हिमालय के लिए अलग नीति की जरूरत

हिमालय के लिए अलग नीति की जरूरत

पिछले 20 वर्षों में हिमालय में अनियोजित परियोजनाओं के कारण हिमालयीवासी और हिमालय की जैवविविधता खतरे के निशान पर आ चुकी है। यह खतरा खुद ही लोगों ने विकास की अंधी दौड़ के कारण मोल लिया है। अब मान लिया गया कि पुनः लोग हिमालयी संरक्षण की पुश्तैनी परम्परा को हिमालयी दिवस के बहाने बहाल करेंगे।

डॉ हरीश चन्द्र अन्डोला

पहली बार 09 सितम्बर 2010 को हिमालय दिवस मनाने का जो सिलसिला आरम्भ हुआ वह आज देश की राजधानी में ही नहीं बल्कि हिमालयी प्रदेशों के विभिन्न कोनों में यह आयोजन मनाया जा रहा है। ज्ञात हो कि पिछले 20 वर्षों में हिमालय में अनियोजित परियोजनाओं के कारण हिमालयीवासी और हिमालय की जैवविविधता खतरे के निशान पर आ चुकी है। यह खतरा खुद ही लोगों ने विकास की अंधी दौड़ के कारण मोल लिया है। अब मान लिया गया कि पुनः लोग हिमालयी संरक्षण की पुश्तैनी परम्परा को हिमालयी दिवस के बहाने बहाल करेंगे। जिसके लिये मीडिया से लेकर सामाजिक कार्यकर्ता व आम लोगों से लेकर राजनीतिक कार्यकर्ता एवं छात्रों से लेकर नौकरी पेशा लोग हिमालय के संरक्षण के लिये हाथ-से-हाथ मिला रहे हैं। भले यह कारवां पांच वर्षों में बहुत ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाया मगर कारवां निरन्तर बढ़ता ही जा रहा है।

उल्लेखनीय तो यही है कि पूर्व में हिमालय में बढ़ते खतरों को लेकर राज्य सरकार के पास कोई सोचने का समय नहीं था परन्तु वर्तमान में जिस तरह से लोग ‘हिमालय बचाओ’ के लिये कारवां का हिस्सा बन रहे हैं वह सुखद ही कहा जाएगा। हालांकि हिमालय की जैवविविधता का अब तक विदोहन ही हुआ है यही वजह है कि प्राकृतिक आपदाएं तथा मौसम परिवर्तन के खतरों का बढ़ना भी जगजाहीर ही कहा जाएगा। कारण इसके घटते जंगल और सूखते जल स्रोतों की चिन्ता अब तक किसी नीति का हिस्सा तो नहीं बन पाये परन्तु आज हिमालय दिवस के रूप में सम्भावना जताई जा रही है कि हिमालयी विकास नीति का कोई मॉडल सामने आएगा। हिमालय तथा खुद को बचाने की चुनौती न केवल हिमालयवासियों के सामने है बल्कि दक्षिण एशिया व दुनिया के लिये भी ये एक बड़ी चुनौती है।

इन विपरीत परिस्थितियों में हिमालय के लोगों को अपने जीवन-यापन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने लिये जल, जंगल, जमीन पर स्थानीय समुदायों को अधिकार पाने के संघर्ष करने पड़ रहे हैं। जबकि हिमालय सदैव मैदानों, नदियों तथा सम्पन्न मानव समाजों का निर्माणकर्ता और उनका रक्षक रहा है। आज भी वह भारत सहित कई देशों को कुल मीठे पानी की मांग का 40 प्रतिशत तक देता है। वर्तमान विकास की उपभोगवादी अवधारणा ने हिमालय की उक्त भूमिका को एक सिरे से नकार दिया गया है और यह नजरअन्दाज करते हुए कि हिमालय विश्व का एक शिशु पर्वत है ऐसी स्थिति में उसकी रचना व पर्यावरण से छेड़-छाड़ करना घातक साबित हुई। फलस्वरूप इसके हिमालय पर्वत परिस्थितिकीय संकट, विकास की गति, गलत नीतियों की वजह से असन्तोष और अशान्ति का केन्द्र बन गया है। जन साधारण की चेतना में हिमालय का अर्थ केवल नदी, पर्वत और पेड़ों से ही होता है जबकि वास्तव में हिमालय अफगानिस्तान से लेकर वर्मा तक फैला हुआ है। इस पूरे क्षेत्र में लोकतंत्र के संघर्ष, प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के जनान्दोलन, राष्ट्र राज्यों के आपसी संघर्ष व मन-मुटाव, राजनैतिक अलगाव व दमन जैसे संघर्षों ने विगत चार-पांच दशकों से इस पूरे क्षेत्र को एक छद्मयुद्ध का मैदान बना दिया है और इसका सबसे बड़ा कारण हमारे राष्ट्र-राज्यों ने इस विशिष्ट भौगोलिक इकाई के लिये कोई पृथक विकास की योजना नहीं बनाई।

