगातार फैल रही है और साथ-साथ सिकुड़ती भी जा रही है। इसे बोलने समझने वालों की संख्या और उनके भूगोल का लगातार विस्तार होता जा रहा है। लेकिन इसका उपयोग लगातार सिमटता जा रहा है, भाषा गहरी होने की बजाय छिछली होती जा रही है। अगर अंग्रेजी ज्वालामुखी के गाढ़े लावे की तरह पूरी दुनिया को ढक रही है तो हिन्दी तालाब में पानी पर बिछी काई की पतली सी परत की तरह धीरे-धीरे फैल रही है। जनगणना के मुताबिक़ देश में 43 प्रतिशत लोग हिन्दी (या भोजपुरी और मारवाड़ी जैसी किसी ‘उपभाषा’) को अपनी मातृभाषा बताते हैं। अगर इसमें उन लोगों की संख्या जोड़ दी जाए जो अपनी दूसरी या तीसरी भाषा के रूप में हिन्दी का जिक्र करते हैं तो यह आंकड़ा 57 प्रतिशत था। यह आंकड़ा हर दशक में बढ़ा है और अगली जनगणना तक 60 प्रतिशत के पार जाने की संभावना है।
हिन्दी भाषा के इस प्रसार का असली काम सरकारी राजभाषा तंत्र ने नहीं बल्कि हिन्दी सिनेमा, गीत, टीवी सीरियल और क्रिकेट कमेंटरी ने किया है। टीवी की दुनिया में हिन्दी का जो स्थान था वो सोशल मीडिया आने के बाद भी कमोबेश जारी है। यही नहीं, धीरे-धीरे हिन्दी गैर हिन्दी भाषियों के बीच सेतु का काम करने लगी है। पहले यह सेना और रेलवे जैसी अखिल भारतीय सेवाओं में होता था, मगर अब इसे राष्ट्रीय स्तर पर भर्ती करने वाले कॉलेज और यूनिवर्सिटी के युवक-युवतियों में भी देखा जा सकता है। राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक संवाद की भाषा के रूप में भी हिन्दी की स्वीकार्यता बढ़ी है। हिन्दी का संकट विस्तार का नहीं, गहराई का है।
हिन्दी को ज्यादा से ज्यादा लोग अपना रहे हैं, लेकिन सिर्फ बोलचाल की भाषा के रूप में। जैसे किसान का बेटा गांव छोड़ने को लालायित रहता है, उसी तरह हिन्दी को मातृभाषा बताने वाला भी अपनी हिन्दी से पिंड छुड़ाने के चक्कर में रहता है, हिन्दी की किताब या पत्रिका को घर में रखने से झेंपता है। टूटी-फूटी अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझता है, हिन्दी मजबूरी में बोलता है। जैसे ही बस चला, हिन्दी मीडियम की छाप से मुक्ति पाना चाहता है। घर में हिन्दी बोलता भी है तो ‘मम्मी, मेरे होमवर्क को फिनिश करने में प्लीज मेरी हेल्प कर दो’ वाली भाषा बोलता है। अभिजात्य वर्ग के लोग अगर हिन्दी बोलते हैं तो सिर्फ ड्राइवर, चौकीदार या बाई से, या फिर नानी-दादी से। इसलिए अपने अभूतपूर्व विस्तार के बावजूद हिन्दी पहले से हल्की होती जा रही है।
हिन्दी साहित्य कमजोर नहीं हुआ है, चूंकि भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए अब भी हिन्दी का सहारा लेना पड़ता है। लेकिन भाषा ज्ञान पहले से कमजोर हुआ है। हिन्दी पट्टी के स्नातक हिन्दी की वर्तनी ठीक से नहीं लिख पाते। हिन्दी भाषी डॉक्टर, इंजीनियर और मैनेजर हिन्दी में एक पन्ना भी नहीं लिख सकते। बचपन की याद और दोस्तों के बीच चुटकुले सुनाने के लिए हिन्दी बची है, लेकिन देश और दुनिया की चिंता की भाषा हिन्दी नहीं है। एक भारतीय वैज्ञानिक के लिए यह कल्पना करना भी कठिन है कि जापान और कोरिया की तरह ज्ञान विज्ञान और तकनीक की शिक्षा अंग्रेजी को छोड़कर हिन्दी में दी जा सकती है। हिन्दी में अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, दर्शन की डिग्री तो मिल जाती है, लेकिन इन विषयों पर मौलिक शोध नहीं होता।
हिन्दी बोल कर अच्छे पैकेज वाली नौकरी नहीं मिल सकती। सरकारी संघ लोक सेवा आयोग ने भी हिन्दी मीडियम वालों को छांटने के पुख़्ता इंतजाम किए हुए हैं। अपने वर्चस्व के बावजूद हिन्दी बेचारी है। संख्याबल के बावजूद बेचारगी का यह एहसास कुंठा और हीनताबोध को जन्म देता है। उससे पैदा होती है एक खोखली आक्रामकता। अंग्रेजी की दासी होने की भरपाई हिन्दी अपनी ही बोलियों की सौतेली मां और अन्य भारतीय भाषाओं की सास बनकर करती है, राष्ट्रभाषा होने का दावा करती है, अपनी ही बोलियों को ‘अशुद्ध हिन्दी’ करार देती है। हिन्दी जितना रौब जमाने की कोशिश करती है उसकी कमजोरी उतना ही उजागर होती जाती है। आइये इस हिन्दी दिवस पर संकल्प लें कि हम इस सरकारी ढकोसले में हिस्सा नहीं लेंगे। ना हिन्दी का स्यापा करेंगे ना ही उसकी गर्वोक्ति।
