गरतांग गली की ये सीढ़ियां इंजीनियरिंग का नायाब नमूना है और इंसान की ऐसी कारीगरी और हिम्मत की मिसाल देश के किसी भी अन्य हिस्से में देखने के लिए नहीं मिलती। पेशावर से आए पठानों ने 150 साल पहले इस पुल का निर्माण किया था। आजादी से पहले तिब्बत के साथ व्यापार के लिए उत्तकाशी में नेलांग वैली होते हुए तिब्बत ट्रैक बनाया गया था।
एक समय में भारत और तिब्बत के बीच का व्यापार मार्ग रही उत्तरकाशी की प्रख्यात गरतांग गली एक बार फिर खुल गई है। इस बार यहां हुआ लकड़ी का काम लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है। गरतांग गली का इतिहास करीब 300 साल पुराना है और लगभग 60 साल पहले इसे बंद कर दिया गया था। करीब 11 हजार फुट की ऊंचाई पर बनी गरतांग गली की 150 मीटर लंबी सीढ़ियों का पुनर्निर्माण किया गया है। यह पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के पसंदीदा प्रोजेक्ट में से एक रहा है। यहां का काम पूरा होने के बाद वह खुद गरतांग गली पहुंचे।
त्रिवेंद्र सिंह ने बताया कि सीएम रहते जब यह विषय मेरे सामने आया तो मुझे लगा कि हमें इस स्थल को विकसित करना चाहिए और इसे आम पर्यटकों के लिए भी खोलना चाहिए। पर्यटकों के लिए गरतांग गली की यात्रा बेहद रोमांचक होगी। जब मेरे संज्ञान में आया कि इसका काम पूरा हो चुका है तो मुझे लगा इस खूबसूरत जगह का अनुभव खुद चलकर करना चाहिए। यहां की यात्रा करना एक अलग अनुभव होगा। पूर्व सीएम त्रिवेंद्र सिंह ने आईटीबीपी, फॉरेस्ट और सेना के जवानों के साथ गरतांग गली की सीढ़ियां चढ़ी। उन्होंने कहा कि यहां बहुत अच्छा काम किया गया है। उन्होंने गरतांग गली को पुनर्जीवित करने और इसे नया रूप देने के लिए इसके निर्माण में लगे सभी लोगों को शुभकामनाएं भी दी।
त्रिवेंद्र सिंह ने कहा कि हमारी चिंता होती है कि शीतकालीन पर्यटक उत्तराखंड में नहीं आ रहा है। शीतकालीन पर्यटक की दृष्टि से भी यहां पर ‘स्नो लेपर्ड पार्क व्यू’ स्थापित किया जा रहा है, जो लगभग 8 करोड़ रुपये की लागत से बनेगा। उन्होंने कहा कि भाजपा सरकार की कोशिश है कि शीतकालीन पर्यटक के साथ ही हाई एंड टूरिस्ट भी देवभूमि उत्तराखंड में आए। निश्चित रूप से यह स्नो लेपर्ड पार्क व्यू भी आकर्षण का केंद्र बनेगा। इससे एक ओर जहां हमारे पर्यटक बढ़ेंगे वहीं सैकड़ों स्थानीय लोगों को भी रोजगार मिलेगा। इसके साथ ही यहां मौजूद तमाम स्थल भी विकसित होंगे।
गरतांग गली की कहानी
गरतांग गली की ये सीढ़ियां इंजीनियरिंग का नायाब नमूना है और इंसान की ऐसी कारीगरी और हिम्मत की मिसाल देश के किसी भी अन्य हिस्से में देखने के लिए नहीं मिलती। पेशावर से आए पठानों ने 150 साल पहले इस पुल का निर्माण किया था। आजादी से पहले तिब्बत के साथ व्यापार के लिए उत्तकाशी में नेलांग वैली होते हुए तिब्बत ट्रैक बनाया गया था। इसमें भैरोंघाटी के नजदीक खड़ी चट्टान वाले हिस्से में लोहे की रॉड गाड़कर और उसके ऊपर लकड़ी बिछाकर रास्ता तैयार किया था। इसके जरिए ऊन, चमड़े से बने कपड़े और नमक तिब्बत से उत्तरकाशी के बाड़ाहाट पहुंचाया जाता था। इस पुल से नेलांग घाटी का रोमांचक दृश्य दिखाई देता है। यह क्षेत्र वनस्पति और वन्यजीवों के लिहाज से भी काफी समृद्ध है और यहां दुर्लभ पशु जैसे हिम तेंदुआ और ब्लू शीप यानी भरल रहते हैं। वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के बाद केंद्र सरकार ने उत्तरकाशी के इनर लाइन क्षेत्र में पर्यटकों की आवाजाही पर प्रतिबंध लगा दिया था और यहां के ग्रामीणों को एक निश्चित प्रक्रिया पूरी करने के बाद साल में एक ही बार पूजा अर्चना के लिए इजाजत दी जाती रही है। इसके बाद, 2015 से देश भर के पर्यटकों के लिए नेलांग घाटी तक जाने के लिए गृह मंत्रालय, भारत सरकार की ओर से इजाजत दी गई।
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