हिसालू फलों में एंटी ऑक्सीडेंट की अधिक मात्रा होने की वजह से यह फल शरीर के लिए काफी गुणकारी माना जाता है। हिसालू में कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम मैग्नीशियम, आयरन, जिंक, पोटेशियम, सोडियम व एसकरविक एसिड प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है।
डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला
हिसालू भारत में लगभग सभी हिमालय राज्य में पाया जाता है। भारत के अलावा यह नेपाल, पाकिस्तान, पोलैंड आदि पहाड़ी देशों में भी पाया जाता है। विश्व भर में हिसालू की लगभग 1500 प्रजातियां पाई जाती हैं। हिसालू बहुत ही दिव्य औषधि के रूप में भी काम करती है। उत्तराखंड की पहाड़ी वादियों में आसानी से देखने को मिल जाएगा आपको हिसालू। पहाड़ की रूखी-सूखी धरती पर छोटी झाड़ियों में उगने वाला यह फल या बेरी जंगली रसदार फल है जो देखने में आकर्षित तो लगता ही है वहीं अपने औषधीय तत्वों के लिए भी विख्यात है।
उच्च हिमालयी क्षेत्रों में हिसालू जेठ-असाड़ के महीने यानी की मई-जून के महीने में आसानी से देखने को मिल जाएगा। जंगली झाड़ियां आपको इनके फल से लकदक नजर आएंगी। कुछ स्थानों पर इसको हिंसर या हिंसरु के नाम से भी जाना जाता है। इसका लेटिन नाम त्नइने मसपचजपबने है, जो कि त्वेंबमंम कुल की झाडीनुमा वनस्पति है। हिसालू दो प्रकार के होते हैं जो पीला और और काले रंग का होता है। पीले रंग का हिसालू आम है लेकिन काले रंग का हिसालू इतना आम नहीं है। एक अच्छी तरह से पका हुए हिसालू का स्वाद मीठा और कम खट्टा होता है। यह फल इतना कोमल होता है कि हाथ में पकडते ही टूट जाता है एवम् जीभ में रखो तो पिघलने लगता है। इस फल ने कुमाऊं के लोकगीतों में एक खास जगह बनाई है, पहाड़ो में इस फल के आगमन के समय पर्यावरण में खुशी की झलक दिखाई देती है। इस फल को ज्यादा समय तक संभाल के नहीं रखा जा सकता है क्योंकि हिसालू फल को तोड़ने के 1-2 घंटे बाद ही खराब हो जाता है।
इस फल के बारे में प्रसिद्ध कवि गुमानी पन्त भी लिखते हैं कि
हिसालू की जात बड़ी रिसालू, जाँ जाँ जाँछे उधेड़ि खाँछे।
यो बात को क्वे गटो नी माननो, दुद्याल की लात सौणी पड़ंछ।
यानी हिसालू की नस्ल बड़ी नाराजगी भरा है, जहां-जहां जाता है, बुरी तरह खरोंच देता है, तो भी कोई इस बात का बुरा नहीं मानता, क्योंकि दूध देने वाली गाय की लातें खानी ही पड़ती हैं।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो हिसालू फलों में प्रचुर मात्रा में एंटी ऑक्सीडेंट की अधिक मात्रा होने की वजह से यह फल शरीर के लिए काफी गुणकारी माना जाता है। हिसालू में पोषक तत्वों की कोई कमी नही है इसमें कार्बोहाइड्रेट, कैल्शियम मैग्नीशियम, आयरन, जिंक, पोटेशियम, सोडियम व एसकरविक एसिड प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसमें विटामिन सी 32 प्रतिशत, फाइबर 26 प्रतिशत, मैंगनीज़ 32 प्रतिशत, व मुख्य रूप से में लौ गलीसमिक, जिसमे की शुगर की मात्रा सिर्फ 4 प्रतिशत तक ही पायी गयी है। इसकी जड़ को च्छुघास की जड़ एवं जरुल की छाल के साथ कूटकर काढा बनाकर बुखार के रोगी के लिए रामबाण दवा है। इसकी पत्तियों की ताजी कोपलों को ब्राह्मी की पत्तियों एवं दूर्वा के साथ मिलाकर स्वरस निकालकर पेप्टिक अल्सर की चिकित्सा की जाती है। इसके फलों से प्राप्त रस का प्रयोग बुखार, पेट दर्द, खांसी एवं गले के दर्द में बड़ा ही फायदेमंद होता है। छाल का प्रयोग तिब्बती चिकित्सा पद्धतिमें भी सुगन्धित एवं कामोत्तेजक प्रभाव के लिए किया जाता है।
