आपने कभी सोचा है कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड राज्य बिल्कुल सटे हैं। जलवायु एक जैसी है तो सेब की खेती में हिमाचल का इतना आगे कैसे बढ़ गया, उत्तराखंड का नाम क्यों नहीं लिया जाता? क्या कमी रह गई कि यहां का किसान सेब की खेती नहीं करता। क्या हैं मौके, कितने पैसे चाहिए, क्या करना होगा और बाजार कैसे मिलेगा। इन सभी सवालों का जवाब खोजती अर्जुन सिंह रावत की रिपोर्ट।
भारत दुनिया में सेबों का सबसे बड़ा मार्केट है। न्यूजीलैंड, अमेरिका, ईरान सारे देशों से सेब यहां आता है। पहाड़ी क्षेत्र भारत में सीमित है लेकिन उनका भी पूरा दोहन नहीं कर पाए हैं। उत्तराखंड में सेब अगर कहीं चर्चित हुआ तो हर्षिल में विल्सन का हुआ। लेकिन हमने अपने रहन-सहन को तो आधुनिक बनाया, पर खेती के लिए हम पुराने ढर्रे पर ही रहे। आज के समय में देखा जाए तो उत्तराखंड में 10 जिले ऐसे हैं, जहां सेब की खेती बहुत अच्छे तरीके से हो सकती है। इतना ही नहीं, उत्तराखंड में सेब की खेती का एक और सकारात्मक पहलू है। महत्वपूर्ण बात यह है कि उत्तराखंड का सेब कश्मीर और हिमाचल से पहले तैयार होगा। अब जो चीज पहले तैयार हो जाएगी तो उसे बाजार भी अच्छा मिलेगा।
अब उत्तराखंड में सेब को लेकर गंभीर प्रयास हो रहे हैं। सरकार जहां सेब के बागान बढ़ाने पर जोर दे रही है, वहीं व्यक्तिगत तौर पर भी लोग सेब की खेती में रुचि दिखा रहे हैं। 2019 में पौड़ी के जिलाधिकारी धीरज गर्ब्याल ने हिमाचल के कलासन फार्म से अपनी अलग पहचान बनाने वाले विक्रम सिंह रावत के साथ मिलकर एक योजना तैयार की। मकसद एक ही था, कैसे यहां सेब की खेती को बढ़ावा दिया जाए। विक्रम खुद भी पौड़ी जिले हैं, उन्होंने बताया कि हमने तीन स्टेप बनाएं। पहला, लोगों को सेब के बगीचे लगाने के बारे में ट्रेनिंग देंगे। इसके तहत 90 लोगों को हिमाचल में आधुनिक खेती से रूबरू कराया गया। 3-3 दिन के लिए हम उन्हें वहां ले गए। उन्हें सेब के बागान दिखाने के साथ ही हिमाचल के गांव दिखाए कि वहां सेब की खेती से लोगों ने कितनी सुविधाएं और धन कमाया है। अपनी ही जमीन पर रहकर वे सेब और सब्जी की खेती से बहुत पैसा कमा रहे हैं।
दूसरा स्टेप था, उत्तराखंड के अलग-अलग ब्लॉक में लोगों को प्रशिक्षण दिया जाए। हमने दिसंबर में 7 जगहों पर ट्रेनिंग दी, जिसमें 400 से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। उसके बाद हमने 8-10 लोगों को चुना, जो शुरुआत के लिए दृढ़ दिखे।
हिमाचल के मुकाबले उत्तराखंड सरकार दे रही ज्यादा मदद
उन्होंने कहा कि हिमाचल की तुलना में उत्तराखंड में सरकार की ओर से ज्यादा मदद मिल रही है, पर यहां लोगों के पास विजन नहीं है और बहुत से लोगों को तो जानकारी नहीं है। यहां 12 लाख रुपये की सेब की खेती के लिए एक प्रोजेक्ट है, जिसमें 9 लाख 60 हजार रुपये तो राज्य सरकार अनुदान मिलता है। किसानों को सिर्फ 2 लाख 40 हजार रुपया लगाना है। किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए हमने पौड़ी जिले में सेब के 8 बागान लगाए। हमारी कोशिश है कि बीच-बीच में लोगों के बगीचों को देखते रहें, जिससे कोई कमी तो नहीं रह गई। 2 साल में हम फॉलोअप करके उन्हें सफलता दिलाएंगे। एक बार फल लगने पर और आमदनी होने पर लोग पटरी पर दौड़ने लगेंगे।
उत्तराखंड इस होड़ में पीछे क्यों?
