मकर संक्रांति या घुघुतिया प्रसिद्ध हिंदू त्योहारों में से एक है और उत्तराखंड में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार इस दिन सूर्य कर्क राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। यह दिन सूर्य के उत्तरायण (उत्तरायण) होने का प्रतीक है।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
उत्तराखंड का बागेश्वर जिला कई आंदोलनों का गवाह रहा है। इन्हीं में से एक कुली बेगार आंदोलन भी है। एक ऐसा आंदोलन जिसकी बदौलत भारत के लोगों को अंग्रेजों से लड़ने की ताकत मिली थी। यह आंदोलन बागेश्वर में 14 जनवरी 1921 को हुआ था, इसलिए आज का दिन बागेश्वर के लिए ऐतिहासिक और गौरवान्वित कर देने वाला है। कुली बेगार प्रथा से परेशान होकर आम जनता ने इस आंदोलन की हुंकार भरी थी। आंदोलन का मकसद अंग्रेजों पर दबाव डालकर कुली बेगार प्रथा को खत्म करना था।
बागेश्वर की धरती पर इस आंदोलन को रक्तहीन क्रांति के नाम से भी जाना जाता है। आंदोलन का नेतृत्व बद्रीदत्त पांडे और हरगोविंद पंत ने किया था। इन दिनों बागेश्वर में उत्तरायणी मेला चल रहा है। उत्तरायणी मेले के दूसरे दिन ही बागेश्वर में कुली बेगार प्रथा का अंत हुआ था। बागेश्वर के सरयू तट पर करीब 50,000 से ज्यादा मेलार्थी और आमजन कुप्रथा अंत के साक्षी बने थे, इसलिए बागेश्वर की धरती के लिए आज का दिन खास है। इसी दिन से बागेश्वर उत्तरायणी मेले में विशेष तौर पर राजनीतिक पंडाल लगाए जाते थे, जिनमें सभी दलों के राजनेता अपनी-अपनी उपलब्धियां गिनाते थे।
बागेश्वर के वरिष्ठ नागरिक ने बताया कि कुली बेगार प्रथा अंग्रेजों की ओर से चलाई गई एक कुप्रथा थी, जिसमें बिना मानदेय के पहाड़ के लोगों को अंग्रेजों की मजदूरी करनी होती थी। यहां तक कि लोगों को अंग्रेजों का मल-मूत्र तक साफ करना पड़ता था। इस काम के बदले में पहाड़ के लोगों को मेहनताना नहीं दिया जाता था। इन सब जुल्मों से परेशान होकर उत्तराखंड के लोगों ने इस कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाई थी। अंग्रेजों के रजिस्टरों को बहाने के लिए सरयू तट का चयन किया गया। यहां कुमाऊं क्षेत्र के करीब 10,000 से ज्यादा ग्राम प्रधानों ने अंग्रेजों के काम करने के लिए बनाए गए रजिस्टर सरयू नदी में बहाकर कुली बेगार प्रथा का अंत किया। हालांकि इस दौरान अंग्रेजों ने उन्हें रोकने की पूरी कोशिश की लेकिन आमजन के आक्रोश के सामने अंग्रेजों को हार माननी पड़ी। अंग्रेजों ने लोगों पर गोली चलाने की कोशिश भी की। वहां मौजूद लोगों की ललकार सुनकर अंग्रेजों को अपना फैसला बदलकर भागना पड़ा।
मकर संक्रांति या घुघुतिया प्रसिद्ध हिंदू त्योहारों में से एक है और उत्तराखंड में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार इस दिन सूर्य कर्क राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। यह दिन सूर्य के उत्तरायण (उत्तरायण) होने का प्रतीक है। प्रवासी पक्षी भी पहाड़ों पर लौट आते हैं, क्योंकि मौसम में परिवर्तन होता है। मकर संक्रांति पर लोग खिचड़ी दान में देते हैं और कुमाऊं बागेश्वर (सरयू और गोमती संगम) और रानीबाग (गौला) में पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं। वे घुघुटिया (जिसे काले कौवा के नाम से भी जाना जाता है) का त्योहार मनाने के लिए उत्तरायणी मेलों में भी भाग लेते हैं। इस अवसर में घर घर में आटे के घुघुत बनाये जाते हैं और अगली सुबह को कौवे को दिये जाते हैं (ऐसी मान्यता है कि कौवा उस दिन जो भी खाता है वो हमारे पितरों (पूर्वजों) तक पहुंचता है)। कुमाऊं में इस दिन आटे की घुघुत, खजूर आदि बनाए जाते हैं, जबकि गढ़वाल में खिचड़ी खाने और दान देने का रिवाज है।
