उत्तराखंड की बद्री गाय का दूध दुनिया में सबसे अच्छा

उत्तराखंड की बद्री गाय का दूध दुनिया में सबसे अच्छा

वैज्ञानिकों के मुताबिक बद्री गाय एक वक्त में एक से तीन किलो तक दूध देती है। इसका दूध गाढ़ा व पीला होता है। बीटा जीनोटाइप केसीन दुधारू पशुओं में 12 प्रकार के बीटा केसीन पाए जाते हैं, जो उनकी जेनेटिक भिन्नता प्रदर्शित करते हैं।

डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला

दुनिया में सबसे अधिक गुणकारी एवं निरोग दूध बद्री गाय (पहाड़ी गाय) का है। वैज्ञानिकों के बद्री गाय के दूध पर किए गए शोध से यह तथ्य सामने आया। शोध में पता चला कि पहाड़ी गाय के दूध में 90 फीसद ए-2 जीनोटाइप बीटा केसीन पाया जाता है, जो डायबिटीज और हृदय रोगों को रोकने में कारगर है साथ मनुष्य के लिए हर दृष्टि से लाभदायी है। जबकि, विश्वभर में हुए शोधों के मुताबिक जर्सी, होल्सटिन समेत अन्य नस्ल की गायों के दूध में पाया जाने वाला ए-1 बीटी केसीन जीनोटाइप डायबिटीज, हृदय रोग व अन्य मानसिक रोगों का कारक है। बद्री गाय उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में पाली जाती हैं।
पहाड़ी नस्ल की इस गाय

को जून 2016 में एनबीएजीआर (नेशनल ब्यूरो ऑफ एनिमल जेनेटिक्स एंड रिसर्च) ने नामांकन प्रमाण पत्र जारी किया। वैज्ञानिकों के मुताबिक बद्री गाय एक वक्त में एक से तीन किलो तक दूध देती है। इसका दूध गाढ़ा व पीला होता है। क्या है बीटा जीनोटाइप केसीन दुधारू पशुओं में 12 प्रकार के बीटा केसीन पाए जाते हैं, जो उनकी जेनेटिक भिन्नता प्रदर्शित करते हैं। इनमें सिर्फ ए-1 व ए-2 बीटा केसीन ही प्रमुख हैं। जबकि ए-3 से ए-12 तक बीटा केसीन दूध में बेहद कम मात्रा में पाए जाते हैं। दूध में प्रोटीन का मुख्य घटक केसीन ही होता है।

पहाड़ी गाय उत्तराखंड के गांवों की कृषि एवं आर्थिकी से सीधे जुड़ी है। इसका मुख्य आहार हरी एवं सूखी घास है। जबकि, जर्सी, होल्सटिन समेत अन्य नस्ल की गाय दाना, खल आदि पर निर्भर हैं। हालांकि, दूध का मूल्य सभी गायों का एक समान है। उत्तराखंड सरकार का पशुपालन विभाग बद्री गाय के संरक्षण एवं विकास पर विशेष ध्यान दे रही है। दूध के नमूनों का परीक्षण करने पर इसमें 90 फीसद ए-2 जीनोटाइप बीटा केसीन पाया गया। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से बेहद लाभकारी है। विश्व में यूरोपीय देशों के अलावा अमेरिका, ब्राजील व आस्ट्रेलिया में ए-1 जीनोटाइप की समस्या आम है।