विक्रम सिंह रावत बताते हैं कि सेब उत्पादन में हिमाचल और कश्मीर के साथ अगर उत्तराखंड की तुलना की जाए तो यहां किसी चीज की कमी नहीं है। सब जगह का पोटेंशियल एक समान है। लेकिन दुर्भाग्य यह था कि उत्तराखंड में सेब के उत्पादन को बढ़ावा नहीं दिया गया। बहुत कम लोगों को पता होगा कि जब हिमाचल में सेब के बागान लगने शुरू हुए थे तो उसी समय उत्तराखंड के रामगढ़, कुमाऊं में चौपटिया आदि जगहों पर सेब लगाए गए थे। ऐसे में हम कह सकते हैं कि दोनों राज्यों में सेब लगाने की शुरुआत अंग्रेजों के समय में लगभग एक साथ हुई थी।
विक्रम बताते हैं कि 2016 में उत्तराखंड आया तो मुझे लगा कि यहां जितने भी खेत हैं, उन पर जंगल फैल रहा है। यानी प्रदेश में खेती योग्य भूमि कम हो रही है। उन्होंने बताया कि हिमाचल प्रदेश में सेबों की आधुनिक खेती होती है। ऐसे में 2016 से उन्होंने उत्तराखंड में भी कुछ वैसा करने की सोची। वह बताते हैं कि हिमाचल में भी सेब की खेती पारंपरिक तरीके से होती थी, उन्होंने ही वहां नई शुरुआत की।
हिमाचल में करीब 20 हजार लोग हैं, जो विक्रम को फॉलो करते हैं या उनके फार्म में आकर प्रशिक्षण लिया, देखा और प्रोत्साहित होकर अपने-अपने जगह पर काम करने लगे। उसी मॉडल को उत्तराखंड में अपनाने की शुरुआत की गई। यहां सबसे पहले पौड़ी जिले के अलग-अलग इलाकों में एक-एक मॉडल फार्म हम लगा रहे हैं। 2-3 साल तक उसमें कोई परिणाम नहीं दिखता। उसके बाद उसमें फल लगना शुरू होता है और फल से आमदनी मिलती है।
उत्तराखंड में कुछ इलाकों में कम ऊंचाई होने के कारण सेब नहीं होते हैं तो वहां के लिए भी हमने अखरोट, खुमानी, नाशपत्ती आदि की खेती में भी काम कर रहे हैं। इसी साल हमने देहरादून में हरिद्वार रोड के पास नर्सरी तैयार की है, जहां 90 हजार पौधे लगाए हैं। यहां से ही करीब 6 लाख पौधे तैयार कर पहाड़ों पर भेजा करेंगे।
उत्तराखंड में 4500 मीटर से ज्यादा की ऊंचाई वाले इलाकों में सेब आसानी से हो सकता है। सेब की अलग-अलग वेरायटी भी है। जहां धूप लगती है, जहां पानी है, जहां पानी नहीं है, ऐसी जगहों के लिए अलग-अलग सेब के विकल्प हैं।
उत्तराखंड के पहाड़ों पर लोगों को सूअर, बंदर या लंगूर का डर रहता है कि वे बागानों को नष्ट कर देंगे। विक्रम सिंह ने कहा कि एक बार जब सेब लगने लगेंगे और किसानों को जब यह एहसास होगा कि उनका 1-2 लाख रुपये उन पेड़ों में है तो वह आसानी से चौकीदारी कर सकता है और इसमें ज्यादा समय तक देखभाल की जरूरत नहीं होती है। अप्रैल के पहले सप्ताह में फल लगता है और जुलाई-अगस्त में टूट जाता है। इस तरह से कुल चौकीदारी 4 महीनों की है।
अगर कोई किसान करना चाहे शुरुआत तो कितना खर्च?
