हिल मेल ब्यूरो, देहरादून उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है जहां सरकार ने कृषि भूमि को लीज़ पर देने की नीति लागू कर दी है। यह बंजर खेतों को फिर से हराभरा करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। इस तरह बंजर
हिल मेल ब्यूरो, देहरादून
उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है जहां सरकार ने कृषि भूमि को लीज़ पर देने की नीति लागू कर दी है। यह बंजर खेतों को फिर से हराभरा करने की दिशा में एक बड़ा कदम है। इस तरह बंजर ज़मीन के मालिक को किराया मिलेगा और उस ज़मीन पर कुछ उत्पादक कार्य किए जा सकेंगे। राज्य सरकार के मुताबिक इस तरह दोनों पक्षों के हित सधेंगे।
टिहरी बांध, नर्मदा घाटी समेत कई उदाहरण हैं जब लोगों को विकास से जुड़ी गतिविधियों के लिए विस्थापन का दर्द झेलना पड़ा। जिसमें उनका इतिहास, उनकी संस्कृति, उनकी परंपराएं छूट गईं। उत्तराखंड की स्थिति उलट है, यहां विकास की योजनाएं पहाड़ों के दुर्गम रास्तों पर नहीं चढ़ सकीं, वो सड़कें नहीं बन सकीं जिससे पहाड़ की चोटी पर बसे गांव हरियाली का सपना बुन सकें, खेतों में पानी नहीं पहुंच सका, लोगों ने अपने गांव वीरान और खेत बंजर छोड़ खुद को खुद ही विस्थापित कर दिया। अब उन स्व-विस्थापितों के बंजर खेतों पर निवेश की राहें तैयार हो गई हैं। उत्तराखंड देश का पहला राज्य बन गया है जहां राज्य सरकार ने कृषि भूमि को लीज़ पर देने की नीति लागू कर दी है। यह बंजर खेतों को फिर से हराभरा करने की दिशा में त्रिवेंद्र सिंह रावत सरकार का एक बड़ा कदम है।
उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भू-सुधार कानून-1950 में संशोधन के बाद पर्वतीय जिलों में खेती की ज़मीन लीज़ पर देने की व्यवस्था लागू की गई है। राज्यपाल से अनुमति मिलने के बाद 31 जनवरी को उत्तराखंड सरकार ने इसकी अधिसूचना जारी की। इसके तहत किसान अधिकतम 30 एकड़ तक ज़मीन कृषि कार्य, हॉर्टीकल्चर, जड़ी-बूटी उत्पादन, पॉलीहाउस, दुग्ध उत्पादन और सौर ऊर्जा जैसे कार्यों के लिए कि किसी व्यक्ति, कंपनी या गैर-सरकारी संस्था को 30 वर्ष के लिए लीज पर दे सकता है। जिलाधिकारी के जरिये ये कार्य होगा। इस तरह बंजर ज़मीन के मालिक को किराया मिलेगा और उस ज़मीन पर कुछ उत्पादक कार्य किये जा सकेंगे। राज्य सरकार के मुताबिक इस तरह दोनों पक्षों के हित सधेंगे।
पौड़ी के प्रगतिशील किसान सुधीर सुंद्रियाल कहते हैं कि बंजर खेतों की विषम स्थिति से सरकार हार गई है और कोई अन्य रास्ता ही नहीं बचा। लोग जब अपनी जमीन पर कुछ करने को तैयार ही नहीं है, ऐसे में ये बदलाव एक विकल्प तो देता है। सुधीर कहते हैं कि गांवों में लोग अब ये मान बैठे हैं कि यहां कुछ नहीं हो सकता। इस वजह से स्थिति लगातार खतरनाक हो रही है। बंजर जमीन कई तरह से घातक साबित हो रही है। लैंटाना जैसी खतरनाक झाड़ियां उग आईं हैं। जो जमीन की उत्पादकता को नष्ट कर रही हैं। ऐसे में यदि बाहर से आया कोई उद्यमी यहां हॉर्टी कल्चर या अन्य किसी भी क्षेत्र में कुछ नया काम करके दिखाता है तो इससे लोगों को भी सीख मिलेगी। तब संभव है कि वे भी अपने खेतों में कुछ करने की सोचें। वह कहते हैं जिस पैमाने पर ज़मीन बंजर हो रही है उसे दोबारा उपजाऊ बनाना आम किसान के बस की बात नहीं रह गई है। सरकार का ये फैसला बंजर जमीनों की निराशा से उपजा है। जो ज़मीन 30 साल के लिए लीज़ पर दी जाएगी, उसे 99 वर्षों तक के लिए बढ़ाया जा सकता है। हम लोगों को गांव में नहीं रोक पाए। युवाओं को इस तरह का प्रशिक्षण नहीं दे सके कि वे खुद अपने चाय बागान लगा सकें। सूअर, बंदर जैसे जंगली जानवरों से खेती को होने वाले नुकसान को रोकने में नाकामयाबी का ही ये नतीजा है कि किसान खेती छोड़ रहा है।
