लता कांडपाल 15 सालों तक कलम पकड़ कर नौनिहालों का भविष्य संवारती रही। अपनी इस तपस्या में उन्होंने आर्थिक रूप से कमजोर कई बच्चों को निशुल्क शिक्षा भी दी लेकिन क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या और उसका बच्चों के भविष्य पर पड़ता असर देख उन्होंने कुछ ऐसा करने की ठान ली। उन्होंने कलम छोड़कर कुदाल पकड़ ली और अपनी दस नाली भूमि को हरा भरा करने में जुट गई।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड में जोत आम तौर पर छोटी और खंडों में बंटी होती है। उत्तराखंड सरकार के वाटरशेड प्रबंधन निदेशालय के अनुसार, राज्य में औसत जोत लगभग 0.68 हेक्टेयर है, जो कई टुकड़ों में बंटी है। यह प्रति किसान 1.16 हेक्टेयर के राष्ट्रीय औसत से बहुत छोटा है। इसका मतलब यह है कि जिन गांवों में हाल के दिनों में पलायन हुआ है, उन्हें अब सक्रिय कृषि भूमि के बीच-बीच में कई अनुपयोगी जमीन के टुकड़ों से निपटना पड़ रहा है। अनुपयोगी जमीन बंजर हो जाती है या लचीली खरपतवार और झाड़ियों (जैसे लैंटाना और पार्थेनियम) से ढक जाती है, जिन्हें साफ करना बहुत मुश्किल होता है। इसके अलावा, ऐसी जमीनों का प्रबंधन तेजी से नेपाल से आए प्रवासियों द्वारा किया जा रहा है।
पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी के किसान अजय जोशी बताते हैं, ‘मालिक अपनी जमीन अपने गांव के लोगों के बजाय मजदूरों को पट्टे पर देना पसंद करते हैं उदाहरण के लिए, नेपाल के एक पूर्व मजदूर ने पौड़ी शहर के करीब 0.4 हेक्टेयर जमीन 10,000 रुपये प्रति वर्ष पर पट्टे पर ली है, जहां वे पिछले तीन वर्षों से खेती कर रहे हैं।’ वे कहते हैं, ‘हम मौसमी मजदूर हुआ करते थे, लेकिन जैसे-जैसे जमीन के टुकड़े खाली होने लगे, हममें से कई लोग उन लोगों से पट्टे की जमीन पर खेती जारी रखने के लिए रुक गए, जो चले गए थे।’
15 सालों तक वह कलम पकड़ कर नौनिहालों का भविष्य संवारती रही। अपनी इस तपस्या में उन्होंने आर्थिक रूप से कमजोर कई बच्चों को निशुल्क शिक्षा भी दी लेकिन क्षेत्र में बेरोजगारी की समस्या और उसका बच्चों के भविष्य पर पड़ता असर देख उन्होंने कुछ ऐसा करने की ठान ली। जिससे ग्रामीण परिवेश के लोग अपने ही संसाधनों से आर्थिक रूप से मजबूत हो सकें। कलम छोड़कर कुदाल पकड़ ली और अपनी दस नाली भूमि को हरा भरा करने में जुट गई। उन्होंने कई लोगों को रोजगार भी दिया।
लता कांडपाल बताती है कि हर महीने आय निर्धारित नहीं होती है। लेकिन विभिन्न प्रकार के उत्पादनों से सभी खर्च निकालकर वह दो से ढाई लाख रुपये सालाना आय अर्जित कर लेती हैं। हवालबाग ब्लॉक के चितई पंत गांव निवासी लता कांडपाल की। लता ने उच्च शिक्षा पूरी करने के बाद बीएड की डिग्री प्राप्त की। पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्होंने अपना कॅरिअर बाड़ेछीना के निजी स्कूल में बतौर शिक्षिका शुरू किया। 15 वर्षों के अपने इस कॅरिअर में आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों को देख उनका मन पसीज जाता।
क्षेत्र में बेरोजगारी समस्या को देख उन्होंने ग्रामीण परिवेश के लोगों को स्वरोजगार के लिए जागरूक करने की ठान ली। कलम छोड़ दी और कुदाल पकड़कर अपने बंजर हो रहे खेतों को हरा भरा करने में जुट गई। शुरुआत में उन्हें बाहर ही नहीं बल्कि परिजनों के उलाहनों का सामना करना पड़ा। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपनी मुहिम में जुटी रही। दो तीन साल तक बंजर हो रहे खेतों में पसीना बहाने के बाद वह अदरक, हल्दी, मशरूम, मूली, हरी सब्जियां, मटर, बींस उगाने में कामयाब हुई।
धीरे-धीरे उन्होंने गांव की कुछ महिलाओं को अपने साथ जोड़ा और उनके साथ मिलकर खेती के व्यवसाय को आगे बढ़ाती रही। खुद आर्थिक रूप से मजबूत बनी और गांव के लोगों को भी आजीविका का जरिया मिल गया। आज लता पूरे क्षेत्र में एक सफल काश्तकार के रूप में पहचानी जाती हैं। उनकी कामयाबी देख आसपास के गांवों के लोग भी अपने खेतों में पसीना बहा रहे हैं। लता की प्रेरणा से आज चितई पंत ही नहीं बल्कि चितई तिवारी, मन्योली, हवालबाग समेत अनेक गांवों के लोग फल और सब्जियों का उत्पादन कर अपनी आजीविका चला रहे हैं।
उच्च शिक्षित होने के बाद भी खेती को अपनाकर जहां लता ने एक मिथक तोड़ा, वहीं आज उनकी मेहनत उनकी पहचान बन गई है। वर्ष 2023 में गेल इंडिया के चेयरमैन आशुतोष कर्नाटक चितई पंत गांव पहुंचे और लता के खेती के तौर तरीकों के बारे में जानकारी प्राप्त की। इसी वर्ष दिल्ली न्याय अकादमी के 80 प्रशिक्षु और राज्य जैविक केंद्र मजखाली में प्रशिक्षण ले रहे यूपी के 40 किसानों के अलावा प्लस एप्रोच के सदस्य भी उनकी कार्यप्रणाली को समझने के लिए उनके खेतों तक पहुंचे।
पिछले कुछ सालों तक हमारे खेत बंजर पड़े हुए थे। लेकिन लता कांडपाल ने हमें खेती के लिए प्रेरित किया और हमें उन्नत खेती के बारे में जानकारियां दी। आज हम अपने खेतों से अपने खाने के अलावा बाजार में बेचने के लिए फलों और सब्जियां का उत्पादन कर रहे हैं। लता कहती हैं हमारे समाज में आजकल एक ट्रेंड बन चुका है कि पढ़ी लिखी लड़की खेती के कार्य नहीं करेगी। शादी के समय ही लड़कियों के परिजनों द्वारा उनकी बेटी को खेती के कार्य नहीं आने की बात कह देते हैं। शादी के बाद भी अधिकांश लड़कियां अपने खेतों की ओर मुड़कर भी देखना पसंद नहीं करती। समाज के बनाए इसी मिथक को तोड़ना उनका मुख्य उद्देश्य भी है कि उच्च शिक्षित महिला, बेटी और नौजवान भी खेती के कार्य कर सकते हैं।
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