जीईपी वास्तविक तरक्की का एक मानक हो सकता है। अब भी दुनियाभर में इको सिस्टम सर्विसेज का आंकलन नहीं किया जा रहा है और उनका मौद्रिक मूल्य नहीं तय किया जा रहा है।
उत्तराखंड देश का पहला राज्य होगा जो ये तय करेगा कि उसकी पर्यावरणीय सेवाओं का मूल्य कितना है और इसे बढ़ाने के लिए राज्य सरकार की ओर से क्या प्रयास किए गए। उत्तराखंड में जीडीपी की तर्ज पर जीईपी यानी ग्रॉस इनवॉयरमेंटल प्रोडक्ट का आंकलन किया जा रहा है। जीडीपी के सापेक्ष जीईपी बेहतर करने का लक्ष्य है। ताकि इको सिस्टम को बचाया जा सके और फिर बेहतर बनाया जा सके। जल-जंगल-ज़मीन के मूल्य का निर्धारण कैसे होगा इसके लिए पांच सदस्यीय समिति का गठन किया गया है। प्रमुख सचिव आनंद वर्धन इस समिति के अध्यक्ष होंगे। हर वर्ष जीडीपी के साथ जीईपी रिपोर्ट भी तैयार की जाएगी। ताकि ये पता चल सके कि पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए हमने क्या प्रयास किए। इस समिति की अगली बैठक मसूरी स्थित लालबहादुर शास्त्री अकादमी में होगी।
पांच मार्च को देहरादून के वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में जीईपी को लेकर बैठक की गई। ये बैठक केंद्र सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार प्रोफेसर के विजय राघवन की अध्यक्षता में हुई। वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के निदेशक धनंजय मोहन, लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी के निदेशक डॉ संजीव चोपड़ा समेत कई विभागों के विशेषज्ञ बैठक में शामिल हुए। चार प्रमुख इंडिकेटर पानी, हवा, मिट्टी और जंगल के आधार पर जीईपी की गणना का फैसला लिया गया।
केंद्र सरकार के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार प्रोफेसर के विजय राघवन ने यहां मौजूद प्रतिनिधियों से रियल टाइम डाटा तैयार करने की बात कही। इसके आधार पर पर्यावरण को बेहतर बनाने के लिए भविष्य की नीति तैयार की जाएगी। जीईपी के नतीजे ये बताएंगे कि पर्यावरण से जुड़े किस क्षेत्र में खतरा बढ़ रहा है, जिसकी रेड फ्लैगिंग की जाएगी और उसे बेहतर बनाने के प्रयास किए जाएंगे।
डब्ल्यूआईआई के निदेशक डॉ धनंजय मोहन ने कहा कि जीईपी वास्तविक तरक्की का एक मानक हो सकता है। अब भी दुनियाभर में इको सिस्टम सर्विसेज का आंकलन नहीं किया जा रहा है और उनका मौद्रिक मूल्य नहीं तय किया जा रहा है।
वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद हेस्को के संस्थापक डॉ अनिल जोशी ने जीईपी की बात शुरु की थी। वह इसके लिए नैनीताल हाईकोर्ट भी गए। तब से लगातार जीईपी पर बात हो रही है लेकिन अब तक इसका आंकलन शुरू नहीं हुआ। इस बैठक में मौजूद पद्मभूषण डॉ अनिल जोशी ने कहा कि जीडीपी को मापने के पैमाने उसके पर्यावरणीय कीमत का आंकलन नहीं करते। अब समय आ गया है कि हम तरक्की को नए तरह से समझे। जब हम जंगल, पानी, हवा और मिट्टी को महत्वपूर्ण मानेंगे और इसका आंकलन करेंगे तब हम पर्यावरण के बारे में सोचेंगे। उन्होंने ये विचार दिया कि “ए कन्ज्यूमर मस्ट बी ए कॉन्ट्रीब्यूटर” यानी एक उपभोक्ता का प्रकृति के प्रति भी उत्तरदायित्व है और उसने कुदरत को क्या दिया इस पर विचार होना चाहिए।
ग्रॉस इनवॉयरमेंट प्रोडक्ट पर अब तक क्या हुआ
पर्यावरण को लेकर कार्य कर रही देहरादून की संस्था ‘हिमालयन इनवायरमेंटल इंडस्ट्रीज़ एंड कन्जरवेशन ऑर्गेनाइजेशन’ यानी हेस्को ने वर्ष 2011 में नैनीताल हाईकोर्ट में एक पीआईएल (जनहित याचिका) दाखिल की। इस याचिका पर राज्य सरकार ने हाईकोर्ट में जवाब दाखिल किया और कहा कि हमारे पास ऐसा कोई इंडीकेटर नहीं है जिससे हम जीईपी बता सकें। जिसके बाद ये याचिका खारिज कर दी गई।
वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने इस मामले में संज्ञान लिया। उन्होंने हेस्को के संस्थापक अनिल जोशी से “ग्रॉस इनवायरमेंटल प्रोडक्ट” यानी जीईपी के बारे में जानकारी ली। इसके बाद मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक कमेटी गठित की गई, जिसमें अनिल जोशी भी शामिल थे। उनके साथ वन विभाग के अधिकारी, वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इकॉलजी के डायरेक्टर को भी कमेटी में शामिल किया गया। इस कमेटी की दो बैठकें भी हुईं। लेकिन उसके बाद मुख्यमंत्री बदल गए। विजय बहुगुणा के मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद ये मामला ठंडे बस्ते में चला गया। विजय बहुगुणा के बाद मुख्यमंत्री पद पर आए हरीश रावत ने इस मामले पर संज्ञान नहीं लिया और मामला ठप पड़ गया।
वर्ष 2015 में हेस्को के संस्थापक अनिल जोशी ने एक बार फिर जीईपी के मसले पर हाईकोर्ट में पीआईएल दाखिल की। इस पीआईएल के जवाब में राज्य सरकार ने कहा कि वे इस मुद्दे पर कार्य करेंगे। एक बार फिर एक कमेटी बनाई गई। जिसमें वन विभाग के अधिकारी थे। जीबी पंत कृषि विश्वविद्यालय से जुड़े लोग इस कमेटी में थे। साथ ही अन्य संबंधित विभागों के सदस्य भी थे।
वर्ष 2016 में जीईपी के लिए गठित कमेटी ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट-भोपाल से बात की। आईआईएफएम-भोपाल उत्तराखंड के वन के इको सिस्टम सर्विसेज का अध्ययन और असेसमेंट कर रहा है। जंगल से कितनी मिट्टी निकल रही है, कितना पानी मिल रहा है, कितना हैबिटेट है। आईआईएफएम की रिपोर्ट का इस्तेमाल जीईपी के मानको को तय करने में सहायक होगा। ये रिपोर्ट अभी उत्तराखंड सरकार को नहीं मिली है।
26 अप्रैल 2018 को जीईपी पर दाखिल पीआईएल पर अंतिम फैसला आया। जिसमें हाईकोर्ट ने इस पीआईएल को मंजूरी दी। साथ ही राज्य सरकार से इस पर कार्य करने को कहा। हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार ने प्रमुख वन संरक्षक जयराज को इस मामले में कार्य करने की ज़िम्मेदारी सौंपी है। प्रमुख वन संरक्षक के मुताबिक वे सरकार को एक समिति गठित करने का प्रस्ताव भेज रहे हैं। ये समिति वैज्ञानिक नज़रिये से गठित की जाएगी। जीईपी को डेवलपमेंट इंडेक्स का हिस्सा बनाया जाएगा। समिति तय करेगी कि जीईपी को मापने के क्या पैरामीटर होने चाहिये। साथ ही इसका भी आंकलन होगा कि विकास के लिये चलायी जा रही योजनाओं से पर्यावरण को कितना नुकसान पहुंच रहा है।
जीईपी के इंडीकेटर
जंगल- जंगल की गुणवत्ता और एक वर्ष के अंतराल में जंगल का कितना क्षेत्र बढ़ाया गया। जंगल की गुणवत्ता के तहत किस तरह का पौध रोपण किया गया। जैसे चीड़-पाइन के वृक्ष उत्तराखंड के लिये घातक साबित हुए। साल या ओक के वृक्ष बेहतर हैं। तो किस तरह के वृक्ष लगाये जाने चाहिए, इस पर क्या कार्य किया गया।
पानी- एक वर्ष में पानी की गुणवत्ता कितनी बढ़ाई। बारिश का पानी संग्रह करने के लिये क्या कदम उठाये गये। जैसे एक तालाब बनाया तो इस तालाब के पानी संचय करन की क्षमता एक लाख लीटर है या दो लाख लीटर। उस तालाब ने कितना वर्षा जल का संचय किया
हवा- हवा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिये क्या प्रयास किये। एक वर्ष में वायु की गुणवत्ता में बढ़ाने में आप कितना समर्थ हुये या कितनी वायु गुणवत्ता बढ़ाई गई।
मिट्टी- पर्वतीय क्षेत्रों में बारिश के दौरान हर वर्ष करबी 20-25 टन मिट्टी प्रति हेक्टेअर बह जाती है। इसे रोकने के लिये क्या प्रयास किये। मिट्टी की गुणवत्ता बढ़ाने के लिये क्या किया। कितनी ज़मीन में ऑर्गेनिक फॉर्मिंग की। इस सबके आंकड़े।
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