गढ़वाल में इस दिन उड़द दाल की खिचड़ी बनायी जाती है और पंतंग उड़ाने का रिवाज भी है। इस दिन ब्राह्मणों को उड़द दाल और गांव भर में घूमते-फिरते हैं। इस दिन ब्राह्मणों को उड़द दाल और चावल दान करने का रिवाज भी गढ़वाल में है। गांवों में इसे चुन्निया त्योहार भी कहा जाता है, जहां इस दिन खास किस्म के आटे से मालपुवे (चुन्निया) बनाए जाते हैं। कुमाऊं में कौवे को घुघुत खिलाने का रिवाज है और इसके लिए कौवे को ‘काले कौवा काले, घुघती माला खाले’ गाकर बुलाया जाता है। आटे में सौंफ, गुड आदि इससे अलग-अलग आकार बनाए आते हैं और कुछ देर सुखाकर घी में तल लिया जाता है, इन्हें ही घुघुत कहते हैं। बच्चे घुघुत की माला बनाकर और उसे गले में डालकर गांव भर में घूमते-फिरते हैं।
कुमाऊं में उत्तरायणी के दिन सरयू, रामगंगा, काली, गोरी और गार्गी (गौला) आदि नदियों में कड़ाके की सर्दी के बावजूद लोग सुबह स्नान-ध्यान कर सूर्य का अर्घ्य चढ़ाकर आराधना करते हैं। उत्तरैणी कौतिक का सबसे बड़ा मेला बागेश्वर के सरयू बगड़ (मैदान) पर लगता है। एक समय यहां हुड़के की थाप पर झोड़े चांचरी, भगनौल और छपेली गाने की परंपरा थी। काली कुमाऊं, मुक्तेश्वर, रीठागाड़, सोमेश्वर और कत्यूर घाटी के डांगर और गितार इस तरह समां बांध देते थे, जिससे सुबह होने का पता ही नहीं लगता था। अब समय की बदलती बयार प्रफेशनल कलाकर मंच पर तीन दिन तक सांस्कृतिक प्रोग्राम करते हैं। यही नहीं मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के इस अवसर पर उत्तराखंड में नदियों के किनारे जहां तहां मेले लगते हैं। इनमें दो प्रमुख मेले हैं- बागेश्वर का उत्तरायणी मेला (कुमांऊ क्षेत्र में) और उत्तरकाशी में माघ मेला (गढ़वाल क्षेत्र में)।
बागेश्वर का उत्तरायणी मेला तो दुनियाभर में प्रसिद्ध है। बागेश्वर के अलावा हरिद्वार, रुद्रप्रयाग, पौड़ी और नैनीताल जिलों में भी उत्तरायणी मेलों की रौनक देखने लायक होती है। ‘उत्तरायणी’ का त्योहार उत्तराखंड में सबसे पवित्र त्योहारों में से एक है। इस त्योहार का उत्तराखंड राज्य में बहुत महत्व है और इसे काफी अलग तरीके से मनाया जाता है। उत्तरायणी का त्योहार उत्तराखंड के कुमाऊं और गढ़वाल क्षेत्रों की संस्कृति और रीति-रिवाजों को दर्शाता है। हिंदू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, उत्तरायणी के दिन सूर्य कर्क (कर्क) राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। इसका अर्थ है कि इस दिन से सूर्य ‘उत्तरायण’ हो जाता है, अर्थात वह उत्तर की ओर गमन करने लगता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन से प्रवासी पक्षी पहाड़ों की ओर लौटने लगते हैं क्योंकि यह दिन ऋतु परिवर्तन का संकेत देता है। इसी पवित्र धरती से ही 1921 में अंग्रेजों के काला कानून कुली बेगार का अंत हुआ था। उन्होंने कहा कि वेदों में भी सरयू का उल्लेख है।
लेखक दून विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं।
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