हिल-मेल और ओहो रेडियो की विशेष पेशकश ‘बात उत्तराखंड की’ में हमारे साथ जुड़े नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के प्रिंसिपल और एवरेस्ट शिखर को छूने वाले कर्नल अमित बिष्ट। कोरोना काल में उन्होंने कई चोटियों पर सफलतापूर्वक चढ़ाई की है। उत्तराखंड में पर्वतारोहण की संभावनाओं, मौजूदा चुनौतियों और साहसिक खेलों के भविष्य पर अर्जुन रावत और आरजे काव्य से हुई खास बातचीत के कुछ अंश-
यह सबके लिए गर्व का समय है जिस तरह से कोरोना काल-2 में ही नहीं वन में भी आपने समिट किए, आपका अनुभव कैसा रहा ?
वास्तव में इस साल जो माउंट एवरेस्ट फतह किया गया, जितने भी माउंटेनियर्स थे, सभी के लिए थोड़ा अलग अनुभव रहा, क्योंकि सबसे पहले कोरोना का पूरे विश्व में खतरा बना हुआ था और दूसरा इस पूरे समय के दौरान दो साइक्लोन आए। वैसे मई के महीने में इतने साइक्लोन आते नहीं हैं। हम सोच रहे थे कि मई के महीने में इतनी गर्मी नहीं पड़ी लेकिन जब यह स्नोफॉल हुआ, तो वहां पर बहुत ज्यादा बर्फ थी। उसका लेवल 4 से 5 फीट बढ़ गया। थोड़ा सा चैलेंज था स्नोफॉल, खराब मौसम और कोरोना काल।
जब कोई भी पर्वतारोही एवरेस्ट के शिखर पर होता है तो उसके मन में क्या फीलिंग होती है?
जब हम टॉप पर पहुंचते हैं तो यह कई साल की मेहनत होती है। आमतौर पर कैंप 2 में लोग ज्यादा से ज्यादा दो से तीन दिन रुकते हैं, लेकिन हमने वहां दस दिन तक इंतजार किया। अमूमन 27, 28 को समिट समाप्त हो जाता है। सब वापस आ जाते हैं। रोप खुल जाती है और ऑफिसिअली बता दिया जाता है कि 27-28 को समिट समाप्त हो गया, लेकिन इस साल हम 29 तक वहीं जमकर बैठे रहे। इससे मैसेज आ रहा था कि 30 को समिट समाप्त हो रहा है और हम लोग वहां से वापस आ रहे हैं, अब रोप खोल रहे हैं और हम वहां डटे रहे। हमने कहा कि हम बिना चढ़े नीचे नहीं जायेंगे। इसके बाद हम पहली जून को चढ़े, दो महीने से जो एवरेस्ट चढ़ने में लगे हुए थे, वहां पहुंचने के बाद जो फील आता है, वह बयान नहीं किया जा सकता। जब हम लोग तिरंगा को फहराते हैं तो सारी थकान निकल जाती है। पूरी देशभक्ति टीम में आ जाती है और मन करता है कि कुछ समय वहीं डटे रहें, चारों तरफ देखकर बहुत अच्छा लगता है। वहां का नजारा मंत्रमुग्ध कर देता है। यही सोचते हैं कि बस यही पल है, इसे खुलकर जियो।
जब आप एवरेस्ट जैसी चोटी को छूते हैं, तो आपको शाबाशी देने के लिए वहां कोई नहीं होता, वहां बस प्रकृति है, आप उसी को सुनते हैं कि वह क्या सिगनल दे रही है? क्या ऐसा कुछ आपने महसूस किया?
1953 में सर एडमंड हेलेरी ने एवरेस्ट फतह किया। जब उनसे पूछा गया तो उन्होंने कहा कि हम तो भगवान से यही प्रार्थना करते हैं कि जितने भी पर्वतारोही वहां चढ़ते हैं, उनको वहां से सही तरीके से वापस भेज देना। वहां चढ़कर एक अलग फीलिंग होती है। देखो मैं आपको एक डाटा बताता हूं कि अभी तक यहां विश्व के 4 हजार से ज्यादा पर्वतारोही हैं, जिन्होंने यह समिट पूरा किया है। भारत से अभी तक 400 से ज्यादा लोगों ने एवरेस्ट समिट पूरा किया है। यहां चढ़ने के बाद फीलिंग आती है कि आप कुछ भी कर सकते हो। अगर सच्ची लगन हो और कठिन परिश्रम किया जाए तो कुछ भी असंभव नहीं है।
आमतौर पर जब हम प्रिसिंपल की बात करते हैं तो एक अलग छवि होती है, आप निम के प्रिसिंपल हैं, जब आप एवरेस्ट समिट करके वहां पहुंचे, तो कैसे स्वागत हुआ?
