उत्तराखंड में बिखरे फूलदेई के रंग, प्रकृति से प्रेम की व्याख्या है पहाड़ों का ये लोकपर्व

उत्तराखंड में बिखरे फूलदेई के रंग, प्रकृति से प्रेम की व्याख्या है पहाड़ों का ये लोकपर्व

फूलदेई के दिन सुबह-सुबह छोटे-छोटे बच्चे अपनी रिंगाल की टोकरियों में बुरांश और फ्योंलि के फूल रख कर घर-घर जाते हैं। सबके दरवाजे पर फूल चढ़ाकर फूलदेई के गीत गाते हैं। फूलदेई छम्मा देई और लोग उन्हें बदले में चावल, गुड़ और पैसे देते हैं। देवताओं का स्वरूप बच्चे सभी की देहरी में फूल डाल कर समृद्धि की कामना करते हैं।

उत्तराखंड में आज पारंपरिक तरीके से फूलदेई का त्यौहार मनाया जा रहा है। इंसानों का प्रकृति से कितना गहरा नाता है, इसका एक जीवंत उदाहरण देखना हो तो वो आज का दिन है। जी हां, प्रकृति से प्रेम की व्याख्या है पहाड़ों में मनाया जाने वाला फूलदेई त्यौहार। बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक की इस त्यौहार से जुड़ी अपनी यादें हैं। पहाड़ों में बच्चों में फूलदेई उत्सव को लेकर काफी उत्साह है। सुबह की पहली किरण के साथ ही बच्चे बुरांश, भिटोर, फ्यूंली, आड़ू, खुमानी के फूल लेकर गांव में घर-घर की देहरी पूजने निकल पड़े।

उत्तराखंड की सभ्यता का प्रतीक पर्व है फूलदेई। आज जब घरों और मंदिरों की देहरी पर लाल और पीले फूल बिखेरे जा रहे हैं तो वहीं कुछ गांव ऐसे भी हैं जहां अजीब सी खामोशी छाई हुई है। उत्तराखंड से बड़ी संख्या में पलायन के कारण गांव वीरान होते जा रहे हैं।

फूलदेई के दिन सुबह-सुबह छोटे-छोटे बच्चे अपनी रिंगाल की टोकरियों में बुरांश और फ्योंलि के फूल रख कर घर-घर जाते हैं। सबके दरवाजे पर फूल चढ़ाकर फूलदेई के गीत गाते हैं। फूलदेई छम्मा देई और लोग उन्हें बदले में चावल, गुड़ और पैसे देते हैं। देवताओं का स्वरूप बच्चे सभी की देहरी में फूल डाल कर समृद्धि की कामना करते हैं।

उत्तराखंड के अलग-अलग हिस्सों में फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। कुछ जगह यह एक दिन का त्यौहार होता है। केदार घाटी में यह त्योहार 8 दिन तक मनाया जाता है। केदारघाटी में चैत्र संक्रांति से चैत्र अष्टमी तक यह त्योहार मनाया जाता है। बच्चे रोज ताजे फूल देहरी पर डालते हैं, मंगल कामना करते हुए ‘जय घोघा माता, प्यूली फूल, जय पैंया पात’ बोलते हैं

अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की डोली की पूजा और विदाई करके यह त्यौहार सम्पन्न करते हैं। वहां फूलदेई खेलने वाले बच्चों को फुलारी कहा जाता है। बच्चों को जो चावल और गुड़ मिलता है, उसके मीठे पकवान बनाए जाते हैं। कुमाऊं के कुछ क्षेत्रों में मीठे चावल और हलवा बनाने की परंपरा है।

गढ़वाल क्षेत्र में बच्चों को जो गुड़ और चावल मिलते हैं, उनका अंतिम दिन घोघा माता को भोग लगाया जाता है। घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता है। घोघा माता की पूजा केवल बच्चे ही कर सकते हैं। फुलारी त्योहार के अंतिम दिन बच्चे घोघा माता का डोला सजाकर, उनको भोग लगाकर उनकी पूजा करते हैं। उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में इसे फुलारी त्योहार के नाम से भी जाना जाता है।

 

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