उत्तराखंड में भूतपूर्व सशस्त्र सैन्य और अर्द्वसैनिक बलों के संगठन हैं, जो अपने-अपने विचारों और लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए संगठित हैं। इनकी संख्या लगभग 50 से 60 है। हम उत्तराखंड की राजनीति में संगठित रूप से भागीदारी करने में क्यों असफल रहे हैं? यह विचारणीय और गहन चिंतन का विषय है।
ब्रिगेडियर सर्वेश दत्त डंगवाल
उत्तराखंड, जो एक सशस्त्र सेना और अर्द्वसैनिक बल बाहुल्य प्रदेश है, में दुर्भाग्यवश हमारा राजनीतिक प्रतिनिधित्व नदारद है। हम, एक संगठनात्मक वास्तविकता के तौर पर प्रदेश की लगभग 15 प्रतिशत जनसंख्या में उपस्थित हैं, लेकिन राजनीतिक परिदृश्य में हम केवल मतदाता के तौर पर ही अपनी पहचान बना पाते हैं। सशस्त्र सेना और अर्द्वसैनिक बल के सदस्य देशभक्ति, अनुशासन, क्षमता और नेतृत्व गुणों से सम्पन्न होते हैं। किसी भी समाज के लिए यह एक बड़ी सौभाग्य की बात है, खासकर लोकतांत्रिक व्यवस्था में, जहां प्रत्येक व्यक्ति को अपने मत और विचारधारा को स्वतंत्र रूप से व्यक्त करने का अधिकार होता है। फिर भी, ऐसी परिस्थिति में हम उत्तराखंड की राजनीति में संगठित रूप से भागीदारी करने में क्यों असफल रहे हैं? यह विचारणीय और गहन चिंतन का विषय है।
उत्तराखंड में अन्य भूतपूर्व सशस्त्र सैन्य और अर्द्वसैनिक बलों के संगठन हैं, जो अपने-अपने विचारों और लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए संगठित हैं। इनकी संख्या लगभग 50 से 60 है। यह बात अपने आप में आश्चर्यजनक है कि हम संगठित होने के बावजूद भी, प्रभावी रूप से एकजुट नहीं हो पा रहे हैं। प्रत्येक संगठन का आधारभूत विचार उसके सदस्यों की व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान, सुशासन, और प्रदेश एवं देश की प्रगति और सुरक्षा पर केंद्रित है।
अगर यह सत्य है, तो फिर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि एक समान लक्ष्य होने के बावजूद, हम सामूहिक मानसिकता के अभाव और अनावश्यक अहंकार से ग्रस्त होकर विभाजित हो गए हैं। ऐसी स्थिति में एक उत्कृष्ट नेतृत्व की आवश्यकता होती है, जिसकी हमारे संगठनों में कमी है।
आज, भूतपूर्व सशस्त्र सैनिक और अर्द्वसैनिक संगठनों को इस पर गहन विचार कर, एक योजनाबद्ध तरीके से रणनीति बनाने की आवश्यकता है। इस योजना का सबसे प्राथमिक कदम यह है कि सभी संगठनों के शीर्ष प्रतिनिधि एक मंच पर आएं और संवाद करें।
यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि उत्तराखंड के वरिष्ठ सशस्त्र सैन्य और अर्द्वसैनिक अधिकारियों ने इस दिशा में परिपक्वता और नेतृत्वपूर्ण जिम्मेदारी नहीं निभाई है। जिस ओजस्वी नेतृत्व का प्रदर्शन उत्तराखंड के निर्माण के समय किया गया था, वह अब एक इतिहास बन चुका है। वर्तमान की परिस्थितियों का आकलन कर, हमें एक नई सोच और शक्ति के साथ संगठित होना होगा।
आज, मैं यह भी स्वीकार करता हूं कि हमारे सेवानिवृत्त सैनिकों (PBOR) में वह जज्बा, ऊर्जा, क्षमता, भावना और संयोजन योग्यता है, जो हमारे वरिष्ठ अधिकारियों में अनुपस्थित है। इसलिए, सशस्त्र सैन्य और अर्द्वसैनिक संगठनों को एक मंच पर लाने और एकजुट करने का प्राथमिक कदम यह है कि हम व्यक्तियों की कार्य क्षमता के आधार पर, ना कि उनके सेवारत पदों के आधार पर, उन्हें नेतृत्व प्रदान करें।
शिष्टाचार और पद की मर्यादा का सम्मान करते हुए, हमें लोकतांत्रिक परिप्रेक्ष्य में वर्तमान राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति के लिए इस दृष्टिकोण से प्रेरित होकर, उत्तराखंड की राजनीतिक भागीदारी में हिस्सा लेने के लिए तत्पर होकर एकजुट होना चाहिए।
यह समय है, संगठन की शक्ति का सदुपयोग कर, प्रदेश में राजनीतिक भागीदारी में प्रवेश करने का। इस प्रयास में हम सबको मिलकर और एक योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ना चाहिए, अन्यथा हम अपनी अपार संगठनात्मक संभावनाओं को व्यर्थ करेंगे।
हमें नेता नहीं बनना है, बल्कि नेतृत्व करना है – एक कुशल और प्रगतिशील राज्य बनने के लिए।
मैं, आप सबसे निवेदन करता हूं कि इस सोच को अपने संगठनों के बीच साझा करें और शीघ्र ही इस पर संवाद करें। हमें 2027 के विधान सभा चुनाव में अपनी राजनीतिक पहचान बनानी है। अब हम केवल मतदाता नहीं रहेंगे, बल्कि विधायक बनकर उत्तराखंड के सुशासन में अपना योगदान देंगे।
जय हिंद।
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