मैं यह मिथक तोड़ना चाहता हूं कि प्रिसिंपल एक बूढ़ा आदमी ही हो सकता है। आपका जीवन में कोई भी शौक हो चाहे ट्रैकिंग का हो, माउंटेनियरिंग का हो और कुछ भी हो सकता है। जब तक आप अकेले हैं तो आपको पता है कि जिस दिन तक मैं पहाड़ चढ़ रहा हूं तक तक मैं यहां रहूंगा। जिस दिन मेरा पहाड़ चढ़ना बंद हो जाएगा, उस दिन मेरा जुनून बंद हो जाएगा। जब तक जुनून है, आप जिंदा हैं। इसलिए अपने जुनून को हमेशा जीवित रहने दें। जब हमने 28 मई को बेस कैंप छोड़ा था तो हमारे पास 1 जून तक कोई कम्यूनिकेशन नहीं था। सब लोग चिंता करने लगे कि यह टीम कहां गायब हो गई। इस साल 415 लोगों ने एवरेस्ट चढ़ने के लिए आवेदन किया था। चीन के रोक लगाने के बाद सभी एक्सपीडिशन नेपाल की तरफ से हो रहे थे। साइक्लोन और कोविड के बाद इस साल 177 लोगों ने एवरेस्ट को समिट किया। पिछले कुछ साल में 300 से 400 लोग एवरेस्ट को समिट कर लेते। जब हम नीचे आए तो सबको पता चल कि 1 जून को हम लोगों ने एवरेस्ट समिट कर दिया है। सबसे पहले तो जब हम काठमांडू पहुंचे तो वहां पर भारत के राजदूत ने हमारा स्वागत किया। वह बड़े खुश थे कि पूरे विश्व के पर्वतारोही हारकर आ रहे हैं और भारत के पर्वतारोहियों ने वहां जाकर अपना झंडा गाड़ दिया है। अभी तक एवरेस्ट की जो ऊंचाई है वह 8848 मीटर है। लेकिन इस साल इसकी ऊंचाई थी 8848.86 मीटर। इस साल प्वाइंट 86 अतिरिक्त ऊंचाई थी। उसके बाद दिल्ली आए तो वहां स्वागत हुआ। निम ने काफी माउंटेनियर दिए हैं। एक बात आपको बताऊं कि उत्तरकाशी जिले से 21 पर्वतारोही हमने दिए हैं। अगर भारत से 400 लोगों ने एवरेस्ट चढ़ा तो उत्तरकाशी से 21 लोगों ने एवरेस्ट चढ़ा। निम में भी हमारा स्वागत किया गया। उसके बाद हम दिल्ली गए तो वहां भी देश के रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने पूरी टीम का स्वागत किया। उन्होंने वहां पर मास्क के साथ सबका फोटो लिया। वह हम लोगों से इतने खुश हुए कि आप हमारे वीर हो, आपसे हमको कोरोना नहीं होगा। अपने मास्क हटाओ और फिर हम लोगों ने मास्क हटाकर फोटो ली। यह कुछ हमारी न भूलने वाली यादें थीं।
आपने पूरे एवरेस्ट समिट को बड़ा यादगार बना दिया? आपके कई वीडियो आ रहे थे, क्या यह सब पहले प्लान कर लिया था ?
जब किसी भी खेल को लुत्फ उठाकर खेलो तो उसमें रिजल्ट बहुत अच्छे आते हैं। मैंने जम्पिंग भी किया लेकिन माउंटेनियरिंग मेरा जुनून है। हमने इस पूरे एक्सपीडिशन को इंजाय के साथ किया है। हम लोग यह सोचकर नहीं चले कि यह हमसे होगा कि नहीं। जब भी कोई वहां माउंटेनियरिंग करता है तो उसका खर्चा 25 से 30 लाख रुपये होता है और जो बड़ी कंपनियां होती हैं तो वे तो 70 से 80 लाख तक भी खर्च करती हैं लेकिन यह चीजें तो सब अलग हैं, लेकिन हमने जाते हुए केवल इंजाय किया। हमने पहले दिन से सोच लिया था कि हम इस समिट को इंजाय के साथ करेंगे। हमने अभ्यास करने में कोई कमी नहीं छोड़ी, लेकिन जब अभ्यास हो जाता था तो तब हम खूब इंजाय करते थे, डांस करते थे।
क्या यह समिट ग्रुप में ही किया जाता है या अकेले भी इसको कर सकते हैं और उसका खर्च क्या होता है?
