युवा कुलपति ने लाइलाज बीमारी पार्किंसन की खोजी दवा

युवा कुलपति ने लाइलाज बीमारी पार्किंसन की खोजी दवा

देश के अहम पदों पर आसीन उत्तराखंड के प्रोफेसर की फेहरिस्त में एक नाम और जुड़ गया डॉ डीएस रावत का। उत्तराखंड के बागेश्वर जिले के काफलीगैर तहसील के रेखोली गांव के रहने वाले डॉ दीवान सिंह रावत पिछले साल ही उन्होंने लंबी रिसर्च के बाद लाइलाज बीमारी पार्किंसन की दवा पर रिसर्च कर खोज की थी। वे इस दवा को खोजने वाले प्रथम भारतीय वैज्ञानिक हैं।

डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला

प्रोफेसर डॉ दीवान सिंह रावत जुलाई 2003 में एक रीडर के रूप में विभाग में शामिल हुए और मार्च 2010 में प्रोफेसर के पद पर पदोन्नत हो गए। उन्होंने 1993 में कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल से अपनी मास्टर डिग्री प्राप्त की और विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान हासिल करने के लिए योग्यता प्रमाणपत्र से सम्मानित हुए। नैनीताल में पढ़े व उत्तराखंड के बागेश्वर जनपद के मूल निवासी दिल्ली विश्वविद्यालय के युवा प्रोफेसर डॉ. दीवान सिंह रावत ने लाइलाज पार्किंसन बीमारी की औषधि खोज निकाली है। उनकी अमेरिकन पेटेंट प्राप्त औषधि को अमेरिका की एक कंपनी बाजार में निकालेगी। इसके लिए डॉ. रावत का अमेरिकी कंपनी से करार हो गया है। औषधि विज्ञान के लिए यह बहुत बड़ी खोज बताई जा रही है।

उल्लेखनीय है कि देश के पूर्व दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और अमेरिका के राष्ट्रपति रोनाल्ड विलसन रीगन भी अपने अंतिम समय में, वर्षों तक इसी पार्किंसन नाम की लाइलाज बीमारी से पीड़ित रहे थे। उम्मीद की जा रही है कि अब जल्द ही दुनिया में लाइलाज पार्किंसन की डॉ. रावत की खोजी हुई औषधि बाजार में आ जाएगी, और भविष्य में वाजपेयी और रीगन सरीखे सभी खास व आम लोगों सहित पूरी मानव सभ्यता को इस जानलेवा व कष्टप्रद बीमारी से मुक्ति मिल पाएगी।

डॉ.रावत ने बताया कि वैज्ञानिक कंपाउंड बनाते रहते हैं, किंतु करीब 10 हजार कंपाउंड बनाने पर एक कंपाउंड ही बाजार में आ पाता है और इस प्रक्रिया में 16 से 18 वर्ष लग जाते हैं, एक दवा बनाने में करीब 450 मिलियन डॉलर का खर्च आता है। ऐसे में अनेकों वैज्ञानिक अपने पूरे सेवा काल में अपनी खोजी दवाओं को बाजार में लाने से पहले ही सेवानिवृत्त हो जाते हैं। लेकिन डॉ. रावत की खोज करीब सात वर्ष में और काफी कम खर्च में ही बाजार में आने जा रही है। पहाड़ की कठिन परिस्थितियां व्यक्ति को इतना मजबूत कर देती हैं कि यहां के लोग कुछ भी ठान लें तो उसे पूरा करके ही मानते हैं।

डॉ. रावत उत्तराखंड के बागेश्वर जनपद के ताकुला से आगे कठपुड़ियाछीना के पास दुर्गम गांव रैखोली के निवासी हैं। किसी भी आम पहाड़ी की तरह उन्होंने गांव में खेतों में हल जोतने से लेकर गोबर डॉलने तक हर कष्ट झेला है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में ही हुई। नौवीं कक्षा के बाद डॉ. रावत नैनीताल आ गए और यहां भारतीय शहीद सैनिक विद्यालय से 10वीं व 12वीं तथा आगे यहीं डीएसबी परिसर से 1993 में टॉप करते हुए एमएससी की डिग्री हासिल की।