हिसालू फल के नियमित उपयोग से किडनी-टॉनिक के रूप में भी किया जाता है। यही नहीं इसका प्रयोग मूत्र आना (पोली-यूरिया ), योनि-स्राव, शुक्र-क्षय एवं शय्या-मूत्र (बच्चों द्वारा बिस्तर गीला करना) आदि की चिकित्सा में भी किया जाता है। हिसालू जैसी वनस्पति को सरंक्षित किये जाने की आवश्यकता को देखते हुए इसे आई.यू.सी.एन. द्वारा वर्ल्ड्स हंड्रेड वर्स्ट इनवेसिव स्पेसीज की लिस्ट में शामिल किया गया है एवम् इसके फलों से प्राप्त एक्सट्रेक्ट में एंटी-डायबेटिक प्रभाव भी देखे गए हैं। इस फल का कोई मालिक नहीं है। न ही आम आदमी न सरकार। हालाँकि हिसाव जैसी वनस्पति को सरंक्षित किए जाने की आवश्यकता को देखते हुए इसे आई.यू.सी.एन. द्वारा वर्ल्ड्स हंड्रेड वर्स्ट इनवेसिव स्पेसीज की लिस्ट में शामिल किया गया है। लेकिन लिस्ट में शामिल कर दिया गया शब्दों में। ग्राउंड लेवल में कोई गतिविधि नहीं दिखती न कभी दिखी।
उत्तराखंड 23 साल का युवा राज्य है। इस दौरान सरकारें आयी और गयी लेकिन सरकारों ने हिसाव खाये, लेकिन किया कुछ नहीं। फल की तारीफ की बंद कमरों में, चर्चा की, हुआ कुछ नहीं। इसको ग्राम पंचायत से जोड़ने की जरुरत है, ताकि इसका उत्पादन किया जा सके और गाँव में ही लोगों को इसका फायदा हो जिनके माध्यम से यह दवाई के रूप में और फल के रूप में जितना भी पहुंचे लेकिन पहुंचे बाहरी बाजारों में। उत्तराखंड के बाहर के लोगों को न के बराबर इसके बारे में पता है क्योंकि उन तक पहुंच नहीं पाता दूसरा सरकार की तरफ से कोई प्रचार प्रसार कोई योजना नहीं है। जब लगाया जाएगा तो कितना उत्पादन हो जाएगा। मेहनत कुछ खास नहीं करनी पड़े। उत्तराखंड में हिसालू का उत्पादन कहीं पर नहीं होता है। इसके बावजूद गर्मियों में नैनीताल जैसे हिल स्टेशन की सड़कों पर 30 रुपया प्रति सौ ग्राम की दर से हिसालू बिकता दिखता है। सैलानी जिसे 300 रुपया किलो खरीद रहे हैं।
दो महीने के लिए ‘हिसाव खाने आओ कैम्पेन’ चलाने की जरुरत है। उससे पहले इसको जंगल से घर लाने की जरुरत है। इसका प्लांट लगाने, बाग़ लगाने की जरुरत है, ताकि आगे उत्पादन किया जा सके। पर्यटक भी आयेगा और आम-जन के साथ राज्य सरकार को भी फायदा होगा। राज्य को रेवन्यू मिलेगा, आखिर बूंद-बूंद से सागर भरता है। लेकिन करे तो कोई। हिसाव/हिसालू ऐसा फल है जिसे लगाने की जरुरत नहीं है अपने आप उगता है। औद्योगिक रूप में भी इसका उपयोग किया जाता है, विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थो के निर्माण में इसका उपयोग किया जाता है जैसे जैम, जैली, विनेगर, चटनी व वाइन आदि में। साइट्रिक एसिड, टाइट्रिक एसिड, का काफी अच्छा स्रोत इसे माना गया है। उत्तराखंड के जंगल में मिलने वाले फलों को बाजार से जोड़कर आर्थिकी संवारने का जरिया बनाया जा सकता है। जो फल हम फ्री में खाते हैं या जंगलों में ऐसे ही बर्बाद हो जाते हैं, वास्तव में उनकी कीमत जानकर आप हैरान रह जाओगे। सरकार अभी तक इस दिशा में कोई पहल नहीं कर पायी है।
लेखक वर्तमान में दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।
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