09 सितम्बर 2010 से आरम्भ हुई हिमालय बचाने की मुहिम ने पृथक हिमालय नीति के लिये बाकायदा एक जन घोषणा पत्र भी जारी कर दिया है जिसके लिये लगातार हिमालयी राज्यों में संवाद कायम किया जा रहा है। जन-घोषणा पत्र में वे तमाम सवाल खड़े किये गए जिस नीति के कारण मौजूदा भोगवादी सभ्यता की बुनियाद पर आधारित जल, जंगल और खनिज सम्पदाओं के शोषण की गति तीव्र हुई है। विकास के नाम पर वनों का व्यापारिक दोहन, खनन और धरती को डुबोने व लोगों को उजाड़ने वाले बांधों, धरती को कम्पयमान करने वाले यांत्रिक विस्फोटों, जैसी घातक प्रवृत्तियों के कारण हिमालयवासियों के सामने जिन्दा रहने का संकट पैदा हो गया है। कौतुहल का विषय है कि एक तरफ स्थानीय हिमालयी वासियों के हक-हकूकों पर कब्जा हुआ तो दूसरी तरफ जल विद्युत परियोजनाओं एव वाइल्ड लाइफ जैसी योजनाओं ने लोगों को विस्थापन के लिये मजबूर कर दिया है।

इसके अलावा हिमालयी क्षेत्रों में दिन-प्रतिदिन पर्यटकों की आमाद बढ़ती ही जा रही है और इसी के साथ-साथ नदियों के सिराहने व ऊंचाई के क्षेत्रों में कूड़े-कचरे की मात्रा इतनी अधिक बढ़ गई कि अधिकांश जलागम क्षेत्र विषैले व प्रदूषित हो चुके हैं। इसलिये सुझाव दिया जा रहा है कि असिंचित ढालदार भूमि, संरक्षित वन, सामूहिक अथवा निजी वन उनका भूमि उपयोग सर्वेक्षण करवाकर पानी की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसके तहत फल, चारा, व रेशा प्रजाति के पौधों के रोपण की वृहद योजना बननी चाहिए। ऐसा करने पर मैदानी क्षेत्रों के लिये पहाड़ों से निरन्तर उपजाऊ मिट्टी मिलेगी, नदियों का बहाव स्थिर होगा और जल की समस्या भी हल होगी। विडम्बना है कि ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण हिमालय के जलस्रोत, झरने, झीलें, बर्फानी एवं गैर बर्फानी नदियां सूखती ही जा रही हैं।

हिमालय में निवास करने वाले लोग पहले स्वावलम्बी थे जैसे-जैसे उनके प्राकृतिक संसाधनों पर व्यवसायिक परियोजनाएं संचालित होती गईं वैसे-वैसे वे पलायन करते गए। आलम यह है कि जंगल के प्रहरी के रूप में अब कुछ परम्परानुमा फौजें ही तैनात दिखाई दे रही हैं। पर्यटन को बढ़ावा देने के लिये स्थानीय लोगों के साथ अब तक कोई कारगर परियोजना सामने नहीं है। मगर लोक पयर्टन जैसी प्रक्रिया में कुछ युवकों ने आरम्भ कर रखी है। 2014 में एनडीए अपने घोषणा पत्र के जिन वादों के साथ सत्ता में आया था, उसमें हिमालय के विषय पर एक अलग यूनिवर्सिटी की स्थापना करने की घोषणा भी शामिल थी। यद्यपि देश के प्रायः सारे विश्वविद्यालयों में हिमालय के नाम पर कोई न कोई शोध कार्य होते रहते हैं। गोविंद बल्लभ पंत हिमालय पर्यावरण एवं विकास संस्थान तो केवल हिमालय के विषय पर ही केंद्रित होकर काम करता रहा है। यह संस्थान एक ऐसा स्रोत है, जहां पर भारत ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया के हिमालय की जलवायु, पर्यावरण और यहां के निवासियों के बारे में पूरी जानकारी मिलती है।

