भोजन की थाली से गायब मोटे अनाज को वापस लाने की कवायद

भोजन की थाली से गायब मोटे अनाज को वापस लाने की कवायद

फसलों का एक समूह है जो मुख्यतः उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय जलवायु में खेती के लिए अनुकूल होते हैं तथा सीमित स्रोतों के साथ उगाए जा सकते हैं। ये फसलें जलवायु के अनुकूल, कठोर और शुष्क भूमि वाली फसलें हैं जो खाद्य और पोषण सुरक्षा में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं।

आज बात करते हैं मोटे अनाज में शुमार पहाड़ की फसल। ‘चीणा’ और ‘कोणी’ की।

मिलेट्स या मोटा अनाज

इन्ही मोटे अनाज में शामिल हैं ‘चीणा’ और ‘कोणी’। पहाड़ की पारंपरिक फसल चीणा और कोणी अब खेतों से लगभग गायब हो गई है। चीणा और कोणी में पोषक तत्व भरपूर मात्रा में होते हैं। पहले बात करते हैं चीणा की, जिसका वानस्पतिक नाम पेनिकम मैलेशियम है। चीणा में पोषक तत्व में प्रोटीन 4.6 प्रतिशत, बसा 1.1 प्रतिशत, कार्बोहाइट्रेट 68.9 प्रतिशत, रेशा 2.2 प्रतिशत और भस्म 3.4 प्रतिशत होती है।

इसका पौधा एक से दो मीटर तक ऊंचा होता है। आज से चार पांच दशक पहले तक पहाड़ों की परंपरागत फसलों में चीणा मुख्य फसल थी। गांव का लगभग हर परिवार चीणा की खेती जरूर करता था लेकिन आज पहाड़ों के खेती से चीणा गायब ही हो चुका है। चीणा मोटे अनाजों में प्रमुख फसल मानी जाती है।

यह कम समय में तैयार होने वाली फसल है। खास बात यह है कि इसे उगाने में कम मेहनत की जरूरत होती है और निराई गुड़ाई की जरूरत भी न के बराबर होती है। चीणा के साथ साथ दूसरी फैसले भी इसी के साथ उगाई जाती हैं। आप यूं समझ सकते हैं कि पहाड़ के खेतों में मिश्रित फैसले उगाई जाती हैं। एक ही खेत में किसान चीणा, कोणी, अनाज, कोदा, झंगोरा, मार्शा, दालें एक साथ उगाते हैं। ये सब फसलें अलग अलग हाइट यानी ऊंचाई की होती हैं। एक के पकने के बाद किसान द्वारा इन्हें काटने पर दूसरी फसल खेत में ही सुरक्षित रहती हैं। पहाड़ में पहले इन्ही फसलों यानी कोदा, झंगोरा, मंडुवा, मार्शा, कोणी को प्रमुखता से उगाया जाता था।

और ये ही मोटा अनाज यानी ये फसलें ही मुख्य भोजन होते थे। एक समय तब ऐसा आया जब चावल और गेहूं भोजन में शामिल हुआ। तब जिनके भोजन में चावल रोटी शामिल होता था वे समाज के ऊंचे धनाढ्य और सामर्थ्यवान समझे जाने लगे और मोटे अनाज खाने वाले परिवारों को गरीब माने जाने लगा। देखते देखते मोटे अनाज की पैदावार करने वाले किसानों ने भी होड़ के चलते मोटे अनाज की फसलों की जगह धान और गेहूं को मुख्य फसल के तौर पर उगाने लगे और समाज में सबकी हैसियत एक जैसी हो गई।

इस अज्ञान भरी प्रतियोगिता से मोटा अनाज खेत और खलियान दोनों से गायब हो गया और एक समय ऐसा आया जब किसान की थाली से मोटा अनाज पूर्णतः गायब ही हो गया। चीणा के बाद बात करते हैं कोणी की। पहाड़ी ढ़लानों पर सीढ़ीदार खेतों की मेडों पर लहराती कौंणी की फसल बला की खूबसूरत लगती है।

