उत्तराखंड के धामों में यात्रियों के साथ ही वाहनों की संख्या में भी भारी वृद्धि हो रही है। इन धामों तक पिछले वर्ष 5,91,300 वाहन पहुंचे थे। देवभूमि में यात्रियों के इस महारैली से व्यवसायियों का गदगद होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह यात्रा उत्तराखंड की आर्थिकी की रीढ़ होने के साथ ही पड़ोसी राज्यों को भी प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ पहुंचाती है। लेकिन पर्यावरण और आपदा प्रबंधन से जुड़े लोगों को आस्था के अप्रत्याशित ज्वार ने चिंता में डाल दिया है।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड हिमालय स्थित चारों धामों में यात्रा की शुरुआत में ही श्रद्धालुओं की अप्रत्याशित भीड़ उमड़ रही है। अनुमान लगाया जा रहा है कि इस साल पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील इन तीर्थों में 70 लाख तक यात्रियों की आमद हो सकती है। दो दशक पहले तक इसकी कल्पना भी नहीं की गई थी, सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार, पिछले साल बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री पहुंचने वाले यात्रियों की संख्या 56,31,224 थी, जबकि राज्य गठन के वर्ष 2000 में इन चारों धामों में कुल 12,92,411 यात्री पहुंचे थे। सन् 1968 में जब पहली बार बस बदरीनाथ पहुंची थी, तो वहां तब लगभग 60 हजार यात्री यात्रा पर पहुंचते थे। इसी तरह 1969 में जब गंगोत्री तक मोटर रोड बनी और 1987 में वहां भैरों घाटी का पुल बना, तो वहां तब लगभग 70 हजार यात्री पहुंचते थे।
हिमालयी धामों में यात्रियों के साथ ही वाहनों की संख्या में भी अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। इन धामों तक पिछले वर्ष 5,91,300 वाहन पहुंचे थे। हिमालय पर यात्रियों के इस महारैली से व्यवसायियों का गदगद होना स्वाभाविक है, क्योंकि यह यात्रा उत्तराखंड की आर्थिकी की रीढ़ होने के साथ ही पड़ोसी राज्यों को भी प्रत्यक्ष या परोक्ष लाभ पहुंचाती है। लेकिन पर्यावरण और आपदा प्रबंधन से जुड़े लोगों को आस्था के अप्रत्याशित ज्वार ने चिंता में डाल दिया है। प्रख्यात पर्यावरणविद पद्मभूषण चंडी प्रसाद भट्ट कहते हैं कि इस संवेदनशील क्षेत्र में कभी लोग लाल कपड़े नहीं पहनते थे और वहां शोर करना भी वर्जित था। यात्रियों की अत्यधिक भीड़ से यात्रा मार्गों में गंदगी भी खूब हो रही है। इस मार्ग पर जो मलजल शोधन संयंत्र (एसटीपी) लगे हैं, उनकी क्षमता भीड़ के मुकाबले बहुत कम है और गंदगी नदियों में मिल जाती है। पिछले वर्ष बदरीनाथ में लगे संयंत्र का मलजल सीधे अलकनंदा में प्रवाहित होते हुए पूरी दुनिया ने सोशल मीडिया पर देखा। लगभग 1300 किमी लंबे चारधाम यात्रा मार्ग पर स्थित कस्बों की अपनी सीमित ठोस अपशिष्ट (कूड़ा-कचरा) निस्तारण व्यवस्था है।
सरकार या नगर निकायों के लिए अचानक इस व्यवस्था का विस्तार आसान नहीं होता। सबसे अधिक चिंता का विषय वाहनों का हिमालय पर चढ़ना है। इस साल 10 दिन की यात्रा में 6.43 लाख यात्री और 60,416 वाहन चारों तीर्थों तक पहुंच चुके थे। नवंबर तक यात्रा चलनी है। इन वाहनों में भी सबसे ज्यादा चिंता पैदा करने वाले डीजल वाहन हैं, जिनसे ज्यादा प्रदूषण होता है। पर्यावरणविदों के लिए एक और चिंता का विषय ब्लैक कार्बन है, जो जलवायु परिवर्तन में योगदान के साथ ही ग्लेशियरों को भी पिघला रहा है। ऑटोमोबाइल द्वारा उत्सर्जित ब्लैक कार्बन बर्फ और बर्फ की सतहों पर जमा हो सकता है। गहरे रंग के कण हल्की सतहों की तुलना में अधिक सूर्य प्रकाश को अवशोषित करते हैं, जिससे बर्फ और बर्फ का ताप बढ़ जाता है और ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज हो जाती है। जंगलों की आग ने पहले ही वातावरण में ब्लैक कार्बन की वृद्धि कर दी है और अब डीजल वाहन इसमें और अधिक वृद्धि करेंगे।