उत्तराखंड में हिमालय दिवस इसलिए मनाने का निर्णय हुआ था कि केंद्र और हिमालयी राज्यों की सरकारें अलग से हिमालय की भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थिति को ध्यान में रखकर कोई ऐसा विकास का मॉडल तैयार करेंगी, जिससे हिमालय का विनाश रुक सके। बुग्याल एक तरह के नम क्षेत्र (वेटलैंड) के रूप में भी जाने जाते हैं। यहां पर जड़ी-बूटियों के अपार भंडार हैं। पुराने समय में इन बुग्यालों तक केवल भेड़-बकरी को लेकर गड़रिये पहुंच जाते थे। बाद में गुज्जर समुदाय के लोग भी सैकड़ों भैंसों के साथ वहां रहने लगे क्योंकि यहां की मखमली घास पशुओं की बहुत सारी बीमारियों को खत्म भी करती है, दूध की गुणवत्ता भी बढ़ाती है। शीतकाल शुरू होते ही सभी पशुचारक बुग्यालों को छोड़कर तराई में रहने आ जाते हैं। उनका आने-जाने का यह क्रम हर वर्ष बना रहता है।

अब बुग्यालों के बीच पर्यटकों की भी बड़ी संख्या में आवाजाही बढ़ गई है। यहां तक कि ऐसे स्थानों का इस्तेमाल उत्सवों, शादी-ब्याह रचाने, निजी बेहतर जीवन के रूप में हो रहा है। ताजा उदाहरण है जून, 2019 के तीसरे सप्ताह का जब औली में गुप्ता बंधुओं की शाही शादी के कारण यहां पर्यावरण प्रदूषण की भारी समस्या पैदा हुई। हिमालयी ग्लेश्यिर, बुग्याल, जंगल के प्रति हमारी इस नासमझी ने ही हिमालय को खतरे में डाल दिया है। राज्य निर्माण के 20 वर्ष बाद भी उत्तराखंड में हालात बदले नहीं हैं। दिल्ली से चलने वाले राष्ट्रीय पार्टियों की सरकारों ने उत्तराखंड को दूषित किया है।

जलवायु परिवर्तन केवल क्षेत्रीय समस्या नहीं, बल्कि एक वैश्विक चिन्ता है, जिसके लिए इन समस्याओं को वैश्विक परिदृश्य से ही समझना होगा। कहा कि हिमालय व मानवाधिकार को लेकर विस्तृत व्याख्यान दिया। जलवायु परिवर्तन से ग्लेशियर पिघल रहे हैं। पहाड़ में मैदान समझ से काम हो रहे हैं। कहा कि ग्लेशियरों की मारक क्षमता कई गुना अधिक होती है, जो पिछले दिनों रैणी तथा तपोवन क्षेत्र में देखने को मिला है। इस आपदा में मारे गए लोगों के लिए तपोवन-विष्णंगाड़ परियोजना की निर्माणदायी संस्था एनटीपीसी को जिम्मेवार माना जाना चाहिए। जोशीमठ दो हजार-तीन हजार फीट तक की ऊंचाई पर ऐसी कोई परियोजना नहीं बननी चाहिए।

सात फरवरी जोशीमठ क्षेत्र में आई आपदा पूरे देश की आपदा थी। जलवायु परिवर्तन पलायन, जमीनों में परिवर्तन तथा गरीब व वंचित जनों की समस्याएं बढ़ी हैं। संघर्ष से बने उत्तराखंड को वर्तमान में चल रहे विकास के मॉडल की जरूरत नहीं है लोगों की आजीविका के साधनों का संरक्षण हो, जिसके विषय पर पिछले दस वर्षों में केंद्र सरकार को सामाजिक कार्यकर्ताओं, पर्यावरणविदों और आम जनता ने कई सुझाव पत्र भेजे हैं। जिसमें कई लोगों के हस्ताक्षर हैं, इस पर भी सरकार का ध्यान जाना चाहिए था। अब स्थिति यह है कि हिमालय दिवस हो या साल के अन्य दिनों में हिमालय के नाम पर होने वाली बैठकें चिंता तक सिमट रही हैं। इन बैठकों में मुख्यमंत्री, मंत्री, सचिव स्तर के प्रतिनिधि भी भाग लेते हैं। फिर भी आधुनिक विकास में निर्माण कार्यों के जो मानक मैदानों के लिए बनाए गए हैं, उसमें थोड़ा भी बदलाव नहीं किया जा रहा है। नतीजतन ग्लेशियरों के निकट बेहिचक भारी निर्माण कार्य हो रहे है। लाखों दुर्लभ वन प्रजातियां, जैव विविधता, आदि नष्ट हो रही हैं। नदियों के दोनों किनारों पर निर्माण कार्यों का मलबा पड़ा है। बाढ़ और भूस्खलन कम होने का नाम नहीं ले रहे हैं। निर्माण कार्यों के ढांचे इतने कमजोर बने हैं कि उनकी बुनियाद हिल रही है।

