उत्तराखंड में बढ़ता मानव-वन्यजीव संघर्ष, लोगों की बढ़ी परेशानियां

उत्तराखंड में बढ़ता मानव-वन्यजीव संघर्ष, लोगों की बढ़ी परेशानियां

उत्तराखंड में गुलदारों के हमले की घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं। गुलदारों के हमले के मामले में कुमाऊं के अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर के अलावा गढ़वाल के पर्वतीय जिले भी संवेदनशील श्रेणी में है। उसके बावजूद वन विभाग के पास मानव-वन्यजीव संघर्ष को रोकने के लिए कोई प्रभावी योजना नहीं है।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

हिमालयी राज्य उत्तराखंड को वनसंपदा और वन्यजीवों के लिहाज से बेहद समृद्ध माना जाता है। बाघ, गुलदार, हाथी से लेकर अन्य वन्यजीवों का यहां सुरक्षित वासस्थल है लेकिन इंसानों पर हो रहे हमलों को लेकर हालात लगातार चिंताजनक बने हुए हैं। पर्वतीय क्षेत्र में गुलदार सबसे बड़ी चुनौती बन चुके हैं। इसलिए कभी आंगन में खेल रहे बच्चे, खेत में काम कर महिला और घास लेकर घर को लौट रही बुर्जुग इनका निवाला बन रही है। राज्य गठन से लेकर 2022 तक के आंकड़ों पर नजर डाले तो उत्तराखंड में 1055 लोगों की वन्यजीवों के हमले में मौत हो चुकी है। इसके 2006 से 2022 के बीच 4375 लोग घायल हो गए। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल ये है कि हर घटना के बाद शोध, सर्वे और विशेषज्ञों के दम पर मानव-वन्यजीव संघर्ष को नियंत्रित करने की बात करने वाला वन विभाग आखिर करता क्या है?

सूचना अधिकार के माध्यम से मिली जानकारी बताती है कि राज्य के हर जिले में घटनाएं हुई। गुलदारों के हमले के मामले में कुमाऊं के अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, चंपावत, बागेश्वर के अलावा गढ़वाल के पर्वतीय जिले भी संवेदनशील श्रेणी में है। उसके बावजूद उत्तराखंड वन विभाग के पास मानव-वन्यजीव संघर्ष को रोकने के लिए कोई प्रभावी योजना नहीं है। सूत्रों की माने तो कुछ डिवीजनों को छोड़ अन्य में वनकर्मियों तक के पास सुरक्षा संसाधन नहीं है। हिमाचल प्रदेश के सेवानिवृत्त प्रमुख वन संरक्षक का कहना है कि बाघ या गुलदार का प्राकृतिक भोजन जंगल में है। इंसान उसके लिए नई चीज है। उसके बावजूद गुलदारों का आबादी में आकर हमले करना उनके बदलते व्यवहार को दर्शाता है। वन विभाग को कागजी की बजाय जमीनी शोध करना होगा। ये काम जंगल के किसी एक हिस्से में नहीं बल्कि बड़े स्तर पर हो। तब जाकर मानव-वन्यजीव संघर्ष रोकने की दिशा में ठोस पहले हो सकती है।

मैदानी क्षेत्र में बाघों की संख्या में काफी बढ़ोतरी होने की वजह से भी गुलदार दूसरे जंगल में पहुंच रहे हैं। मानव वन्यजीव संघर्ष देश के कई राज्यों के लिए एक बहुत बड़ी समस्या है। उत्तराखंड भी उन्हीं राज्यों में शामिल है, जहां हर दिन इंसानों की वन्यजीवों से मुठभेड़ हो रही है। आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं कि प्रदेश में हर छठे दिन वन्य जीव के कारण एक इंसान अपनी जान गंवा देता है। साल दर साल यह आंकड़े चिंताजनक हो रहे हैं। वन मंत्री ने बताया कि वन विभाग की तरफ से लगातार कई अभियान चलाए जा रहे हैं। वन्यजीवों की संख्या को जानने के लिए अध्ययन भी कराया जा रहा है और लोगों को जागरूक करने की भी कोशिश की जा रही है।