नेपाल में एवरेस्ट को बहुत प्रमोट करते हैं। एवरेस्ट उनके लिए एक त्यौहार है। जब एवरेस्ट सीजन चल रहा होता है तो पूरे नेपाल की एकाग्रता उसमें होती है। एवरेस्ट ने नेपाल की इकॉनमी को संभाल रखा है। लेकिन भारतीय मोलभाव करके सबसे कम में समिट करते हैं। भारत सरकार भी माउंटेनियर को बहुत ज्यादा प्रमोट करती है। इस साल भी हमारे यहां से कई लड़कियों ने एवरेस्ट चढ़ा। जो भी माउंटेनियरिंग करना चाहता है, वह अपना बायोडाटा सरकारी एजेंसियों को भेजे, सरकार उनकी मदद जरूर करेगी। देश की बड़ी-बड़ी कम्पनियां भी, अपने सीएसआर फंड से ऐसे काम करती रहती हैं। जो भी माउंटेनियर होते हैं, उन सबकी इच्छा होती है कि वे एवरेस्ट चढ़ें, उन सभी को मेरी शुभकामनाएं।
नेपाल सरकार से उत्तराखंड सरकार को क्या-क्या सीखना चाहिए या कहें कि क्या काम करने की जरूरत है?
हमारे यहां 7000 मीटर की 15 चोटियां हैं। आपको विश्वास नहीं होगा कि हिमाचल में एक भी नहीं है। कुछ गढ़वाल में हैं, कुछ सिक्कम में हैं। उत्तराखंड में ऐसे कई पर्वत हैं, जहां अभी तक कोई नहीं गया। विदेशी यहां जाने की कोशिश करते हैं लेकिन अभी हमारी पॉलिसी ठीक नहीं हैं। हमने अभी उत्तराखंड टूरिज्म डेवलपमेंट बोर्ड के साथ एक एमओयू साइन किया है। उसमें हमने कहा है कि यहां का जो यूथ है, उनको एनआईएम में ट्रेनिंग देंगे और यहां की ऊंची-ऊंची चोटियों को ढ़ूंढने के लिए कहेंगे। हमारे यहां जब बाहरी टूरिस्ट आएगा तो इन बच्चों के पास उन्हें बताने के लिए कुछ होगा। उन स्थानों के बारे में पुराना इतिहास बता सकेंगे। इससे यह लगेगा कि उन लोगों के साथ एक प्रोफेशनल माउंटेनियर जा रहा है। जो टूरिस्ट होता है उसे डर लगा रहता है कि अगर मैं कहीं गिर गया तो मुझे वहां से कौन निकालेगा तो यह जो टीम होगी, ये एक क्वालीफाइड टीम होगी। इससे टूरिस्ट को लगेगा कि मेरे साथ एक प्रोफेशनल गाइड जा रहा है। तो यह सब चीजें बहुत मायने रखती हैं और यह चीजें टूरिज्म को प्रमोट करने के लिए जरूरी हैं।
दूसरा टूरिज्म को प्रमोट करने के लिए हमने पिछले साल उत्तरकाशी में एक टूरिज्म समिट कराया था। उसमें हमारे पूर्व सीएम साहब भी आए थे। उसमें हमने एक-एक चीज पर सिंगल विंडो सिस्टम पर ध्यान देने को कहा था। सिंगल विंडो का मतलब अगर बाहर से कोई दल आता है तो उसे एक ही जगह पर सब सुविधाएं मिले। वो बेचारा तो पहले आईएमए दिल्ली जाता है और वहां से परमीशन लेता है और फिर हमारे यहां आता है। हमारे यहां टूरिस्ट को एक फीस देनी पड़ती है। यह फीस तो सरकार डिसाइड करती है कि कितना देना है। हमारा ये मानना है कि अगर कोई टूरिस्ट हमारे उत्तराखंड में आता है तो उससे एक ही जगह पर हर जगह जाने की फीस ले लेनी चाहिए। वहीं से उसको गाइड की सुविधा दे दी जाए और वह अपनी चढ़ाई करे। यहां पर जब कोई क्लाइंबर आता है तो उसे एक हफ्ता तो यही सब करने में लग जाता है और फॉरेस्ट का अपना प्रोसीजर है, उसे जल्दी से किया जाना चाहिए।
कोरोना पीरियड में भी आपने कई ऊंची-ऊंची चोटियों पर चढ़ाई की, उनके बारे में कुछ बताइए?
