प्रकृति की गोद में रची बसी हमारी देवभूमि, अप्रतिम प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर है। यहां की जीवन शैली में जल, जंगल, पहाड़ और नदी नालों का विशेष महत्व है। यहां से निकलने वाली नदियां पूरे देश को जीवन प्रदान करती हैं और यहां के जंगलों की हवा जलवायु सरंक्षण में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अब हम जल, जंगल, जलवायु, जीवन… को एक सीरीज के रूप में निकाल रहे हैं। इस श्रंखला में हम अपने जल, जंगल को कैसे बचा सकते हैं उस बारे में विस्तृत से बताया जायेगा।
एयर मार्शल वीपीएस राणा, पूर्व एयर ऑफिसर इन चार्ज एडमिनिस्ट्रेशन
हिमालय क्षेत्रों में वातावरण के संतुलन के लिए जल सरंक्षण और जंगलों का रख रखाव एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। आए दिन की प्राकृतिक आपदाओं से हमारे पहाड़ नष्ट हो रहे हैं जिसमें जान माल की क्षति के अलावा वातावरण का असंतुलन एक बड़ी चिंता का विषय है।
स्थानीय स्तर पर बहुत से ग्रामीणों द्वारा छोटे मोटे प्रयत्न किए जाते हैं लेकिन वो इतने बड़े मुद्दे को हल करने के लिए काफी नहीं होते। केंद्र और राज्य सरकार की नीतियां भी या तो स्थानीय मुद्दों को ध्यान में रख कर नहीं बनाई जाती या अगर अच्छी नीतियां बन भी जाती हैं तो स्थानीय स्तर तक पहुंच नहीं पातीं।
सबसे पहले तो हमें जल, जंगल और जलवायु को स्थानीय मुद्दा समझने की भूल नहीं करनी चाहिए क्योंकि हिमालय क्षेत्रों में होने वाले किसी भी असुंतलन के परिणाम बहुत दूरगामी होते हैं। फिर चाहे वो मुद्दा ग्लेशियर के जल्दी जल्दी पिघलने का हो, आकस्मिक तेज बारिश के कारण आई बाढ़ का हो या जंगलों के कटने या आग में जलने से हुए वातावरण के नुकसान की बात हो। हर तरह से नुकसान स्थानीय स्तर पर सीमित नहीं रहता।
इसलिए ये ज़रूरी है कि इन समस्याओं का समाधान भी बड़े स्तर पर ही किया जाना चाहिए जिसमें केंद्रीय सरकार, राज्य सरकार, स्थानीय प्रशासन और स्थानीय लोगों की पूरी भागीदारी हो। वातावरण से जुड़ी सारी समस्याएं भी आपस में जुड़ी हैं इसलिए सभी समस्याओं का समाधान भी समग्र रूप से होना चाहिए।
अगर हम पर्यावरण से संबंधित सबसे बड़ी समस्या देखें जिससे पिछले कई सालों से हिमालय के क्षेत्र खासकर उत्तराखंड बुरी तरह ग्रसित हैं वो है आकस्मिक मूसलाधार बारिश से तबाही जिसे हम बादल फटने के नाम से जानते हैं। जहां एक और ये त्रासदी पर्यावरण में हो रहे बदलाओं का नतीज़ा है वहीं दूसरी ओर हमारे द्वारा इनको रोकने के लिए किए गए प्रयासों की कमी है।
इस तरह की अकस्मात बारिश से जान माल के नुकसान की खास वजह है नदी नालों में तेज बहाव से बहता पानी जो जमीन को काटता हुआ चला जाता है और रास्ते में तमाम खेत और मकानों को ढहा कर ले जाता है। मैदानों में बाद इस तरह का नुकसान नहीं करती।
साल दर साल इस तरह के कटाव से पहाड़ और भी कमज़ोर हो गए हैं और हर मानसून के बाद पिछली बार से ज्यादा तबाही हो जाती है। हाल के दिनों में उत्तराखंड के कई इलाकों में भूस्खलन से बहुत भारी नुक्सान हुआ जिसमें मैदानी इलाके जैसे राजधानी देहरादून भी शामिल है। सभी नालों और नदियों में आकस्मिक मूसलाधार बारिश से कई जगह खेती और मकानों को बहुत नुकसान हुआ।
