राजनेताओं के पास क्यों है आखिर सरकारी शिक्षकों की चाबियां ?

राजनेताओं के पास क्यों है आखिर सरकारी शिक्षकों की चाबियां ?

एक शिक्षक को ट्रांसफर की गुहार मुख्यमंत्री से करनी पड़ी इससे यह साफ समझ में आता है कि इनके ट्रांसफर में राजनेताओं की कितनी बड़ी भूमिका है। दूसरी खबर राजस्थान की थी, जहां दो मंत्री कथित तौर पर शिक्षक के तबादले को लेकर भड़क गए थे। इस घटना के बाद सार्वजनिक टिप्पणियों को देखते हुए शिक्षा मंत्री ने तबादलों से संबंधित मामलों में सभी जन प्रतिनिधियों की मांगों को समायोजित करने की आवश्यकता का उल्लेख किया। भारत में राजनेता और शिक्षकों की साठगांठ वेल-डॉक्यूमेंटेड तथ्य है।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

शिक्षक हमारे समाज में सबसे महत्वपूर्ण पेशे में हैं और हमारे बच्चों के भविष्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। बावजूद इसके भारत में शिक्षक होने का अनुभव, विशेष रूप से सरकारी स्कूलों में, कठिनाइयों से भरा है। स्थायी सरकारी शिक्षकों का सम्मान किया जाता है और वे सबसे अधिक वेतन पाने वाले सरकारी अधिकारियों में से हैं। मैंने पिछले कुछ सालों में कई सरकारी शिक्षकों को यह जानने के लिए इंटरव्यू किया कि उन्होंने शिक्षक बनना ही क्यों चुना और पढ़ाने के बारे में ऐसी कौन सी चीज है जो उन्हें सबसे ज्यादा पसंद है। विशेष रूप से महिला शिक्षक समाज में अपने पेशे की उच्च स्थिति के बारे में कहते हैं कि उनके लिए शिक्षक होना खास इसलिए है, क्योंकि इससे युवाओं के भविष्य और जीवन को आकार देने का मौका मिलता है। सबसे अधिक वेतन पाने वाले ये शिक्षक बदनाम भी काफी ज्यादा हैं।

स्टडी के मुताबिक ज्यादातर शिक्षक अक्सर अनुपस्थित रहते हैं। शिक्षकों की अनुपस्थिति की दर लगभग 25 प्रतिशत है। लेकिन जब वे स्कूल में होते हैं तब उनके पढ़ाने के चांस 50 प्रतिशत ही होते हैं। कई लोग यह तर्क भी देते हैं कि ये शिक्षक समाधान की बजाय समस्या ज्यादा हैं। लेकिन ये शिक्षक भी राजनेताओं के जटिल जाल में फंस जाते हैं। पिछले, दो महत्वपूर्ण खबरें अखबारों की सुर्खियों में थी। एक खबर उत्तराखंड की थी, जब वहां के सीएम ट्रांसफर की गुहार लगाने वाली सरकारी शिक्षक पर भड़क गए थे। शिक्षक को गिरफ्तार करने और निलंबित करने के आदेश के साथ यह मामला खत्म हुआ था।

एक शिक्षक को ट्रांसफर की गुहार मुख्यमंत्री से करनी पड़ी इससे यह साफ समझ में आता है कि इनके ट्रांसफर में राजनेताओं की कितनी बड़ी भूमिका है। दूसरी खबर राजस्थान की थी, जहां दो मंत्री कथित तौर पर शिक्षक के तबादले को लेकर भड़क गए थे। इस घटना के बाद सार्वजनिक टिप्पणियों को देखते हुए शिक्षा मंत्री ने तबादलों से संबंधित मामलों में सभी जन प्रतिनिधियों की मांगों को समायोजित करने की आवश्यकता का उल्लेख किया। भारत में राजनेता और शिक्षकों की साठगांठ वेल-डॉक्यूमेंटेड तथ्य है। अर्थशास्त्री का काम इस साठगांठ के आकर्षक विवरण को दिखाता है।