दिक्कत ये भी है कि अपेक्षाकृत कम मेहनत कर नौकरी के जरिये पैसा कमाना आसान हो गया है। इसलिए किसान खेती से विमुख हो रहे हैं। समृद्ध किसान भी अपने बच्चों को खेतों में नहीं भेजना चाहते। हिमाचल प्रदेश जैसे उदाहरण भी हैं जहां के गांव खेती के लिहाज से देश के समृद्ध गांवों में शुमार हैं। इसके बावजूद लोग गांवों से शिमला जैसे शहरों का रुख कर रहे हैं। जो इस बात का इशारा करती है कि आने वाले समय में कम लोग खेती करेंगे। हालांकि नई तकनीक खेती की उपज कम नहीं होने देगी। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग इसी सोच से उभरी है।
किसानों की आमदनी बढ़ाने के उद्देश्य से ही नशा रहित भांग की खेती को भी हरी झंडी दे दी गई है। हाल के समय में राज्य सरकार की ओर से भांग की खेती को काफी प्रमोट किया जा रहा है। मुख्यमंत्री कई मंचों से भांग के रेशों से बने कपड़ों की ब्रांडिंग खुद कर चुके हैं। पिछले दिनों चमोली में किसानों को भांग की खेती के बारे में जानकारी दी गई। हैम्प एसोसिएशन ऑफ इंडिया ने नशा रहित भांग के बीज तैयार किए हैं। इस भांग के रेशे से कपड़े तैयार किए जा रहे हैं। वहीं इसकी पत्तियों से कई कीमती दवाइयां बनाई जा रही हैं। भांग की खेती को जंगली जानवर भी नुकसान नहीं पहुंचाते। चमोली के गांवों में जो किसान खेती नहीं कर रहे हैं उनके खेतों को लीज पर ले कर पाइलेट बेस पर भांग की खेती की शुरूआत हो चुकी है। भांग की खेती में मुनाफा भी अच्छा है।
किसानों की आय दोगुनी करने के लक्ष्य से इतर राज्य की परिस्थिति ऐसी है कि किसान खेती ही छोड़ रहे हैं। राज्य स्थापना के समय कृषि का क्षेत्रफल 7.70 लाख हेक्टेयर था जो वर्ष 2018-19 तक घटकर 6.91 लाख हेक्टेयर रह गया। पर्वतीय क्षेत्र में मात्र 13 प्रतिशत ही सिंचाई की सुविधा उपलब्ध है। राज्य घरेलू उत्पाद में वर्ष 2011-12 में क्रॉप सेक्टर की हिस्सेदारी 7.05% से घटकर वर्ष 2018-19 में 4.67% रह गई। हालांकि कृषि भूमि कम होने के बावजूद खाद्यान्न उत्पादन बढ़ा है। पलायन आयोग ने अपनी रिपोर्ट में आजीविका-रोजगार (50.16%) को पलायन की मुख्य वजह बताया था।
पर्यावरणविद जगत सिंह ‘जंगली’ कहते हैं कि ये हमारे लोगों की गलती है, जिस जमीन पर हमारे पुरखों के फुटप्रिंट्स दर्ज हैं, वो लीज़ पर दी जा सकेगी। हमने अपने खेतों को बंजर छोड़ा। अगर खेती नहीं कर रहे थे तो पेड़ ही लगा देते। जंगली कहते हैं कि जिस ज़मीन को बंजर छोड़ हमारे लोग दिल्ली-मुंबई कूच कर गए हैं, महानगरों में बढ़ता प्रदूषण एक बार फिर उन्हें अपने पहाड़ों की ओर लौटने को विवश करेगा। आज से दो पीढ़ी पहले तक यही खेत अन्न के भंडार थे। जिन पर कई पीढ़ियां निर्भर रहीं। जलवायु परिवर्तन ने भी पहाड़ की खेती को प्रभावित किया। समय से बारिश न होना, अत्यधिक बारिश होना, जैसी अप्रत्याशित घटनाओं के चलते भी लोगों ने खेती छोड़ी। आज जंगली जानवर हमारे खेतों में घुस गए हैं।
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