मीडिया और पर्यावरण कार्यकर्ता इन गंभीर समस्याओं की ओर लगातार ध्यानाकर्षित कर रहे हैं। अब यह बात हिमालयी राज्यों के मुख्यमंत्री भी कहने लगे हैं। यानी सरकारें समस्या का समाधान ढूंढ भी नहीं पा रही हैं। पूर्ववर्ती सरकारों व राजनितिक दलों के सांसदां ने समय-समय पर हिमालय के विषय पर विचार करते रहे है। लेकिन वर्तमान में हिमालय विकास का कोई ऐसा विकास मॉडल नहीं बनाया गया है, जिससे बाढ़, भूस्खलन, भूकम्प से होने वाले नुकसान को कम किया जा सके, हिमालय वासियों का पानी और जवानी हिमालय के काम आ सके और हिमालय को अनियंन्त्रित छेड़-छाड़ से बचाने की प्राथमिकता हो।

हिमालय नीति की मांग आजादी के बाद देश की संसद के सामने कई बार उठाई गई है। इस पर कई अध्ययन एवं अनुसंधान हुये हैं। ग्लेश्यिरों, पर्वतों, नदियों, जैविक विविधताओं की दृष्टि से सम्पंन हिमालयी प्रकृति और संस्कृति का ध्यान योजनाकारों को विशेष रुप से करना चाहिये तथा ग्रीन बोनस यहां की ग्राम सभाओं को मिलना चाहिये। इसको ध्यान में रखकर हिमालय क्षेत्र में रह रहे लोगों, सामाजिक अभियानों तथा आक्रामक विकास नीति को चुनौती देने वाले कार्यकर्ताओं व पर्यावरणविदों ने कई बार समग्र हिमालय नीति बनाने के लिये केन्द्र सरकार को सुझाव दिये हैं। इसके परिणामस्वरुप ही हिमालय की पवित्र नदियां, जलवायु परिवर्तन, लगातार आपदाओं के कारण मैदानी क्षेत्रों पर पड़ रहे प्रभाव को ध्यान में रखते हुये हिमालय लोकनीति का दस्तावेज तैयार हुआ है। जिसके द्वारा हिमालय के लिये अलग विकास नीति की मांग की जा रही है प्राथमिकता में किया जा सके पर्यावरण को हो रहे नुकसान पर बात करनी चाहिए।

ये अजीब सी परिस्थिति है कि स्थानीय लोगों को भी कोई चिंता है। इस तरह के उम्दा कार्यक्रम हिमालय पर्यावरण के संरक्षण के साथ-साथ स्वरोजगार के लिये भी मिशाल है। लेकिन प्रहसन आज भी यह है कि कब और कैसे हिमालय क्षेत्र में विकास की नियोजित परियोजनाएं बनेंगी। ऐसे अनसुलझे सवालों को लेकर हिमालय दिवस की सार्थकता है। जगजाहिर यह है कि शिमला कनक्लेव में तत्काल पर्यावरण मंत्री ने ग्रीन बोनस की घोषणा करते हुए यह भी आगाह किया था कि अपने देश के वैज्ञानिक पर्यावरण जैसे संवेदनशील विषय को लेकर कम-से-कम एक राय प्रस्तुत करें ताकि भविष्य में कोई ठोस निर्णय लिया जा सके।

लेखक को उद्यान विभाग के वैज्ञानिक के पद पर काम करने का अनुभव प्राप्त हैं और वर्तमान में वह दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।

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