शिक्षक विशाल चुनावी शक्ति से भी जुड़े होते हैं, लगातार मतदाताओं से मिलते रहते हैं और अनौपचारिक प्रचारक के रूप में भी काम कर सकते हैं। सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि वे मतदान केंद्रों को नियंत्रित करते हैं और इस प्रकार राजनेताओं के लिए महत्वपूर्ण सहयोगी होते हैं। वहीं शिक्षक को स्थानांतरण और पोस्टिंग के लिए राजनेताओं की आवश्यकता होती है इस तरह दोनों के बीच पारस्परिक निर्भरता होती है। बेते ने 2007-08 में तीन राज्यों (राजस्थान, मध्य प्रदेश और कर्नाटक) में 2340 शिक्षकों का सर्वे किया था, जिसमें शामिल शिक्षकों में से 50 प्रतिशत से अधिक शिक्षकों का मानना था कि ट्रांसफर के लिए राजनीतिक कनेक्शन की आवश्यकता है। बेटिल के कागजों के मुताबिक ट्रांसफर के बाजार में राजनेता और रिश्वत प्रमुख हैं। कर्नाटक में सर्वे में शामिल लगभग एक तिहाई शिक्षकों ने तबादलों का अनुरोध किया, लेकिन केवल आधे शिक्षकों का ही तबादला हुआ। इसके अलावा, ट्रांसफर में 2 महीने से लेकर दो साल तक का समय लग जाता है। कनेक्शन और 5 हजार रुपए से लेकर 20,000 रुपए तक की रिश्वत देकर जल्दी ट्रांसफर करवाया जा सकता है।

राजनेताओं के पास तबादलों की चाबियां हैं, क्योंकि स्थानांतरण नीतियां अपारदर्शी हैं। विमला रामचंद्रन के नेतृत्व में 2015 में 9 राज्यों में किए गए विश्व बैंक के अध्ययन से पता चला कि तमिलनाडु और कर्नाटक के अलावा कहीं भी ट्रांसफर को लेकर कोई व्यवस्थित नीति और दिशानिर्देश नहीं हैं। राजस्थान, झारखंड और उत्तर प्रदेश में तो कोई नीति ही नहीं है। तबादलों को हमेशा चुनाव से जोड़ा जाता है। हाल ही में राजस्थान के मंत्रियों ने ट्रांसफर पर लगे बैन को हटाने के लिए कदम उठाया है। चुनाव को ध्यान में रखते हुए, 12,000 शिक्षकों का तबादला किया गया है। तबादले के राजनीतिकरण ने अनिवार्य रूप से शिक्षक जवाबदेही को कम कर दिया है।

राजनेताओं के साथ अच्छे संबंध रखना शिक्षकों के लिए अपनी नौकरी बचाने का जरिया बन चुका है। शिक्षक सिस्टम के इस खेल के लिए राजनेताओं तक अपनी पहुंच बनाते हैं। उच्च वेतन (नियमित सरकारी स्कूल के शिक्षक को प्राइवेट शिक्षक की तुलना में 20 गुना अधिक वेतन मिलता है) अनुपस्थिति की उच्च दर इस शिक्षण पेशे की विशेषता है, जो उन्हें सीधे राजनीतिक रसूख से जोड़ती है। लेकिन यह बराबरी का रिश्ता नहीं है।

बेते की रिपोर्ट के मुताबिक पारस्परिक निर्भरता के बावजूद, शिक्षकों को राजनेताओं द्वारा नियमित रूप से परेशान किया जाता है। एक नेता बनने के लिये शिक्षित होना अनिवार्य इसलिए नहीं किया गया क्योंकि अनपढ़ व्यक्ति भी ज्ञानी ही सकता है. शिक्षा जरुरी है पर अनिवार्य नहीं. उदाहरण देता है जब इन समस्याओं का समाधान होगा तब जाकर शिक्षक की जवाबदेही सिर्फ बच्चों को पढ़ाने की होगी। तभी वे समाज में अपनी वास्तविक भूमिका निभा पाएंगे। भारत में राज्य दर राज्य सर्वेक्षणों से पता चलता है कि हमारे स्कूलों में छात्रों के सीखने का स्तर बेहद खराब है।

अध्ययनों से लगातार पता चला है कि सरकारी स्कूल के शिक्षक अक्सर अनुपस्थित रहते हैं और जब वे मौजूद होते हैं, तो वे अपना समय अपने काम यानी पढ़ाने में नहीं लगाते। शिक्षकों का प्रयास मुख्य रूप से इसलिए कम है क्योंकि कोई भी सरकारी शिक्षकों को जवाबदेह नहीं ठहराता। जवाबदेही कम है क्योंकि शिक्षक अक्सर राज्य विधानसभाओं में सत्ता के पदों पर होते हैं और/या मजबूत यूनियनों द्वारा संरक्षित होते हैं। शिक्षण समुदाय का यह राजनीतिकरण और उनका अधिक प्रतिनिधित्व और कम प्रयास इस प्रणाली के दो मुख्य दुख हैं नैतिक उत्तरदायित्व के मामले में प्रधान का नियंत्रण सबसे कम होता है यह विशेष रूप से शिक्षा में समस्याग्रस्त है।

(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं और लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।)

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