दिनेश लाल की मूर्तियां ग्रामीण जीवन पर आधारित हैं। जिनमें मेहनतकश पहाड़ी महिला है। खेतों को जोतते बैल हैं। घर के बाहर हुक्का पीते बुजुर्ग हैं। गीता का उपदेश देने वाले कृष्ण भी हैं। लकड़ी के बर्तन और चूल्हा हैं। ढोल-दमाऊ बजाते गांववाले हैं। वर्षा
दिनेश लाल की मूर्तियां ग्रामीण जीवन पर आधारित हैं। जिनमें मेहनतकश पहाड़ी महिला है। खेतों को जोतते बैल हैं। घर के बाहर हुक्का पीते बुजुर्ग हैं। गीता का उपदेश देने वाले कृष्ण भी हैं। लकड़ी के बर्तन और चूल्हा हैं। ढोल-दमाऊ बजाते गांववाले हैं।
वर्षा सिंह, देहरादून
पुरानी पहाडी शैली का एक घर, जिसमें कई सारे कमरे हैं। लकड़ी के खंभे हैं। ऊपर कमरों तक पहुंचने के लिए सीढ़ियां हैं। कोई वहां बैठा, कुदरत की खूबसूरती को निहारता, पहाड़ी वाद्य यंत्र बजा रहा है। नीचे पशुओं के लिए जगह है। दो गायें एक साथ बैठी हैं। पशुओं को चारा ले जाती महिला दिखती है। कुछ पेड़-पौधों के लिए भी जगह है। ताकि हरियाली बनी रहे। इसे पहाड़ी घर तिबार कहते हैं। जो अब पहाड़ में कम ही दीखते हैं। लेकिन दिनेश लाल के घर आएंगे तो उन घरों की यादें ताज़ा हो जाएगी।
टिहरी गढ़वाल के जाखणखाल के रहने वाले दिनेश लाल मूर्तिकार हैं। लकड़ी को कांट-छांट, तराश कर, रंग-रोगन कर उसमें प्राण भर देते हैं। गढ़वाल का ये कलाकार अपनी कला के ज़रिये गढ़वाल की विरासत को संजो रहा है। 37 वर्ष के दिनेश बताते हैं कि ग्रेजुएशन के बाद वो दुबई एक होटल में नौकरी करने चले गए थे। लेकिन तबियत बिगड़ी तो वर्ष 2009 में गांव लौट आए। करीब तीन वर्ष तक खराब तबियत ने घर के आर्थिक हालत को भी खस्ता कर दिया और वो कर्ज़ के बोझ तले दब गए।
एक दिन उनके बच्चे ने उनसे रिमोट वाली गाड़ी मांगी। घर पर बेकार बैठे दिनेश को पता था कि वो बाजार से बच्चे के लिए गाड़ी नहीं ला सकते। लेकिन उसके लिए खुद गाड़ी जरूर बना सकते हैं। ये ख्याल आते ही दिनेश ने गांव के ही बढ़ई से बेकार लकड़ियां इकट्ठा कीं। उन्हें कांट-छांट कर गाड़ी की शक्ल दी। फिर पुरानी बैट्री को फिट कर उसे रिमोट से चलने वाली गाड़ी में तब्दील कर दिया। बच्चे को उसका खिलौना मिल गया और पिता को नया रास्ता।
इसके बाद दिनेश बढ़ई के पास से बेकार लकड़ियां लाने लगे। क्योंकि उनके पास लकड़ी खरीदने के पैसे नहीं होते थे। रिमोट कार के बाद उन्होंने बच्चे के लिए पोकलैंड खिलौना बनाया। आस-पड़ोस से मिली तारीफ ने उनकी हौसला अफज़ाई की। इसके बाद दिनेश ने कुछ लकड़ियां और कुछ पैसे उधार लिये। उन्होंने अपने गांव के पास ही एक पुराना खंडहर बन चुका पहाड़ी घर देखा था। मन मे कुछ भाव उमड़े। कलाकार की संवेदना और हुनरमंद हाथ लकड़ियों को तराश कर तिबार बनाने में जुट गई। लकड़ी का ये घर सबको बहुत भाया। यहां तक कि टिहरी की ज़िलाधिकारी को भी उन्होंने ये घर स्मृति चिन्ह के रूप में दिया गया।
अब दिनेश लाल के पास इस तरह की चीजों के छोटे-छोटे ऑर्डर आने लगे। घर के आर्थिक हालात भी कुछ बेहतर होने लगे। कर्ज़ का एक बड़ा हिस्सा उन्होंने चुका दिया। लकड़ी से मूर्तियां बनाने में वे जुट गए। उनकी मूर्तियां ग्रामीण जीवन पर आधारित हैं। जिसमें मेहनतकश पहाड़ी महिला है। खेतों को जोतते हल-बैल हैं। घर के बाहर हुक्का पीते बुजुर्ग हैं। गीता का उपदेश देने वाले कृष्ण हैं। मठ्ठा मथती महिला है। यात्रियों को उनके गंतव्य की ओर ले जाती नाव है। जानवरों के झुंड हैं। गुस्से में आमने-सामने खड़े बैल हैं। लकड़ी का दीपक है। लकड़ी के बर्तन और चूल्हा हैं। ढोल-दमाऊ बजाते गांववाले हैं। तीर-धनुष ताने एकलव्य खड़ा है।
गांव-घर-समाज के ताने बाने से जुड़ी चीजों को दिनेश ने अपनी मूर्तियों में उतारा। खराब सेहत के चलते हिम्मत हार चुके दिनेश को अब सम्मानित किया जा रहा था। पिछले 6-7 वर्षों में दिनेश की मूर्तियों की दुनिया विस्तार लेती चली गई। अब उनकी बनाई मूर्तियां सरकारी दफ्तरों में पहुंच गई हैं। सरकारी अधिकारी, कर्मचारी उन्हें ऑर्डर देते हैं। कोटद्वार, श्रीनगर, नरेंद्र नगर में बहुत सारे सरकारी दफ्तरों में उनके तराशे हुए स्मृति चिन्ह हैं। इस बार टिहरी झील महोत्सव में भी दिनेश ने अपनी मूर्तियां लगाईं।
दिनेश बताते हैं कि उनके पिता पत्थर तराशते थे। उनके पूर्वज पत्थर की मूर्तियां बनाते थे। वही कला उनके अंदर भी मौजूद थी। जिसके ज़रिये वो ज़िंदगी के मुश्किल हालात से बाहर निकले। वे कहते हैं कि मैं अपने गढ़वाल की धरोहर पर कार्य करूंगा। जो चीजें विलुप्त हो चुकी हैं या जिन्हें लोग भूल रहे हैं, उनकी मूर्तियों में वो धरोहर फिर से जिंदा होंगी।
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