पौड़ी गढ़वाल के श्रीनगर, एकेश्वर, दमदेवल, कोटद्वार, सतपुली, खिर्सू, पोखड़ा जैसे इलाकों में वन्यजीवों के साथ संघर्ष को लेकर किया गया शोध। प्रति 100 वर्ग किमी में गुलदारों की संख्या 13 तक पहुंच गई है, जो एक बड़ा आंकड़ा है। हिल-मेल ब्यूरो बंद ढके दरवाजे, आंगन में उगी लंबी-लंबी घास और झाड़ियां। अपनी जड़ों से
पौड़ी गढ़वाल के श्रीनगर, एकेश्वर, दमदेवल, कोटद्वार, सतपुली, खिर्सू, पोखड़ा जैसे इलाकों में वन्यजीवों के साथ संघर्ष को लेकर किया गया शोध। प्रति 100 वर्ग किमी में गुलदारों की संख्या 13 तक पहुंच गई है, जो एक बड़ा आंकड़ा है।
हिल-मेल ब्यूरो
बंद ढके दरवाजे, आंगन में उगी लंबी-लंबी घास और झाड़ियां। अपनी जड़ों से पलायन कर शहरों में बस चुके उत्तराखंडियों के गांवों की यही कहानी है। गांवों के घरों में लगे ताले भी अब जंग खा चुका हैं, उन्हें भी अहसास हो चुका है कि अब शायद कोई नहीं आएगा। लेकिन इन वीरान गांवों में इन दिनों एक नई तरह का शोर है। यहां कुछ आवाजें सुनी जा रही हैं। ये आवाजें हैं जंगली जानवरों की। उत्तराखंड के वीरान गांव धीरे-धीरे वन्य जीवों का बसेरा बनते जा रहे हैं। कम से कम पलायन की सर्वाधिक मार झेल रहे पौड़ी पौड़ी जिले को लेकर तो यही दावा किया जा रहा है। देहरादून स्थित वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिक मध्य हिमालयी क्षेत्र में मानव-वन्य जीव संघर्ष को लेकर शोध कर रहे हैं। अपने अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि सुनसान-वीरान पड़े गांव और खेतों में उग आई झाड़ियां वन्यजीवों का सुरक्षा कवच बन रही हैं। जहां उन्हें छिपने की अच्छी जगह मिल जाती है।
बंजर खेतों में उगी झाड़ियों में छिप रहे वन्यजीव
वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के डॉ सत्यकुमार कहते हैं कि जिन गांवों में कृषि भूमि पर खेती बंद कर दी गई और उसे बंजर छोड़ दिया गया। वहां झाड़ियां उग आई हैं। उन झाड़ियों में सूअर, बाघ, बंदर, गुलदार जैसे जानवर रह रहे हैं। जिससे मानव-वन्यजीव संघर्ष की घटनाएं बढ़ रही हैं। वे बताते हैं कि झाड़ियों के चलते वन्यजीवों को छिपने और रहने की आसान और अच्छी जगहें मिल जा रही हैं। डॉ सत्य कुमार के मुताबिक जिन जगहों पर लोगों ने खेती छोड़ी दी है, वे बंजर खेत अब सेकेंडरी फॉरेस्ट जैसे बन रहे हैं। वहां लैंटाना और काला बांस जैसी घातक झाड़ियां उग आईं हैं। इन झाड़ियों में जंगली आसानी से छिप सकते हैं। वे कहते हैं कि पहाड़ों में घरों के पास से झाड़ियों को समय समय पर काटना, वन्यजीवों के हमले से सुरक्षा के लिहाज से बेहद जरूरी है। झाड़ियों में छिपा जानवर अचानक सामने आ कर हमला कर देता है।
वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की 33वीं वार्षिक शोध कार्यशाला में शोधार्थी डॉ दीपांजन नाहा ने अपने शोध के बारे में बताया। पौड़ी गढ़वाल के श्रीनगर, एकेश्वर, दमदेवल, कोटद्वार, सतपुली, खिर्सू, पोखड़ा जैसे इलाकों में उन्होंने वन्यजीवों के साथ संघर्ष को लेकर शोध किया।उन्होंने बताया कि प्रति 100 वर्ग किमी में गुलदारों की संख्या 13 तक पहुंच गई है, जो एक बड़ा आंकड़ा है।
जंगली सूअरों को मारने की इजाजत
संस्थान के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ सत्यप्रकाश कहते हैं कि जंगली जानवरों के हमले से बचाव के तरीके लोगों को भी अपनाने होंगे। वे बताते हैं कि पिछले वर्ष नवंबर में राज्य में कुछ जगहों जंगली सूअरों को मारने की अनुमति दी गई थी। जहां सूअरों के चलते खेती को नुकसान होता है। लेकिन इस पर लोगों की ओर से कोई पहल नहीं की गई। लोग यदि सोचते हैं कि सारे कार्य सरकार करेगी, तो ये संभव नहीं है।
सोलर फेंसिंग मुश्किल और खर्चीला काम
वन्यजीवों से बचाव के लिए सोलर फेसिंग की तकनीक पर डॉ सत्यप्रकाश कहते हैं कि उत्तराखंड के पहाड़ों में ये संभव नहीं है। यहां घर और खेत सब अलग-अलग बिखरे हुए हैं। ऐसे में सोलर फेंसिंग काफी मुश्किल और खर्चीला कार्य है।
बड़ा सवाल – रिहायशी इलाकों में गुलदार क्यों?