अगर कोई किसान पहाड़ में सेब के बागान लगाना चाहे तो उसे कितने रुपये जुटाने होंगे? इस सवाल पर विक्रम कहते हैं कि आपका योगदान 2 लाख 40 हजार रुपये है। उसे आप दो तरह से दे सकते हैं। पहला तो आप पैसे दे सकते हैं दूसरा आप खेतीबाड़ी में जो मजदूरी लगती है उसे खुद और अपने परिवार के साथ मिलकर करने की बात कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि जो ज्यादा खर्च आता है वह जमीन के समतलीकरण का होता है क्योंकि सेब के बागान के लिए अलग तरह से खेत को तैयार करना पड़ता है। खेत में गड्ढे लगाने पड़ते हैं। अगर ये सब काम परिवार कर लेता है तो उसे फायदा हो जाता है। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड के किसानों को समझना होगा कि सेब की खेती करने के लिए विजन की कमी हो सकती है पर पैसा या दूसरी कोई बाधा नहीं है।
अभी लोग सेब के खेतों में पैसा लगाने से डर रहे हैं और इसी डर को हमें निकालना है। हमारा मकसद है कि 2-3 साल में किसानों के अंदर यह आत्मविश्वास पैदा करना है कि सेब की खेती से उनका लाइफस्टाइल ऊपर उठेगा। आज के समय में उत्तराखंड के किसान परिवारों की आमदनी 5000 रुपये मासिक से भी कम है। वहीं हिमाचल में मढ़ाव गांव के एक परिवार की आमदनी 74 लाख रुपये है और वह सिर्फ सेब की वजह से है। यह गांव एशिया का सबसे धनी गांव है। उन्होंने कहा कि हिमाचल में कोई भी गांव होगा वहां का किसान सेबों से 2-4 लाख रुपये हर साल कमाता है।
बाजार पास होने का उत्तराखंड को एडवांटेज
उत्तराखंड से मार्केट भी नजदीक है। हिमाचल के किसी भी जगह से अगर माल को दिल्ली भेजना है तो 10-12 घंटे तो लगते ही हैं लेकिन उत्तराखंड के कुछ पहाड़ी इलाकों से तो हम 6 घंटे में भी दिल्ली पहुंच सकते हैं। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड में सेब ही एक विकल्प नहीं है, यहां ऑफ सीजन सब्जियां लगाएं तो अच्छी कमाई कर सकते हैं। जो सब्जियां गर्मियों में कहीं नहीं होती है, सिर्फ पहाड़ों पर हो सकती हैं तो उससे अच्छा बाजार पैसा मिल सकता है।
विक्रम बताते हैं कि हिमाचल में 2003 से किसानों के साथ मिलकर काम किया। 2007 में 450 किसान ऐसे थे जो सब्जी का काम कर रहे थे। जिस जगह पर हमने 50 किलो से शुरुआत की थी, वहां से आज 15 साल के बाद 10 टन सब्जी रोज निकलती है। वहां पहले सामान ढोने वाली कोई गाड़ी नहीं हुआ करती थी लेकिन आज की तारीख में 1000 से ज्यादा गाड़ियां उस छोटे से इलाके में मिलेंगी क्योंकि उनके पास काम है।
यह बदलाव हिमाचल में आ चुका है और हम उम्मीद करते हैं कि उत्तराखंड में भी आएगा। हम पूरी तरह से संकल्पबद्ध हैं और 2-3 साल में परिणाम दिखने लगेंगे। हमने पौड़ी में पटेलिया फार्म बनाया है, जो सरकारी फार्म था। 15 साल से वह बेकार पड़ा था तो हमने पिछले 8-9 महीने में पूरा काम करवाया। लोग अब वहां जाकर देखने और समझने लगे हैं। हम वहां आसपास के किसानों को बुलाते हैं, खेत में पौधे दिखाते हैं और समय के हिसाब से सेबों की ग्रोथ बताते हैं। सेब की बीमारियां यहीं नहीं है और अगर हम थोड़ी सी कोशिश करते हैं तो अच्छी सफलता हासिल कर सकते हैं। अब मकसद यही है कि उत्तराखंड में भी सेब के बागान लहलहाएं।
विक्रम सिंह रावत का पैतृक गांव पौड़ी जिले से 17 किमी दूर कलुन है। उनके पिता लगभग 60 के दशक में उत्तराखंड से पलायन कर हिमाचल चले गए थे। विक्रम का जन्म, पढ़ाई-लिखाई और शादी हिमाचल में ही हुई। 2003 में उन्होंने मंडी जिले में कलासन पंचायत में जमीन खरीदी। वहां जमीन लेकर बागान लगाने का मकसद हिमाचल के लोगों को प्रशिक्षण देना था, जिससे वे सेब की पारंपरिक खेती से हटकर आधुनिक खेती शुरू करें ताकि जल्दी हमें फल मिलना शुरू हो जाए।
6 comments
6 Comments
Bhawan singh rawat
September 29, 2020, 11:13 pmसर प्रणाम, बहुत आवश्यक व ज्ञानवर्धक जानकारी। क्या यह योजना चमोली जिले मे भी है। सर पौडी के जिलाधिकारी बहुत मेहनती, नये नये कार्य करना चाहते। वे सच्चे पहाड़ प्रेमी है।
REPLYPradeep joshi
September 30, 2020, 5:07 pmमेहनत के फल मीठे- मीठे !
REPLYManish ingle
September 30, 2020, 7:50 pmVery excellent information shared.
REPLYचन्द्र बल्लभ ढौंडियाल@Manish ingle
October 10, 2020, 12:05 pmअत्यंत महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध करवाई है आपने। हार्दिक आभार, धन्यवाद।
REPLYक्या चमोली जिले के कर्णप्रयाग विकास खण्ड में सेव की खेती हो सकती है? कृपया कुछ विस्तृत रूप में जानकारी उपलब्ध करवाने की कृपा करें।
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