हिन्दी को अंग्रेजी के समकक्ष दर्जा दिलाने के लिए सिर्फ सरकारी फरमानों का सहारा नहीं लेंगे। हम हिन्दी को समृद्ध बनायेंगे। सवाल यह है कि जब हिन्दी हमारे देश में बोली जाने वाली सबसे प्रमुख भाषा है। देश की सर्वाधिक आबादी में बोली जाती है। फिर हिन्दी दिवस और हिन्दी पखवाड़े के आयोजन की जरूरत क्यों पड़ रही है? हिन्दी देश की अधिकतम आबादी के द्वारा बोली जाए जाने के बाद भी अपने ही देश में वह सम्मान हासिल क्यों नहीं कर पाई है? यूं तो इसका सीधा सा जवाब नहीं है क्योंकि यह हमें तब हिन्दी के इतिहास की तरफ भी ले जाएगा जब दक्षिण भारत में भाषाई आंदोलन हुआ था। लेकिन हमें इस प्रश्न का उत्तर यहीं से मिलेगा। इसे समझने के लिए हमें अपने देश की बुनावट पर गौर करना होगा। हमारे देश की बुनाई किसी एक रंग के धागे से नहीं हुई है। यहां हर राज्यों की अपनी क्षेत्रीय भाषा है। क्षेत्रीय भाषा से प्रेम और मोह होना लाजमी है। हर किसी को उसके जीवन के मधुरतम पलों की स्मृतियां उसकी अपनी भाषा में ही आती है। हर कोई अपनी भाषा से अगाध प्रेम करता है जैसे कि वह उसकी अस्मिता से जुड़ी हुई हो।
’हिन्दी’ राजभाषा बननी चाहिए, इस एक इच्छा ने हिन्दी का सबसे ज्यादा अहित किया है। बगैर राजभाषा बने भी थ्हन्दी संपर्क भाषा हो सकती थी। सिर्फ हिन्दी के ही शब्दों का प्रयोग करेंगे और भाषा में हुई घुसपैठ के विरुद्ध एक अभियान छेड़कर पहले घुसपैठियों को ठीक से पहचानेंगे, विकल्प देखेंगे और उसे पूरी तरह से संक्रमण मुक्त कर स्वभाषा के गौरव को जन-जन तक पहुंचाएंगे। हिन्दी है राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भारतीय भाषाओं में शिक्षा पर बल दिया गया है। मातृभाषा की उन्नति के बिना किसी भी समाज की उन्नति संभव नहीं है। भाषा राजकीय उत्सवों से नहीं, बल्कि जन सरोकारों और लोक परंपराओं से समृद्ध होती है। हिन्दी की सबसे बड़ी शक्ति इसकी वैज्ञानिकता, मौलिकता, सरलता और स्वीकार्यता है।
हिन्दी की विशेषता है कि इसमें जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है। हिन्दी सर्वसुलभ और सहज ग्रहणीय भाषा है। उसका स्वरूप समावेशी है और लिपि देवनागरी विश्व की सबसे पुरानी एवं वैज्ञानिक लिपियों में से एक है। हिन्दी आधुनिक भी है और पुरातन भी। हिन्दी के ये गुण ही उसे मात्र एक भाषा के स्तर से ऊपर एक संस्कृति होने का सम्मान दिलाते हैं। राजभाषा हिन्दी के माध्यम से देश की जनता की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक अपेक्षाओं को पूरा करने वाली योजनाओं को आखिरी सिरे तक पहुंचाना सरकारी तंत्र का प्रमुख कर्तव्य है और उसकी सफलता की कसौटी भी।
यदि हम चाहते हैं कि हमारा लोकतंत्र निरंतर प्रगतिशील रहे और अधिक सशक्त बने तो हमें संघ के कामकाज में हिन्दी और राज्यों के कामकाज में उनकी प्रांतीय भाषाओं का प्रयोग करना होगा। हिन्दी को उसके वर्तमान स्वरूप तक पहुंचाने में सभी प्रदेशों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भारत की सभी भाषाएं समृद्ध हैं। उनका अपना साहित्य, शब्दावली, अभिव्यक्ति एवं मुहावरे हैं। इन सभी भाषाओं में भारतीयता की एक आंतरिक शक्ति भी है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं और वह दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं)।
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