दरअसल उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके में बद्री नस्ल की गाय पाई जाती और गाय की यह नस्ल वहां तेजी से खत्म हो रही थी। इस नस्ल को बचाने में नरियालगांव पशु प्रजनन केन्द्र की मुहिम रंग लाई और अब इस नस्ल की 140 गायें वहां मौजूद हैं। आमतौर पर बाजार में गाय का घी 400-500 रुपये किलो मिलता है बाजार में मिल रहे 400 रुपये किलो वाले घी की जगह बद्री नस्ल की गाय के घी के लिए आपको 10 गुना ज्यादा है बद्री गाय है छोटी गाय जिसको हम कहते हैं पहाड़ी गाय उसका दूध अमृततुल्य होता है यह निरोगी होता है और बहुत सारे लोगों की एक कंप्रिहेंसिव मेडिसन है अचूक औषधि है इस गाय के दूध से इम्यूनिटी बूस्टर बूस्टर इतना अधिक रहता है कि उससे यहां के लोगों को टीवी आदि रोग नहीं होते और उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता मजबूत रहती है इसलिए इस गाय को बचाने की मुहिम में सरकार को भी आगे आना होगा और जो एक गाय पाल रहा है सरकार उन्हें प्रोत्साहन राशि प्रति माह देने का निर्णय लें। यह प्रोत्साहन राशि गायों की संख्या के अनुपात में दी जाए और तब तक दी जाए जब तक कि गाय उस पशुपालक किसान के पास विद्यमान रहे। इसकी निगरानी का कार्य ग्राम प्रधान और ग्राम विकास अधिकारी को दिया जाए।

सरकार के इस कदम से जहां तेजी से लुप्त हो रही पहाड़ी बद्री गाय बचेगी वहीं उत्तराखंड के लोगों का स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। खेतों के लिए जैविक खाद मिलेंगी गोबर की खाद से अच्छी और निरोगी कोई भी खाद नहीं है। साथ ही उत्तराखंड की अपनी परंपरा भी जीवित रहेगी लोग गांवों में रहेंगे पलायन कम होगा और कम पढ़े लिखे अकुशल लोग भी इस कार्य में संलग्न होंगे। यह सुझाव पलायन-आयोग को भी सरकार को देना चाहिए। जिनका यह परंपरागत व्यवसाय था। यही अत्यंत दुखद और दुर्भावनापूर्ण है।

यह समस्या केवल उत्तराखंड में ही नहीं बल्कि पूरे देश में देखें तो आज गाय आवारा पशु हो गई है और गायों के चारागाहों पर स्लाटर हाउस उग आए हैं, कहीं सड़कें बन गई हैं तो कहीं कॉलोनाइजर ने कंक्रीट के जंगल खड़े कर दिए हैं। इसलिए प्राकृतिक रूप से भी जो गायों के चरागाह थे वे सिकुड़ गए हैं और गायें आत्महत्या करने के लिए मोटर सड़कों पर आ गई हैं, जिसे अब हमारा मीडिया और सामान्य लोग तक आवारा गाय कह देते हैं। वास्तव में गाय तो अपनी ही जगह है, आवारा तो मनुष्य हो गया है जिसने गौमाता जैसे भोले भाले और सुंदर प्राणी को इस नियति तक पहुंचा दिया है बद्री गाय का दूध काफी गाढ़ा और स्वादिष्ट होता है जिसके चलते इस दूध से बने घी की गुणवत्ता काफी अधिक बढ़ जाती है।

इस गाय की नस्ल तेजी से खत्म हो रही थी जिसे बचाने में नरियालगांव पशु प्रजनन केन्द्र की मुहिम रंग लाई और अब इस नस्ल की 140 गायें वहां मौजूद हैं। इन गायों के दूध से नरियाल गांव की स्थानीय महिलाएं ही कंपनी के लिए जैविक घी तैयार करने लगीं, जिससे स्थानीय स्तर पर ही उन्हें रोजगार भी मिल गया। आम घी के मुकाबले इसमें ज्यादा पोषक तत्व पाए जाते हैं इसलिए इसकी कीमत 4 हजार रुपये प्रति किलो तक पहुंच चुकी है। हाल ही में इस घी को बेंगलुरू भेजने का करार किया गया है। दुग्ध संघ ने देहरादून की हिमालया नामक संस्था से करार किया है। यह संस्था चम्पावत का घी खरीदकर उसे बेंगलुरू तक पहुंचाएगी। दुग्ध संघ प्रतिमाह एक हजार किलो घी भेजेगा। इसी क्रम में 500 किलो की खेप भेजीत हैं। स्वाद और महक में काफी अच्छा होने के चलते अब इसकी डिमांड बाहर से भी आने लगी है।

लेखक उत्तराखंड सरकार के अधीन उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर कार्य कर चुके हैं वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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