2013 में हुई केदारनाथ की त्रासदी को याद कर आज भी मन सिहर उठता है। इस त्रासदी में लगभग 7000 लोगों की जान गई और कितने ही लोग लापता हो गए। उफनते नालों और नदियों के पानी ने अपने किनारों पर बसे तमाम गांव और शहरों को तबाह कर दिया। 13 से 17 जून तक हुई इस तबाही का मुख्य कारण था भयंकर बारिश की वजह से चोराबरी ग्लेशियर का पिघलना और मंदाकिनी नदी में उफनती बाढ़ का आना।
2021 में भी चमोली जिले में ग्लेशियर पिघलने से आई बाढ में तपोवन जलविद्युत परियोजना को भारी क्षति पहुंची और ऋषिगंगा, धौलीगंगा और अलकनंदा के किनारे बसे गांवों और शहरों में भी बहुत क्षति हुई तथा तपोवन बांध में काम करने वाले मजदूरों सहित 200 से ज्यादा लोग मारे गए।
यहां ये बात महत्वपूर्ण है की अगर तपोवन बांध से पानी के बहाव में अवरोध नहीं हुआ होता तो ये हादसा बहुत बड़ा हो सकता था जिससे काफी दूर तक के इलाकों में जान माल का भयंकर नुकसान होता।
क्या इन सब प्राकृतिक आपदाओं से बचने का कोई उपाय नहीं ? क्या हम इस सबके लिए बेहतर तरीके से तैयार नहीं हो सकते जिससे कम से कम नुकसान हो ? ऐसा क्यों है कि पहाड़ कटने या टूटने से इस तरह की तबाही दुनिया के बाकी देशों में नहीं होती ?
ये समझ पाना इतना मुश्किल भी नहीं है। हमें ये समझना चाहिए कि अगर पानी का बहाव नदी नालों में किसी तरह से कम किया जाए तो पानी की मात्रा और तेजी से जो कटाव होता है वो कम हो सकता है। हमारे पहाड़ तथाकथित विकास के लिए हो रहे कार्यों की वजह से कटते जा रहे हैं जिससे पहाड़ की कच्ची मिट्टी बारिश की मार सह नहीं पाती और भूस्खलन के साथ मलबे के रूप में बह जाती है। बहुत तेज बारिश में पानी के बहाव को रोकने के लिए पेड़ों की कमी और उफनते पानी को रोकने में असमर्थ छोटे छोटे नाले धीरे धीरे विकराल रूप ले लेते हैं।
पानी के बहाव को रोकने या कम करने के लिए और भूस्खलन और जान माल के नुकसान को कम करने के तरीके हैं जिन्हें विश्व में कई देशों ने अपनाया है। ये इस प्रकार हैं –
- बारिश के पानी को छोटे छोटे प्राकृतिक या मानव निर्मित जलाशयों में एकत्रित करना। जिससे पानी ज्यादा मात्रा में बहकर निचले इलाकों तक न पहुंचे।
- पहाड़ों की ढलान पर नालियों से जल के बहाव को अवरुद्ध कर उसे इन जलाशयों की तरफ मोड़ना। जंगलों और पहाड़ों में कृत्रिम जलाशयों के बनाने से अनेक फायदे हैं। जैसे जंगल में आग लगने पर पानी की उपलब्धता, जानवरों को आसानी से पानी की पूर्ति और उनकी गांवों की तरफ पलायन में रोक, जंगल में पानी के स्तर में बढ़ोतरी और आग के खतरे में कमी। इसके अलावा पानी के जो प्राकृतिक स्रोत हैं उनका पुनः प्रवर्तन आदि।
- जंगलों में ऐसे पौधों को बहुतायत में लगाना जो जड़ों में पानी को रोकने की क्षमता रखते हैं जैसे हमारे परिप्रेक्ष्य में बांझ के पेड़। पेड़ों के सरंक्षण के लिए वन विभाग द्वारा कई उपाय किए जा रहे हैं, लेकिन स्थानीय जाति के पौधों से जंगल को बढ़ाने की दिशा में और काम करने की जरूरत है जिससे जंगल घने हों जो पानी को रोकने में कारगर हों।