सियार की सुनहरी पूंछ सी खेतों के किनारे हिलती-डुलती रहती है। इसीलिए इसका एक नाम ‘फॉक्सटेल’ भी है कौणी विश्व की प्राचीनतम फसलों में से एक है। यह बाजारा की ही एक प्रजाति है। जिसे अंग्रेजी में ‘फॉक्सटेल’ मिलेट कहा जाता है। इसकी बाली को देखकर ही संभवतः इसे अंग्रेजी में यह नाम दिया गया हो।  खेतों में जब यह पककर तैयार होती है तो किसी पूंछ की तरह कौंणी की पौध खेतों में लहराती रहती है।

कौणी का वैज्ञानिक नाम सेतिरिया इटालिका Setaria Italica है। इसको संस्कृत में कंगनी तो गुजराती में कांग नामों से जाना जाता है। यह भारत, रूस, चीन, अफ्रीका और अमेरिका आदि देशों में उगाया जाता है। विश्वभर में कौंणी की लगभग 100 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं।

कौंणी गर्म मौसम में उपजने वाली फसल है। इसलिये उत्तराखण्ड में इसकी खेती ज्यादातर धान के साथ ही की जाती है। इसको धान व झंगोरा के साथ खेतों में बोया जाता है। धान के खेतों के किनारे-किनारे कौणी और झंगोरा बोया जाता है। कोणी की जड़े काफी मजबूत और मिट्टी को बांधे रखती है इसलिये यह खेतों के किनारों को भी टूटने या मिटटी के बहने से रोकती है। इसकी कटाई सितम्बर-अक्टूबर में होती है।

उतराखण्ड में इसको खीर व भात बनाकर खाया जाता है। कौणी की खीर बनाकर बड़े चाव से लोग खाते हैं। लेकिन विकास और आधुनिकता की दौड़ ने पहाड़ के वासियों ने इसको मुख्य खाने से किनारे कर लिया।

किसी भी मोटे अनाज को डाइबिटिज के रोगियों के लिये बहुत उपयुक्त माना जाता है। इस वजह से भी धीरे-धीरे बाजार में इसकी मांग बढ़ रही है। इसके बिस्कुट, लड्डू इडली-डोसा और मिठाइयां काफी पसंद की जा रही है। इसके अलावा ब्रेड, नूडल्स, चिप्स तथा बेबी फूड, बीयर, एल्कोहल तथा सिरका बनाने में भी प्रयुक्त किया जा रहा है।

संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन की सन् 1970 की रिपोर्ट तथा अन्य कई वैज्ञानिक अध्ययनों के अनुसार कौंणी में क्रूड फाइबर, वसा, फाइवर, कार्बोहाईड्रेड के अलावा कुछ अमीनो अम्ल होने की वजह से आज विश्वभर में कई खाद्य उद्योगों में इसकी मांग हो रही है। सुगर के मरीजों के लिये यह वरदान जैसा है। इससे तमाम बीमारियों में होने वाली थकान से मुक्ति मिलती है। तंजानिया में तो एड्स रोगियों के बेहतर स्वास्थ्य के लिये कौंणी से बनाये गये भोजन को परोसा जाता है।

संभवतः इसीलिये पारम्परिक घरेलू नुस्खों में इसको तमाम व्याधियों में सेवन की बात की जाती है। कौणी में 9 प्रतिशत तक तेल की मात्रा भी पाई जाती है। विश्व के बहुत से देश इसी वजह से कौंणी को तिलहन के तौर पर भी उपयोग करते हैं। जिसकी वजह से विश्व के कई देशो में कौंणी से तेल का उत्पादन भी किया जाता है। कौणी की पौष्टिकता और औषधीय उपयोगिता की वजह से विश्वभर में बेकरी उद्योग की पहली पसंद बनता जा रहा है। कौंणी से तैयार किये ब्रेड में अन्य अनाजों से तैयार किये ब्रेड से प्रोटीन की मात्रा 11.49 की अपेक्षा 12.67, वसा 6.53 की अपेक्षाकृत कम 4.70 तथा कुल मिनरल्स 1.06 की अपेक्षाकृत अधिक 1.43 तक पाये जाते हैं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अथक प्रयासों से संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन ने वर्ष 2023 को मिलेट इयर मनाने की घोषणा की। भारत सरकार के सुझाव पर यह कदम उठाया गया यह कदम आज दुनिया को एक नया रास्ता दिखा रहा है। यूएन ने इसकी उपयोगिता, औषधीय गुणों और पौष्टिकता को देखते यह कई कदम उठाए हैं। कितनी अजीब बात है कि पौष्टिकता और औषधीय गुणों के बावजूद कौंणी के साथ साथ चीणा और सभी मोटे अनाज की फसलें आज उत्तराखण्ड में विलुप्ति के कगार पर पहुंच चुकी हैं।

