दिल्ली के स्कूलों को टक्कर दे रहा उत्तराखंड के दुर्गम इलाके चोपता का यह सरकारी स्कूल

दिल्ली के स्कूलों को टक्कर दे रहा उत्तराखंड के दुर्गम इलाके चोपता का यह सरकारी स्कूल

सरकारी स्कूलों को लेकर लोगों के मन में एक अलग तरह की धारणा बनी हुई है। अच्छा नहीं होगा, दीवारें खराब होंगी, बच्चों को सूट नहीं करेगा लेकिन अब ऐसा नहीं है। हिल-मेल में पढ़िये एक ऐसे ही पहाड़ के स्कूल की कहानी जो इन धारणाओं को तोड़ने का प्रयास कर रहा है…।

हम अक्सर अपने आस-पड़ोस, ऑफिस, विद्यालय एवं अन्य संस्थानों में कमी और अभावों का दोष सरकार पर मढ़ते हैं। हमें ऐसा लगता है कि सब काम सरकार का है, हमें यानी समाज को सिर्फ इसका उपयोग करना है, पर ऐसा नहीं है। हमारे ही समाज में कुछ लोग ऐसे हैं जो अपने दम पर परिवर्तन लाने के प्रयास करते हैं और आज मिसाल बन चुके हैं। #UttarakhandPositive सीरीज की अगली कड़ी में ऐसे शिक्षकों और उनके स्कूल की कहानी, जिसकी तस्वीरें पूरे प्रदेश में चर्चा का विषय बनी हुई हैं। ये तस्वीरें देखिए फिर आगे की कहानी बताते हैं।

 

 

इन आकर्षक तस्वीरों से शायद आपने अंदाजा लगाया होगा कि जरूर यह कोई पहाड़ पर बना प्राइवेट स्कूल होगा। जी नहीं, यह चमोली जिले के विकास खंड नारायणबगड़ स्थित चोपता गांव का एक सरकारी स्कूल है। यह स्कूल उत्तराखंड के दुर्गम क्षेत्र के राजकीय आदर्श प्राथमिक विद्यालय में शुमार है।

 

यहां के शिक्षकों परमानंद सती, गजपाल नेगी, अंजलि रतूड़ी ने इस स्कूल को नया रूप दिया है। इसमें अहम भूमिका निभाने वाले सहायक अध्यापक परमानंद सती ने हिल-मेल से बातचीत में बताया कि चोपता गांव नारायणबगड़ से 26 किमी की दूरी पर दुर्गम क्षेत्र में स्थित है। यह विद्यालय 1901 में बना है और यहां से कई जानी मानी हस्तियां पढ़कर निकली हैं। प्राचीन विद्यालय होने के नाते 2016 में शिक्षा विभाग द्वारा इसे आदर्श विद्यालय के रूप में चयनित किया गया। हालांकि उस समय विद्यालय में इन्फ्रास्ट्रक्चर कुछ ज्यादा नहीं था। उस समय विभाग की तरफ से थोड़ी-बहुत व्यवस्थाएं ही की जा सकी थीं।

ऐसे में स्कूल की टीम के मन में विचार आया कि क्यों न अपने विद्यालय की कायापलट की जाए। उन्होंने बताया कि हमने एसएमसी की बैठक की। क्षेत्रीय जनप्रतिनिधि, अभिभावकों एव अन्य गणमान्य लोगों को बुलाया गया। वहां प्रभारी प्रधानाध्यापक नरेंद्र भंडारी, एसएमसी अध्यक्ष यशवंत रावत समेत कई लोगों ने मिलकर लोगों का विश्वास जीतने की कोशिश की। लोगों को समझाया गया कि हम खुद अपने पैसे से चलिए शुरुआत करते हैं और अपने स्कूल की तस्वीर बदलते हैं। शिक्षकों ने अभिभावकों से कहा कि हम मेहनत करेंगे बस आपका सहयोग चाहिए।

 

परमानंद कहते हैं कि आदर्श विद्यालय बन चुका था लेकिन अब इसके आगे बढ़ना था। ऐसे में हमने कल्याण कोष गठित करने का प्रस्ताव रखा। अभिभावक इसके लिए प्रोत्साहित हों, ऐसे में हमने खुद शुरुआती धनराशि जमा कराई। बाकायदा रसीद बुकिंग छपवाई गई और धीरे-धीरे अभिभावकों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना शुरू कर दिया।

हमने बच्चों के लिए अलग-अलग सदन के हिसाब से मैदानी स्कूलों की तरह ड्रेस कोड बनाया। स्पोर्ट्स ड्रेस भी मंगवाए गए। ट्रैक सूट, ब्लेजर, आई कार्ड की व्यवस्था की गई। यह सब कल्याण कोष से हो रहा था। इसकी बदौलत स्मार्ट क्लास चलाने का भी फैसला लिया गया। अपने ही संसाधनों से हमने प्रोजेक्टर खरीदा और डिजिटल बोर्ड के जरिए कक्षाएं होने लगीं।