पिछले साल बदरीनाथ तक 2,69,578 वाहन व गंगोत्री तक 96,884 वाहन पहुंचे थे। इस साल 10 दिन में ही बदरीनाथ में 12,263 और गंगोत्री में 10,229 वाहन पहुंच गए। ये दोनों ही धाम गंगोत्री और सतोपंथ ग्लेशियर समूहों के क्षेत्र में हैं, जो कि तेजी से पिघलने के कारण अंतरराष्ट्रीय चिंता का विषय हैं। दोनों ही ग्लेशियर समूह गंगा की मुख्य धारा अलकनंदा व भागीरथी के उद्गम स्रोत हैं। यमुना का स्रोत यमुनोत्री ग्लेशियर है। इसी साल अप्रैल में जारी इसरो की रिपोर्ट के अनुसार, हिमालयी ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के साथ ही ग्लेशियर झीलों की संख्या और आकार में निरंतर वृद्धि हो रही है, जो आपदाओं की दृष्टि से गंभीर खतरे का संकेत भी है।
इसरो के मुताबिक, 676 झीलों में से 601 का आकार दोगुने से अधिक हो गया है, जबकि 10 झीलें 1.5 से दो गुना और 65 झीलें 1.5 गुना बढ़ी हैं। उत्तराखंड हिमालय स्थित चारों धामों में यात्रा की शुरुआत में ही जिस तरह श्रद्धालुओं की अप्रत्याशित भीड़ उमड़ रही है उसे देखते हुये अनुमान लगाया जा रहा है कि इस साल पर्यावरणीय दृष्टि से अति संवेदनशील इन तीर्थां में 70 लाख तक यात्रियों की आमद हो सकती है जिसकी दो दशक पहले तक कल्पना भी नहीं की गयी थी। सरकारी रिकार्ड के अनुसार पिछले साल बदरीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री पहुंचने वाले यात्रियों की संख्या 56,31,224 थी। जबकि राज्य गठन के वर्ष 2000 में इन चारों घामों में कुल 12,92,411 यात्री पहुंचे थे। सन् 1968 में जब पहली बार बद्रीनाथ बस पहुंची थी तो वहां तब तक लगभग 60 हजार यात्री यात्रा पर पहुंचते थे। इसी तरह 1969 में जब गंगोत्री तक मोटर रोड बनी और 1987 में वहां भैरों घाटी का पुल बना तो वहां तब तक लगभग 70 हजार यात्री पहुंचते थे।
वाहनों से जो प्रदूषणकारी उत्सर्जन होता है उसमें कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, फोटोकैमिकल ऑक्सीडेंट, वायु विष, अर्थात् बेंजीन, एल्डिहाइड, ब्यूटाडीन, सीसा, पार्टिकुलेट मैटर, हाइड्रोकार्बन, सल्फर के ऑक्साइड और पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन शामिल होते हैं। पर्यावरणविदों के लिये एक और चिन्ता का विषय ब्लैक कार्बन है जो कि जलवायु परिवर्तन करने के साथ ही ग्लेशियरों को भी पिघला रहा है। ऑटोमोबाइल द्वारा उत्सर्जित ब्लैक कार्बन बर्फ और बर्फ की सतहों पर जमा हो सकता है। गहरे रंग के कण हल्की सतहों की तुलना में अधिक सूर्य प्रकाश को अवशोषित करते हैं, जिससे बर्फ और बर्फ का ताप बढ़ जाता है और ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज हो जाती है हिमालय से निकलने वाली नदियां और सहायक नदियां भारत के जल संसाधनों के दो तिहाई की साझीदार है। हिमालय के विशालतम ग्लेशियर पिघल कर जिन नदियों का हिस्सा बनते हैं, उनमें गंगा, ब्रह्मपुत्र, सिंधु, बराक और भारतीय हिमालय-क्षेत्र से निकलने वाली दूसरी बड़ी नदियां शामिल हैं। इन ग्लेशियरों से पानी प्राप्त करने के बाद ही ये नदियां सालों भर सिंचाई के संसाधन और पनबिजली परियोजनाओं के उपयोग में आती हैं और साथ-साथ पारिस्थितिकी तंत्र को भी बहाल रखती हैं। बहरहाल निचले इलाकों में पानी का बहाव जलवायु के गर्म होने, ग्लेशियर-क्षेत्र में बदलाव और बरसात के पैटर्न पर निर्भर है।
विशेषज्ञ कहते हैं, ‘इस क्षेत्र में तापमान में वृद्धि होने से बर्फ के पिघलने की गति में भी वृद्धि होगी और परिणाम यह होगा कि निचले इलाकों में जलबहाव में पहले तो तेजी दर्ज की जाएगी और उसके बाद गति धीरे-धीरे कमी आ जाएगी। हालांकि इन इलाकों में शुरुआती दौर में बढ़े तापमान और ग्लेशियर के पिघलने की रफ्तार के कम होने की क्षतिपूर्ति भविष्य में अच्छी बरसात से हो सकती है, लेकिन तापमान में वृद्धि बरसात के स्वरूप पर असर डाल सकती है। ऐसी स्थिति में बरसात के समय और भंडारण दोनों पर इसका बुरा असर पड़ सकता हैं।’
यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं और वह दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।
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