उन्होंने कहा कि सरकार ने वन्यजीवों का शिकार होने वाले लोगों के लिए मुआवजा राशि बढ़ाने का भी काम किया है, लेकिन इस सबके बीच सबसे ज्यादा जरूरी लोगों का खुद जागरूक होना है, ताकि ऐसी घटनाओं को कम किया जा सके। वन्यजीवों का मानव वसासतों तक डेरा डालना कोई अच्छा संकेत नहीं है। चस्पा तसवीर दुर्लभ प्रजाति की हिमालयी लोमड़ी की है। यह मानव बस्ती में आकर पेट की आग बुझाने की खातिर ऐसा व्यवहार कर रही है जैसे कि यह पालतू हो। वनाग्नि पर बिना समय गंवाए यदि कोई ठोस एवं प्रभावी कदम नहीं उठाए गए तो ऐसे दुर्लभ वन्यजीवों का ग्रामीण क्षेत्रों में और दखल बढ़ेगा जिसके कारण दोनो के बीच में आपसी संघर्ष को रोकना जिम्मेदार महकमों के लिए काफी मुश्किल होगा। आने वाले समय में इसका नतीजा पर्वतीय क्षेत्रों के ग्रामीण और ज्यादा पलायन को मजबूर होने के रूप में सामने होगा।

यह कटुसत्य किसी से छुपा भी तो नही है कि सामरिक महत्व के लिए हिमालयी राज्यों से होने वाला मानव पलायन देश हित में नही माना जा सकता है। वन अधिनियम से पूर्व ग्रामीण जनता एवम वनों का अटूट रिश्ता था दोनों परस्पर एक दूसरे का पूरक थे। ग्रामीणों की आजीविका, सुरक्षा एवम् संसाधनों के लिए वनों पर ही पूर्णतः निर्भर रहते थे। वन अधिनियम लागू होते ही वन विभाग और इस अधिनियम के प्रशंसक वर्ग ने छोटी छोटी बातों को इतना तूल दिया कि बेचारे ग्रामीण जनता को आखिर कार वनों से दूर होना पड़ा। इसी का नतीजा है कि एक तो ग्रामीण वनाग्नि के प्रति बेहरवाह हो गए और वन्यजीवों को भोजन मिलना भी बंद हो गया। वन्यजीवों का ठोर-ठिकाना दिन-ब-दिन घटता जा रहा है। उनकी प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं। पर्यावरण में तेजी से हो रहे बदलाव का असर भी इन पर पड़ रहा है। वहीं लोग वन्यजीवों से अपनी जिंदगी को बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

मानव व वन्यजीवों के बीच टकराव आज एक बड़ा मुद्दा बन चुका है। मानव-वन्यजीव संघर्ष बिगड़ते पारिस्तिथिकी तंत्र का ही परिणाम है। आज इसका संरक्षण सबसे बड़ी जरूरत बन गया है। मानव-वन्यजीव संघर्ष से उत्तराखंड सर्वाधिक प्रभावित हो रहा है। कुमाऊं मंडल में भी मानव-वन्य जीव संघर्ष की स्थिति लगातार गंभीर होती जा रही है। वन विभाग के लिए वर्किंग प्लान आगामी 10 साल की रूपरेखा को तय करता है। इसी प्लान के माध्यम से यह तय हो पता है कि संबंधित डिवीजन में कितने और क्या-क्या काम अगले 10 साल के दौरान होंगे, हालांकि, यह वर्किंग प्लान वन विभाग में सिस्टमैटिक कार्यों को तय करता है, लेकिन इस बार यही सिस्टम कई डिवीजन में परेशानी की वजह बन गया है। दरअसल, राज्य के कई डिवीजन ऐसे हैं जहां अगले वर्षों के लिए तय होने वाले वर्किंग प्लान को अब तक अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। नतीजा यह रहा कि इन डिविजन में कई काम लटक गए हैं। ऐसे में ना केवल वन विभाग के संबंधित डिवीजन में विभाग के अधिकारियों के लिए दिक्कतें बढ़ गई हैं बल्कि आम लोगों को भी इसे सीधे परेशानी का सामना करना पड़ता है।

(यह लेखक के निजी विचार हैं और वह वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।)

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked with *

विज्ञापन

[fvplayer id=”10″]

Latest Posts

Follow Us

Previous Next
Close
Test Caption
Test Description goes like this