मुझे उत्तराखंड आने के बाद इन चोटियों पर चढ़ने के कई अवसर मिले। पिछले साल हमने देखा कि कोर्सेस नहीं चल रहे हैं तो अपनी फिटनेस को सही रखने के लिए यहां की कई पीकों के बारे में जानकारी ली और आईएमए से भी बात की। लिस्ट भी निकाली। उसके बाद हमने देखा कि उत्तराखंड में बहुत सारी पीक हैं, जो कि अभी तक अनचार्टेड और अनक्लाइंब हैं तो हमने अपनी टीम को तैयार किया और इस एरिया को एक्सप्लोर किया। एक बात इसमें ध्यान देने वाली है कि जो पीक हैं, इनके नंबर नहीं हैं। अगर हमको पीक पर चढ़ना है तो हम यह भी कहेंगे कि हमने 7500 की ऊंचाई वाली चोटी को फतह किया। जब तक उसका कोई नाम नहीं होगा तो यह हम लोगों को याद नहीं रहेगा, तो हमने इनको एक नाम देने का काम किया। हमने हर्षिल की चोटी चढ़ी तो हमने उसका नाम हर्षिल होर्न रख दिया। पतंजलि भी कई चोटियों पर चढ़ना चाहती है और वह जानना चाहती है कि इन चोटियों में क्या-क्या जड़ी बूटियां हैं, अभी यह पता नहीं है कि वहां पर क्या-क्या मिल सकता है। हम अभी जो चोटियां चढ़ रहे हैं, उनका नाम पतंजलि या चरक रख सकते हैं। योग में उनका नाम है, हमारे आयुर्वेद में नाम है, इसलिए हम चाहते हैं कि उन चोटियों का नाम इनके नाम पर रखें। दूसरा हमारे साथ जो साइंटिस्ट जाएंगे उनको वहां पर कई प्रकार की जड़ी बूटी या कुछ और नई चीज मिल जाए और इससे कितने लोगों को भला हो जाए। ये ऐसे कुछ हमारे प्रोजेक्ट चल रहे हैं। हम जो भी चोटियां चढ़ रहे हैं, उनकी मैपिंग कर रहे हैं और उनको गूगल में डालकर लोगों को शेयर कर रहे हैं जिससे अगर कोई उन चोटियों पर आना चाहे तो उन्हें ज्यादा परेशानी न हो।
आपकी ओर से एक और पहल हुई थी कि निम में डिप्लोमा कोर्स की शुरुआत, उसके बारे में कुछ बताइए?
माउंटेनियरिंग के अभी शार्ट कोर्सेस चलते हैं। हमारे यहां भी चल रहे हैं। एडवांस कोर्स ज्यादा से ज्यादा 28 दिन के होते हैं। उसके बाद सर्च एंड रेस्क्यू का एक ऐसा कोर्स है, जो डिजास्टर मैनेजमेंट, एनडीआरएफ और एसडीआरएफ के लिए जरूरी होता है। हमने हाल ही में 18 नए डीएसपी को 21 दिन का कोर्स कराया है। पहली जुलाई से 21 जुलाई तक। उत्तराखंड में दैवीय आपदाएं आती रहती है तो उत्तराखंड सरकार को लगा कि हमको ये कोर्स कराने चाहिए तो हमने ये कोर्स कराए। ऐसा कोर्स करके इन लोगों को ऐसी आपदाओं में राहत एवं बचाव कार्य करने में काफी मदद मिलती है। हमारे यहां 2023 तक कोर्स बुक हो रखे हैं। हमने कुछ कोर्स की कैपेसिटी भी बढ़ाई है। मुझे देश-विदेश से बहुत सारी मेल आईं कि डिप्लोमा करना है। रेगिस्तान में तो माउंटेनियरिंग के कोर्स नहीं हो सकते, यह सिर्फ हिमालयन कंट्री और यूरोपीयन कंट्री में होंगे। लोग हिमालय में आना चाहते हैं क्योंकि हिमालय की अपनी शान है उसके अपने अलग चैलेंज हैं। मुझे काफी मेल आई तो फिर हमने पुणे यूनिवर्सिटी से टाईअप किया कि अब हम उनको एक साल का कोर्स सिखाएंगे और 6 महीने का डिप्लोमा कोर्स। यह भारत में अपनी तरह का पहला कोर्स है। यह कोर्स और जगह बहुत कम होता है। इससे कोर्स का लेवल काफी बढ़ जाएगा। आप सोचिए कि जो कोर्स 28 दिन का होता था, वह अब एक साल का हो गया है।
कम उम्र के बच्चों का एवरेस्ट चढ़ने का रिकॉर्ड भी टूट रहा है, आपको क्या लगता है कि आने वाले समय में किस उम्र के बच्चे इस रिकॉर्ड को तोड़ सकते हैं?
