जी रया, जागि रया…. उत्तराखंड मना रहा हरेला त्योहार, जानें क्यों और कैसे मनाया जाता है प्रकृति प्रेम का यह उत्सव

जी रया, जागि रया…. उत्तराखंड मना रहा हरेला त्योहार, जानें क्यों और कैसे मनाया जाता है प्रकृति प्रेम का यह उत्सव

उत्तराखंड ही नहीं, यहां के लोग देश और दुनिया में जहां भी हैं आज हरेला उत्सव मना रहे हैं। कोरोना काल में ऑक्सीजन की कमी का संकट रहा हो या शहरों से संक्रमण के डर के चलते गांवों की तरफ आए लोग इस उत्सव की महत्ता को और भी समझने लगे हैं। आइए जानते हैं पूरी बात…

जी रया-जागि रया की भावना के साथ उत्तराखंड का लोकपर्व हरेला आज पारंपरिक तरीके से मनाया जा रहा है। सदियों से प्रकृति और पर्यावरण के प्रति अटूट प्रेम और संरक्षण का संदेश देने वाला यह त्योहार मनाया जा रहा है लेकिन कोरोना काल में इसकी महत्ता लोगों को और ज्यादा समझ में आई है। शायद यही वजह है कि यह त्योहार देवभूमि से बाहर निकलकर अब कई राज्यों में मनाया जाने लगा है।

आज के दिन अच्छे पकवान तो बनते ही हैं, साथ में पौधे लगाए जाते हैं। प्रकृति और पौधों की पूजा कर प्राणवायु देने वाली कुदरत की इस देन का शुक्रिया अदा किया जाता है। सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी समेत कई वरिष्ठ नेताओं, मंत्रियों के साथ-साथ आम लोग भी हरेला पर्व की शुभकामनाएं दे रहे हैं।

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सीएम धामी ने लिखा- प्रकृति को समर्पित उत्तराखंड के लोक पर्व ‘हरेला’ की समस्त प्रदेशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं। आइए, पर्यावरण संरक्षण का पवित्र संदेश देते हुए हमारे पूर्वजों द्वारा प्रारंभ किए गए हरेला पर्व की परंपरा को आगे बढ़ाने और प्रकृति को हरा-भरा बनाने का संकल्प लें।

आइए हरेला पर्व के महात्म्य को समझने की कोशिश करते हैं। हरेला का अर्थ होता है हरियाली। वैसे तो यह सालभर में तीन बार मनाया जाता है पर श्रावण मास में पड़ने वाले हरेला का ज्यादा महत्व होता है। वजह भी साफ है सावन की बारिश में धरती पर हर तरफ हरियाली दिखाई देती है। सदियों से कृषि प्रधान भारत देश में अच्छी वर्षा और अच्छी कृषि के लिहाज से हरेला पर्व मनाया जाता रहा है।

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थाली या टोकरी में हरेला बोया जाता है। मिट्टी डालकर गेहूं, धान, जौ, उड़द, सरसों आदि 5 या 7 प्रकार के बीज बोए जाते हैं। 9 दिन तक रोज पानी छिड़का जाता है। दसवें दिन इसे काटा जाता है। इन छोटे-छोटे पौधों को भी हरेला कहा जाता है। इसे पारंपरिक तरीके से परिवार के सभी सदस्यों के कान या सिर पर रखा जाता है और यह गाया जाता है-

लाग हरेला लाग दसें लाग बगवाल
जी रये जागि रये, धरती जतुक चाकव है जये….

आशीर्वाद की भावना रहती है कि हरियाली आपको मिले जीते रहो, जागरूक रहो। पृथ्वी के समान धैर्यवान, आकाश के समान विशाल बनो, सिंग के समान बलशाली, सियार की तरह तेज बु्द्धि हो, दुर्वा की तरह पनो, इतने दीर्घायु हो कि भात भी पीस कर खाना पड़े।

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संघ के प्रचारक से समझिए इसका महत्व

सबसे बड़े सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के ब्रज प्रांत क्षेत्र के प्रचारक डॉ. हरीश रौतेला समझाते हैं कि आखिर हरेला हम सबके लिए इतना जरूरी क्यों है। डॉ. रौतेला कहते हैं कि हरेला एक ऐसा त्योहार है जो हिमालय से निकलकर पूरी दुनिया को एकात्म कर देने का संदेश देता है। हरेला का मतलब क्या है, संपूर्ण प्रकृति हरी-भरी रहती है तो उसके चलते देश खुशहाल होता है। उत्तराखंड में ऋषियों-मुनियों ने हरेला क्यों बनाया, यह समझने की जरूरत है। गंगा, गंगा क्यों बनती है क्योंकि गंगा में एक विषाणु होता है, जिसके चलते उसमें दूसरा कोई विषाणु टिक नहीं पाता। इसीलिए हिमालय से निकलने वाली गंगा वैसी ही बनी रहती है। वह जो विषाणु है, वह निश्चित जलवायु में होता है। अगर तापमान बढ़ेगा तो मुश्किल होगी। हरेला के कारण सारा हिमालय हरा-भरा रहना चाहिए। वहां ठंडक बनी रहनी चाहिए।

दूसरा, हरेला ऐसी चीज है, अगर आप शरीर को अच्छा करना चाहते हैं। शरीर पंचतत्वों से बना है, शरीर के एक तिहाई हिस्से में फलों का होना जरूरी है। उतना अन्न, उतना फल, उतना जल। अब ये कब होगा जब उत्पादन अधिक होगा। इसलिए हरेला के तहत फलदार वृक्षों का रोपण, छायादार पौधों का रोपण, शिव के बेलपत्रों का रोपण किया जाता है। वह कहते हैं कि अगर पंडित जी ग्रह दशा सही करने के लिए कुछ पहनने को कहते हैं और आप नहीं पहनना चाहते तो 27 पेड़ भी होते हैं जो ग्रहदशा सही करते हैं। उसे नक्षत्र वाटिका होते हैं। 27 नक्षत्रों के नाम से होते हैं और आपके गुणों को ठीक करते हैं। इसी कारण से हरेला नाम का त्योहार बनाया है।

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