 

इससे अभिभावकों में एक अच्छा संदेश गया कि उनके बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए भी प्राइवेट जैसी सुविधा पा रहे हैं। इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने के साथ हमने पढ़ाई पर फोकस किया। हमने प्रयास किया कि स्कूल से पढ़े बच्चे नवोदय विद्यालय, केंद्रीय विद्यालय जैसे अच्छे स्कूलों में दाखिला पा सकें। हम समझ रहे थे कि अगर बच्चे प्रतियोगी परीक्षाओं में पास होंगे तो विभाग की नजर भी स्कूल पर होगी और अधिकारी हमारी बात मानेंगे।

हमारी मेहनत रंग लाने लगी, जो नतीजों से दिखने लगा था। 9 बच्चे जवाहर नवोदय विद्यालय, राजीव गांधी विद्यालय में सिलेक्ट हो गए। उसके बाद दो बालिकाएं देहरादून में पढ़ने के लिए सिलेक्ट हो गईं। 3 साल लगातार हमारे यहां के बच्चे निबंध, सामान्य ज्ञान प्रतियोगिताओं में जिला ही नहीं, राज्य स्तर पर भी अच्छा प्रदर्शन करते रहे।

 

इसके बाद अभिभावकों की मदद से हमने शिक्षा विभाग से अनुरोध किया कि हमें इस विद्यालय का कायाकल्प करना है और इसके लिए स्पेशल ग्रांट की आवश्यकता है। कुछ फंड भी हमारे कोष में जमा था। स्कूल के प्रदर्शन को देखकर उपशिक्षाधिकारी ने भी ग्रांट की पैरवी की। जिला और राज्य स्तर पर भी हमारा विद्यालय चर्चा में आया और जनप्रतिनिधियों ने काफी मदद की।

आखिर में सरकार की तरफ से विद्यालय रूपांतरण के लिए ग्रांट मिली। इसके अलावा हमारे कल्याण कोष में कुछ पैसा था तो हमने अपनी योजना बनाई। तब तक कोरोना दस्तक दे चुका था। प्रवासी लोगों के साथ उनके बच्चे लौटने लगे थे। स्कूल जब तक क्वारंटीन सेंटर रहा, तब तक कुछ नहीं किया गया लेकिन जैसे ही होम क्वारंटीन की गाइडलाइन जारी हुई तो हमें मौका मिल गया कि हम दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों से आए प्रवासी बच्चों के लिए अपने स्कूल को तैयार कर सकें।

 

हमने स्कूल को आकर्षक तरीके से बनाने का फैसला किया। हमारी कोशिश थी कि स्कूल को देख शायद प्रवासी बच्चों का एडमिशन हो। हमने पेंटर से बात की और विद्यालय का सुंदरीकरण करना शुरू किया। पूरे स्कूल में टाइल्स लगवाई गई। ऑयल पेंटिंग कराकर प्राइवेट स्कूलों की तरह शानदार पेंटिंग कराई, जिससे अभिभावकों को स्कूल के हिसाब से शहर की कमी न महसूस हो। शहर जैसा माहौल सुदूर गांव के अपने सरकारी स्कूल में उनको दिखने लगा। अब तक ऐसे 12 बच्चों के अभिभावकों ने यहां एडमिशन कराया है।

 

उन्होंने बताया कि कल्याण कोष के लिए 2017 में पहल की गई थी और करीब एक साल में लोगों ने पैसे देना शुरू कर दिया था। यह अब भी चल रहा है और स्कूल की छोटी-मोटी जरूरतें इसी से पूरी होती हैं।

एक उदाहरण का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि विभाग द्वारा केवल पात्र बच्चों को ही ड्रेस मिलती है। बच्चों में यह भावना पैदा न हो कि बीपीएल बच्चों को ही ड्रेस मिली है, उन्हें नहीं, इसके लिए कल्याण कोष से सभी बच्चों के लिए ड्रेस की व्यवस्था की गई। आज आलम यह है कि स्कूल के प्रदर्शन को देखते हुए अभिभावक खुद मदद के लिए आगे आ रहे हैं।

सुदूर गांव में 54 छात्रों को मिल रही बेस्ट एजुकेशन

राजीव गांधी नवोदय विद्यालय में चयन 8
जवाहर नवोदय विद्यालय में चयन 5
विद्यालय कल्याण कोष गठित
एसएमसी के सहयोग से प्रोजेक्टर द्वारा स्मार्ट क्लासेज
हिम ज्योति फाउंडेशन स्कूल, देहरादून में 2 बलिकाओं का चयन
छात्रों का चयन राज्य स्तरीय सामान्य ज्ञान, गणित विजार्ड, निबंध प्रतियोगिताओं में भी हुआ

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