- ग्लेशियर की देख रेख और खास कर उसके मुहानों को मजबूत करना। यूरोप के कई देश अपने ग्लेशियर की देख भाल करते हैं ताकि वहां अचानक बर्फ के पिघलने के खतरे को ताला जा सके।
- सबसे कारगर उपाय है नालों और गदेरों में हर कुछ दूरी पर छोटे छोटे बांध बनाना जिन्हें चेक डैम भी कहा जाता है। इन बांधों से स्थानीय किसानों को भी जल आपूर्ति होगी और बाढ से होने वाले नुकसान को भी काम किया जा सकेगा।
- नदियों पर श्रृंखलागत तरीके से छोटे छोटे जलविद्युत योजनाएं बनाना। ये वातावरण की दृष्टि से भी सही है क्योंकि छोटे बांधों से स्थानीय पारिस्थितिकी को भी नुकसान नहीं पहुंचेगा।
- टूरिज्म और विकास को वातावरण की दृष्टि से संतुलित करना।
- पहाड़ों पर सड़कों के आस पास या जहां पर पानी के बहाव से मिट्टी की कटान का खतरा हो उन जगहों को पक्का करना। ऐसी जगहों पर पानी के बहाव को बदल कर दूर मोड़ना भी बहुत जरूरी है। पहाड़ों में अक्सर जहां से एक बार पहाड़ टूटने लगता है वो कच्चा होकर बार बार टूटने लगता है। उस जगह पानी को रिसने से बचाने के उपाय बहुत जरूरी हैं।
पहाड़ और खास कर उत्तराखंड के पहाड़ बहुत समय से मौसम की मार झेल रहे हैं और धीरे धीर कमज़ोर होते ये पहाड़ हर बार एक नई आपदा को जन्म देते हैं। हमारी नीतियां ज्यादातर आपदा के प्रबंधन को महत्व देती हैं लेकिन सबसे ज्यादा जरूरत है आपदा को रोकने की। इस सबमें सबकी भागीदारी बहुत जरूरी है, स्थानीय लोगों की, राज्य सरकार की और केंद्र सरकार की।
हर जंगल को न सिर्फ बचाने की बल्कि सही तरीके से और बढाने और घना करने की जरूरत है। इसी तरह प्रधानमंत्री द्वारा सब जगह अमृत सरोवर बनाने का जो आवाह्न है उसे हर गांव, हर जंगल, हर शहर में कारगर करने की भी सख्त जरूरत है।
उदाहरण के तौर पर पुणे में वन विभाग ने इसी वर्ष वहां के पहाड़ों पर बारिश से आने वाली बाढ़ से होने वाले नुकसान को रोकने के लिए जलाशय और चेक डैम बनाए हैं। वहां तलीज, वेटल और अन्य पहाड़ियों पर बसे लोगों को लगातार भूस्खलन और बाढ़ से नुकसान होता था।
तीन साल पहले स्थानीय लोगों की शिकायत करने पर वन विभाग ने ये कार्य शुरू किया और पहाड़ों पर ऊपर और नीचे सभी जगह तालाब बनाए और कई जगह चेक डैम बनाए जिससे अब पानी के बहाव को पूरी तरह नियंत्रित कर बाढ़ के खतरे से स्थानीय लोगों को मुक्ति मिली।
प्रधानमंत्री ने आज़ादी के अमृत महोत्सव में हर गांव हर शहर में अमृत सरोवर बनाने का आवाह्न किया है। उत्तराखंड वैसे ही पवित्र कुंड और तालों के लिए प्रसिद्ध है लेकिन वो सब प्राकृतिक हैं और बहुत ही कम ताल या कुंड हैं जिन्हें कृत्रिम रूप से बनाया गया है।
आज हर उत्तराखंड के निवासी को बीड़ा उठाने की जरूरत है कि अपने जल और जंगल की सुरक्षा करें, और उन्हें और विस्तृत और विकसित करें, और अधिक से अधिक ताल और कुंड बनने का संकल्प लें, ताकि उत्तराखंड की प्राकृतिक सुंदरता और बढ़े और भविष्य में आने वाली आपदाओं को रोका जा सके।
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