विश्व और भारत के स्तर पर इसको लेकर किये जा रहे प्रयास कितने कारगर होंगे यह तो भविष्य के गर्भ में है। बाजारू प्रतिस्पर्धा के चलते खेतों में जैविक खाद भी गायब हो गई और इसकी जगह ले ली रासायनिक खाद ने। समय के साथ स्वादिष्ट भोजन के साथ साथ इंसान के पेट में रासायनिक तत्व भी शामिल हो गए जिनसे तरह तरह की परेशानियों वा बीमारियों से इंसान को दो चार होना पड़ रहा है। अब जाकर जागरूकता आई है कि जैविक खेती से इंसान को इन तकलीफों से बचाया जा सकता है। इसी के चलते समूची दुनियां में आज जैविक अनाज और मोटे अनाज की मांग वा खपत बड़े पैमाने पर हो रही है।

इधर आज वैज्ञानिक भी मोटे अनाजों को उगाने की बात कर रहे हैं। वैज्ञानिकों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन के खतरों को झेलने और खाद्य सुरक्षा की दृष्टि से चीणा जैसे मोटे अनाज उगाने जरूरी हो गए हैं। नई पीढ़ी के के लोग चीणा से परिचित ही नहीं हैं तो पसंद नापसंद का सवाल ही नहीं उठता है।

आज जबसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अथक प्रयासों से मोटे अनाज एवम मोटे अनाज की लाख खूबियों से दुनियां परिचित हुई और दुनियां ने वर्ष 2023 को मोटे अनाज का वर्ष यानी मिलेट ईयर 2023 घोषित किया तो दुनियां अब मोटे अनाज के लिए भारत की तरफ बड़ी आस से टुकटुकी लगाए देख रही है कि काश उन्हें भी मोटा अनाज मिल जाता तो वो भी भाग्यशाली होते।

आज समय आ गया है कि दुनियां में मोटे अनाज के खरीददारों न तो कमी है और न धन की कमी। बस कमी है तो केवल मोटे अनाज की। प्रधानमंत्री जी के आव्हान पर आज लोग फिर से मोटे अनाज की तरफ लौटने लगे हैं। इन्हीं में से कुछ लोग चीणा कोणी का फिर से उत्पादन करने लगे हैं।

इसलिए सरकार को चाहिए कि चीणा कोणी जैसी फसलों को उगाने वाले किसानों को प्रात्साहित किया जाय और इसे नगदी फसलों में शामिल कर समर्थन मूल्य के साथ साथ बाजार भी उपलब्ध कराया जाये। इधर नमामि गंगे जलशक्ति मंत्रालय की तरफ से भी मोटे अनाज की ओर लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है।

भारत सरकार के जलशक्ति मंत्रालय के कार्यक्रम ‘अपनी जड़ों की ओर वापस जाना’ के तहत भारत सरकार के नमामि गंगे जलशक्ति मंत्रालय से जुड़ी ‘गंगा प्रहरी’ उत्तरकाशी के पंजियाला गांव निवासी राधिका चौहान ने अपने अथक प्रयासों से अपने गांव में फिर से मोटा अनाज में शामिल कोणी को उगाने का सफल प्रयास किया है।

आज ऊपरी गंगा बेसिन में पारंपरिक मोटे अनाज की फसल कोणी, झंगोरा, कोदा, मंडूवा को बढ़ावा देने के लिए उत्तराखण्ड में इन्हे फिर से उगाया जाने लगा है। पारंपरिक फसल मोटे अनाज में शामिल कोणी का बीज लगभग समाप्त हो चुका है था जिसको फिर से पुनर्जीवित किया गया है।

लोकेंद्र सिंह बिष्ट प्रांत संयोजक गंगा विचार मंच, उत्तराखण्ड। नमामि गंगे जलशक्ति मंत्रालय भारत सरकार।

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