टपकेश्वर…जहां अश्वत्थामा के लिए खुद महादेव ने दूध की धारा बहाई

टपकेश्वर…जहां अश्वत्थामा के लिए खुद महादेव ने दूध की धारा बहाई

हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड को देवभूमि के नाम से जाना जाता है। यह पुण्य भूमि कई देवी-देवताओं का निवास स्थान है। चार धामों वाला यह दिव्य क्षेत्र मनमोहक प्राकृतिक आकर्षणों, घने जगंलों और हिम पर्वतों से घिरा है। उत्तराखंड विश्व पटल पर भारत के प्रमुख धार्मिक केंद्रों का प्रतिनिधित्व करता है। उत्तराखंड को भगवान महादेव की तपस्थली कहा जाता है। यहां कई ऐसे शिवालय हैं जिनका इतिहास कई युगों पुराना है। कई का इतिहास रामायण, महाभारत काल से सीधा जुड़ा है। उत्तराखंड के देहरादून में एक ऐसा ही मंदिर है टपकेश्वर महादेव।

देहरादून में विराजमान भगवान टपकेश्वर महादेव के स्वयंभू शिवलिंग मंदिर की प्राकृतिक छटा निराली है। पहाड़ी गुफा में स्थित यह स्वयंभू शिवलिंग भगवान भोलेनाथ की महिमा का आभास कराता है। मंदिर के पास से बहती टोंस (तमसा) नदी की धारा द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा के तप और भक्ति की गाथा सुनाती है। देवेश्वर, दूधेश्वर, तपकेश्वर और टपकेश्वर…। पौराणिक मान्यता है कि आदिकाल में भगवान शंकर ने यहां देवताओं की प्रार्थना से प्रसन्न होकर उन्हें देवेश्वर रूप में दर्शन दिए थे। इसलिए यह स्थान देवेश्वर कहलाया। अश्वत्थामा के कठोर तप के लिए यह गुफा तपकेश्वर और शिवलिंग पर गिरने वाली दूध की धारा के लिए दूधेश्वर तथा कलियुग में जल धारा में परिवर्तित होने के कारण टपकेश्वर कहलाई। महाभारत कालखंड में इस मंदिर और टपकेश्वर गुफा का जिक्र आता है।

कहा जाता है कि इस पहाड़ी गुफा में स्थित शिवलिंग स्वयं प्रकट हुआ है। इसलिए इसे स्वयंभू कहा जाता है। यहां देव से लेकर गंधर्व तक भगवान भोलेनाथ के दर्शन के लिए आते हैं। टपकेश्वर मंदिर की वास्तुकला प्राकृतिक और मानव निर्मित कला का सौम्य संगम है। यह मंदिर दो पहाड़ियों के बीच स्थित है। यहां पर मुख्य गर्भगृह एक प्राकृतिक गुफा के अंदर समाहित है। गुफा के अंदर इस मंदिर के अदभुद नज़ारे को देखा जा सकता है। इस गुफा के अंदर शिवलिंग स्थापित है और गुफा से गिरने वाली पानी की बूंदे लगातार शिव लिंग पर गिरती रहती हैं। शिवलिंग लगातार टपकने वाली इन बूंदों की वजह से ही इस मंदिर का नाम टपकेश्वर मंदिर पड़ा है। इसके पास ही टोंस नदी बहती है, जिसे द्वापर युग में तमसा नदी के नाम से जाना जाता था। ऐसी मान्यता है कि देवता इस नदी में जल क्रीडा करते थे।

इस जगह को पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा की जन्मस्थली और तपस्थली भी माना जाता है। जहां गुरु द्रोणाचार्य और कृपि की पूजा अर्चना से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति का वरदान दिया। इसके बाद अश्वत्थामा का जन्म हुआ। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब आचार्य द्रोण हिमालय में तपस्या करने के लिए निकले तो ऋषिकेश में एक ऋषि ने उन्हें तपेश्वर में भगवान भोले की उपासना करने की सलाह दी। गुरु द्रोण अपनी पत्नी कृपि के साथ तपेश्वर आ गए। गुरु द्रोण जहां शिव से शिक्षा लेने केलिए तपस्या करते थे, वहीं उनकी पत्नी कृपि पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए जप करती थीं। भगवान शिव प्रसन्न हुए और कृपि को अश्वत्थामा के रूप में पुत्ररत्न का आशीर्वाद दिया। मां कृपि को दूध नहीं होता था, इसलिए वो अश्वत्थामा को पानी पिलाती थीं। मां के दूध से वंचित अश्वत्थामा को मालूम ही नहीं था कि श्वेत रंग का यह तरल पदार्थ क्या है। अपने अन्य बाल सखाओं को दूध पीते देखकर अश्वत्थामा भी अपनी मां से दूध की मांग करते थे। एक दिन द्रोण अपने गुरु भाई पांचाल नरेश राजा द्रुपद के पास गए। वहां उन्होंने इस प्राकृतिक गुफा में भगवान शिव की महिमा का वर्णन किया। गुरु द्रोण ने उनसे अपने पुत्र के लिए एक गाय की मांग की। इस पर राजसी घमंड में चूर पांचाल नरेश द्रुपद ने कहा कि वह अपने शिव से ही गाय मांगे। यह बात द्रोणाचार्य को चुभ गई। वो वापस लौटे और बालक अश्वत्थामा को दूध केलिए शिव की आराधना करने को कहा। अश्वत्थामा ने छह माह तक शिवलिंग के सामने बैठकर भगवान की कठोर आराधना शुरू कर दी तभी एक दिन अचानक दूध की धारा शिवलिंग के ऊपर गिरने लगी। इसलिए यहां भोलेनाथ को दूधेश्वर और टपकेश्वर कहा जाता है। ऐसी भी मान्यता है कि अश्वत्थामा को यहीं भगवान शिव से अमरता का वरदान मिला। एक लोक मान्यता यह भी है कि गुरु द्रोणाचार्य को इसी स्थान पर भगवान शंकर ने स्वयं अस्त्र-शस्त्र और पूर्ण धनुर्विद्या का ज्ञान दिया।

साल भर देश-विदेश से श्रद्धालु इस मंदिर के दर्शन करने आते हैं। महाशिवरात्रि और श्रावण मास के सोमवार का यहां बहुत महत्व है। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद से अपनी सरकार शुरू करने वाले प्रत्येक मुख्यमंत्री यहां आकर भगवान शिव का आशीर्वाद लेते हैं। टपकेश्वर महादेव के साथ ही यहां माता वैष्णों देवी गुफा योग मंदिर भी आस्था का बड़ा केंद्र है। इसकी रचना मूल वैष्णों देवी गुफा की ही तरह है। इसका अधिकांश भाग प्राकृतिक है, हालांकि कुछ हिस्से को व्यवस्थित भी किया गया है। उत्तराखंडी संस्कृति, लोकसंगीत के प्रचार प्रसार में भी इस मंदिर का विशेष योगदान है। टपकेश्वर मंदिर परिसर में संतोषी माता मंदिर, काली मंदिर, महर्षि बाल्मीकि मंदिर, हरसिद्धी दुर्गा मंदिर, शाकम्बरी माता मंदिर, राधाकृष्ण मंदिर समेत कई मंदिर आस्था का केंद्र हैं। इस समय श्री 108 कृष्णा गिरी जी महाराज टपकेश्वर महादेव के मुख्य महंत हैं। वहीं दिगंबर भरत गिरी जी महाराज मुख्य पुजारी हैं। माता वैष्णों देवी मंदिर के आधात्मिक गुरु आचार्य बिपिन जोशी हैं।

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