जहां तक मेरा मानना है कि माउंट एवरेस्ट पर चढ़ने में सबसे कम 13 साल के बच्चे ने सफलता पाई है। मुझे नहीं लगता कि इससे छोटे बच्चे वहां चढ़ पाएंगे। एवरेस्ट पर चढ़ने के लिए, शरीर अच्छी तरह से बना होना चाहिए। मुझे नहीं लगता कि 12 या 13 साल से छोटी उम्र का बच्चा इन चोटियों पर चढ़ पाएगा।
निम का उत्तरकाशी के पूरे क्षेत्र में बहुत प्रभाव है, क्या आप कुछ नया मोडिफिकेशन करना चाहते हैं ?
मैं चाहता हूं कि एनआईएम लैंड एक्टिविटी और एडवेंचर स्पोर्ट्स का हब हो। मैं चाहता हूं कि यहां पर माउंटेन बाइकिंग को शुरू करें और स्पोर्ट्स बाइकिंग की तो हमने काफी आधारभूत संरचनाएं विकसित कर दी हैं। मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि जो नेशनल चैम्पियनशिप होगा, उसमें उत्तरकाशी जरूर विजयी होगा। मैने उत्तराखंड सरकार को एक प्रपोजल भेजा था, मुझे ऐसे बच्चे चाहिए जो गांव में बकरियों के पीछे दौड़ रहे हैं, शिक्षा नहीं ले पा रहे हैं। मैं चाहता हूं कि मुझे 10-15 ऐसे बच्चे मिले जो घर में पढ़ नहीं पा रहे हैं। उनको मैं 12वीं तक की शिक्षा दिलाऊं। तो मैं यह जरूर कह सकता हूं कि अगले 5 साल में वह नेशनल चैम्पियन बनकर जरूर निकलेंगे।
निम का आपदा में एक अहम रोल होता है, इस दिशा में और क्या किया जा रहा है?
असल में हमारा असली रोल तो बच्चों को ट्रेनिंग देना और उनके कौशल से शक्ति प्रदान कराना है। माउंटेनियरिंग को अपना शौक बनाएं लेकिन हम उत्तराखंड में हैं और यहां पर आपदाएं भी आती रहती हैं। निम का केदारनाथ के पुनर्निर्माण में एक अहम रोल रहा है। मेरे से पहले निम के प्रिसिंपल कर्नल अजय कोठियाल ने केदारनाथ में बहुत काम किया। केदारनाथ में जो काम 7-8 साल में होता वह काम उन्होंने बहुत कम समय में करके दिखाया। लेकिन अभी उत्तराखंड बनने के बाद एसडीआरएफ की दो बटालियनें गठित की गई हैं, उनका अभ्यास निम में हुआ है। मैं चाहता हूं कि जब भी कोई आपदा आए तो वहां पर एसडीआरएफ या जो भी राहत कार्य करने वाले लोग हैं, वे तुरंत पहुंचे। मैं चाहता हूं कि इसके लिए हमारे पास एक हेलीकॉप्टर होना चाहिए जिससे हम लोग आपदा के तुरंत बाद घटनास्थल तक पहुंच सकें, क्योंकि बाइरोड़ पहुंचने में काफी समय लग जाता है और उस समय तक कई लोगों की जान चली जाती है। हमारी टीम भी हमेशा तैयार रहती है। हमने डाक्टरों की टीम के साथ भी एक एमओयू साइन कर रखा है कि जब भी कोई आपदा होगी तो वो तुरंत घटनास्थल पर पहुंचेंगे।
1 comment
1 Comment
Padmini Jog
August 21, 2021, 12:06 pmCol.Bhist Sir , Heartiest Congratulations to you and your team. A wonderful and very creditable achievement. I am proud of you.
REPLYMay you be happy healthy and full of life now and always. You have made India proud. With lotsof love regards and respect.