जवाब – मध्य हिमालय के जंगलों में हो रही भोजन की कमी
डॉ सत्यप्रकाश कहते हैं कि डब्ल्यूआईआई ने दो साल तक मध्य हिमालयी क्षेत्र के जंगलों में जानवर की मौजूदगी जानने के लिए अध्ययन किया। जंगल में हिरन-कांकड़-सूअर जैसे जानवरों की सख्त कमी है जो गुलदारों का प्रिय भोजन हैं। हिरन-सांभर-कांकड़ जैसे जानवरों की मौजूदगी जानने के लिए कैमरा ट्रैप और ट्रांजिट का इस्तेमाल किया गया। वे कहते हैं कि मध्य हिमालय में कुछ जगहों पर जंगल में भोजन की सख्त कमी है। इसी लिए गुलदार रिहायशी इलाकों का रुख़ कर रहे हैं। इसके साथ ही लैंटाना जैसी झाड़ियों के चलते जंगल की गुणवत्ता भी बिगड़ रही है। यदि जंगल में कांकड़ जैसे जीवों के भोजन के लिए अच्छी वनस्पतियां होती, तो उनकी संख्या में कमी नहीं आती। इस मामले में ऊंचाई वाले इलाकों की स्थिति ठीक है। साथ ही तराई-भाबर क्षेत्र में कार्बेट का इलाका भी गुणवत्ता के लिहाज से अच्छा है। लेकिन मध्य हिमालय के जंगल अपनी गुणवत्ता खो रहे हैं। इसमें टिहरी, पौड़ी और उत्तरकाशी के निचले हिस्से शामिल हैं। इसलिए जरूरी है कि जंगल में जानवरों की पसंदीदा वनस्पतियां बढ़ायी जाएं।
सवाल – दूसरे जानवर भी कर रहे गांवों का रुख?
जवाब – सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट न होने से भी बढ़ा खतरा
वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के मुताबिक, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट न होने की वजह से भी वन्यजीव रिहायशी इलाकों की ओर बढ़ रहे हैं। हर गांव-कस्बे के बाहर कूड़ा यूं ही उड़ेल दिया जाता है। जिसमें खाने-पीने की चीजें और मांस के टुकड़े भी होते हैं। इसे खाने के लिए सूअर, बाघ, भालू जैसे सभी जानवर आते हैं। डॉ सत्यप्रकाश कहते हैं कि पहाड़ों में कूड़ा प्रबंधन को गंभीरता से लेना होगा। क्योंकि ये कूड़ा वन्यजीवों को भोजन के लिए आकर्षित कर रहा है। इसके चलते जानवर गांवों का रुख़ कर रहे हैं।
जंगली जानवरों से बचने के लिए वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के वैज्ञानिक रैपिड रिस्पॉन्स पर कार्य कर रहे हैं। गुलदार पर रेडियो कॉलर लगाकर उनकी गतिविधियों पर निगरानी रखी जाएगी। इसके साथ ही लोगों को परंपरागत तरीकों का भी ध्यान रखना होगा। जंगल के पास से लोग अकेले न गुज़रें। जंगल में न जाएं। स्कूली बच्चे अकेले स्कूल न जाएं। रात में रोशनी का प्रबंध हों। घर के आसपास झाड़ियां न हो। क्योंकि जंगली जानवरों को हम नियम कायदे नहीं सिखा सकते, इसलिए हमें ही सावधानी बरतनी होगी।
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