इसके बाद उन्होंने लखनऊ से प्रो डीएस भाकुनी के निर्देशन में पीएचडी की डिग्री हासिल की। इसके बावजूद उन्हें दो वर्ष उद्योगों में प्राइवेट नौकरी भी करनी पड़ी। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और 1999 में अमेरिका चले गए और तीन वर्ष वहां रहकर अध्ययन आगे बढ़ाया। वापस लौटकर 2002 में मोहाली और फिर 2003 में अपनी प्रतिभा से सीधे प्रवेश कर दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाने लगे। 2010 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय के ‘सबसे युवा प्रोफेसर’ के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए। बतौर डीन परीक्षा वे दिल्ली विवि में भी पूर्ण डिजिटाइजेशन कर चुके हैं। इस सुधार के बाद दिल्ली विवि के 97वें वार्षिक दीक्षांत समारोह में 1.78 लाख डिग्रियां डिजिटल जारी की गईं जो अपने आप में एक रिकॉर्ड था।

प्रो. रावत ने बताया कि दिल्ली विवि में सर्वाधिक पीएचडी की जाती हैं और डिजिटाइजेशन से क्वालिटी में सुधार सहित निस्तारण प्रक्रिया में तेजी भी आई है। प्रो. रावत ने कहा कि पर्वतीय क्षेत्र की आवश्यकताओं और विशेषताओं के अनुरूप नए पाठ्यक्रम शुरू करना और विद्यार्थियों सहित कर्मचारियों और अध्यापकों की समस्याओं का त्वरित निस्तारण, विवि के भवनों का जीर्णोद्धार और सभी विभागों का डिजिटाइज उनकी प्राथमिकता रहेगा। अब कुमाऊं विश्वविद्यालय के नए कुलपति की जिम्मेदारी सौंपी गई है रसायन विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने वाले डॉ. दीवान सिंह रावत अब तक कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों से नवाजे जा चुके हैं। प्रो. रावत के 148 शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं।

पार्किंसन एक खतरनाक बीमारी है जिससे दुनिया भर में 1 करोड़ के आस-पास लोग पीड़ित हैं। यह दिमागी रूप से इंसान को कमजोर कर देती है, इसमें दिमाग इस तरह से प्रभावित होता है कि व्यक्ति अपने शरीर से अपना कंट्रोल तक खो देता है। यह समय के साथ-साथ बढ़ती है जिससे व्यक्ति को बैठने, चलने, खाने, पीने, खड़े होने, कोई काम करने, कुछ व्यक्त करने में परेशानी होने लगती है। इसके अलावा इस बीमारी में रोगी के हाथ-पैर बिना रूके हिलते भी रहते हैं। पार्किंसन की इस बीमारी महिलाओं के मुकाबले पुरूषों को ज्यादा प्रभावित करती है। यह जवान और बच्चों में न के बराबर होती है, यह बूढ़ों लोगों को ज्यादा होती है।

लाइलाज और खतरनाक बीमारी पार्किंसन के मरीजों के लिए राहत की खबर है, दरअसल हाल ही में हुई एक वैज्ञानिक रिसर्च के अनुसार इस बीमारी के उपचार के लिए चूहों पर किया गया ट्रायल सफल हुआ है इसके बाद मनुष्यों पर इसके उपचार के लिए क्लिनिकल ट्रायल्स की शुरुआत हो चुकी है। कुमाऊं विश्वविद्यालय के कुलपति रसायन विज्ञान के प्रोफेसर दीवान सिंह रावत की इस खोज में महत्वपूर्ण भूमिका है। 12 वर्षों के परिश्रम के बाद उन्होंने उस अणु की खोज की है जो इसके इलाज में कारगर है। अमेरिका के प्रसिद्ध वॉल स्ट्रीट जर्नल, ब्लूमबर्ग ने प्रो. रावत की इस उपलब्धि को प्रमुखता से प्रकाशित किया है। प्रोफेसर रावत और प्रोफेसर किम की ओर से विकसित इस अणु (ATM 399A) का क्लिनिकल ट्रायल हो रहा है। प्रो. रावत के मुताबिक डेढ़ वर्ष बाद इसका परीक्षण पार्किंसन के गंभीर रोगियों पर किया जाएगा। उन पर सफल होने पर चार साल बाद इसकी दवा मार्केट में उपलब्ध हो जाएगी। अमेरिका की प्रसिद्ध फार्मा कंपनी दवा को विकसित करेगी। उनकी सफलता का सफर यूं ही जारी रहे हम यही कामना करते हैं।

लेखक दून विश्वविद्यालय कार्यरत हैं।

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