अनिल धस्माना की छवि बिना किसी दबाव के निष्पक्ष कार्रवाई करने वाले अधिकारी की रही है। उन्हें रॉ चीफ बनाने के मोदी सरकार के फैसले से ही पाकिस्तानी हुकूमत में खलबली मच गई थी। अब उनके एनटीआरओ चीफ बनने से पाकिस्तान की बेचैनी बढ़ना लाजिमी है।
उत्तराखंड की एक अन्य विभूति और सुपरकॉप की कहानी सुनाऊं उससे पहले उनके जीवन से जुड़ी एक बात का जिक्र करना चाहूंगा जो मुझे रोज झकझोरती है, खासकर जब मेरे बच्चे मेरे पास होते हैं. वह बात एक पिता के रूप में मेरी जिम्मेदारियों का स्मरण कराती रहती है कि बच्चों के कच्चे मन पर उनके आसपास की हर छोटी-बड़ी घटना का असर होता है। न जाने कौन सी घटना, कौन सी बात उनके मन में किसी मूल्य के प्रति ऐसा समर्पण जगा दे कि उसका संकल्प अनिल कुमार धस्माना सरीखा बन जाए।
भारत की खुफिया एजेंसी रिसर्च एंड अनालिसिस विंग यानी रॉ के प्रमुख रहे अनिल कुमार धस्माना के बचपन से जुड़ा का एक किस्सा है जिसके बारे में खुद धस्माना जी कहते हैं कि उसने मुझे इतना प्रभावित करता है कि आज मैं जो हूं उसमें उसका बड़ा योगदान है। धस्माना जी के गांव में एक रिटायर्ड व्यक्ति प्रयागदत्त धस्माना हुआ करते थे। प्रयागदत्त जी ने लाटरी का एक टिकट खरीद रखा था। गांव के किसी व्यक्ति ने प्रयागदत्त जी को बताया कि आपकी लॉटरी का इनाम निकला है। प्रयागदत्त जी को लगा कि हंसी-ठट्ठा कर रहा है। लॉटरी कई लाख की थी, आम लोगों को अक्सर ऐसा लगता है कि उनकी किस्मत में कहां यह सब। प्रयागदत्त जी उस व्यक्ति की बात को अनसुना करते रहे पर वह अपनी बात पर अड़ा रहा। टालने के लिए प्रयागदत्त जी ने बोल दिया अगर बात सच हुई तो फिर उस इनाम के दो हिस्से होंगे- आधा तेरा और आधा मेरा। प्रयागदत्त जी की लॉटरी तो वास्तव में निकली थी। औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उन्हें लॉटरी के पैसे मिले तो उन्होंने अपने वादे के अनुसार आधा उस व्यक्ति को आधी रकम दे दी। अपना वचन निभाने के कारण प्रयागदत्त की बड़ी प्रसिद्धि हुई बड़ा सम्मान मिला। लोग कहते कि ईमान का पक्का हो तो प्रयागदत्त जी जैसा। उनका सम्मान होता, उनकी उपमाएं दी जातीं।
अनिल धस्माना के दिमाग में यह बात बैठ गई कि ईमानदारी बड़ी गुणकारी चीज है। साधारण इंसान भी अपने काम से शोहरत पा सकता है। बचपन में जो बीज मन में पड़े, उसने उन्हें जीवनभर ईमानदारी पर अडिग रखा। चाहे बात पढ़ाई की हो या फिर करियर की, ईमानदारी के मूलमंत्र ने उत्तराखंड के एक छोटे से गांव के सामान्य परिवार में जन्मे अनिल धस्माना को उन बुलंदियों तक पहुंचाया जहां लाखों में कोई एक पहुंचता है।
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साधारण पृष्ठभूमि, असाधारण उपलब्धियां
सफलता के फलक पर चमकने वाला यह सितारा कितनी साधारण पृष्ठभूमि से निकलकर आया है, इसका अहसास उनके गांव पहुंचकर होता है। ऋषिकेश से 70 किलोमीटर दूर भागीरथी और अलकनंदा के संगम देवप्रयाग से धस्माना के गांव का रास्ता शुरू होता है। उनके गांव का नाम है तोली। यह कमोबेश वैसा ही है, जैसा कि पहाड़ के दूसरे गांव होते हैं। देवप्रयाग से गांव की दूरी 50 किलोमीटर है। इसी तोली गांव में दो अक्टूबर 1957 को महेशानंद धस्माना के घर एक लड़के का जन्म हुआ, नाम रखा गया अनिल। अनिल का बचपन गांव में बीता और शुरुआती पढ़ाई गांव के स्कूल में ही हुई। चार भाई और तीन बहनों में अनिल धस्माना सबसे बड़े हैं। अपने पुश्तैनी मकान के जिस छोटे से कमरे में रहकर उन्होंने पढाई की, आज भी उनके चाचा के पोते उसमें बच्चे पढाई करते हैं। धस्माना की चाची और उनका परिवार आज भी तोली गांव में ही रहता है। धस्माना बचपन से ही प्रतिभाशाली, पढ़ाकू और शांत स्वभाव के लड़के थे। घर के सारे कामों में दादी का हाथ बंटाया करते थे। अनिल धस्माना के रॉ का प्रमुख बनने के बाद मैं एक बार तोली गांव गया था। गांव के लोग उनकी कामयाबी पर बड़ा गर्व महसूस करते हैं। अनिल धस्माना बड़े अधिकारी हो जाने के बावजूद गांव, परिवार और लोगों के संपर्क में हमेशा बने रहे। आना-जाना भी होता रहता है। मेरी मुलाकात उनकी चाची भानुमति से हुई। उन्होंने भतीजे अनिल के बचपन की बहुत सी बातें साझा कीं। बचपन में जंगल से घास और पानी लेने जाने की मेहनत के साथ-साथ पढ़ाई को लेकर तत्परता, गांवों वालों के पास अनिल को लेकर जो भी यादें हैं, सुखद ही हैं।
अनिल ने आठवीं तक की पढ़ाई गांव के ही स्कूल में की थी। स्कूल के साथी महेश धस्माना बीती यादों का जिक्र करते हुए बताते हैं कि वह बचपन से ही पढ़ाई को लेकर गंभीर थे। अपने लक्ष्य के प्रति उनके समर्पण का पूरा गांव कायल था। आज भी उनका गांव का सीधा और मिलनसार स्वभाव बरकरार है। गांव में होने वाले शादी-ब्याह और कुल देवता की पूजा में वह हमेशा शामिल होते हैं। लैंसडाउन के पास स्थित ताड़केश्वर धाम वह हर साल पहुंचते हैं।
बचपन में ही चढ़ गया था वर्दी का जुनून
PHOTO: हिल-वॉरियर्स से साभार।
उनके शिक्षक रहे 82 वर्षीय शशिधर धस्माना को अपने शिष्य की विलक्षण प्रतिभा से जुड़ी कई घटनाएं याद हैं। उन्होंने ऐसी ही एक घटना का जिक्र मुझसे किया था। बात तब की है जब अनिल तीसरी कक्षा में पढ़ते। स्कूल के कार्यक्रम में जिला शिक्षा अधिकारी आए थे। एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन हुआ था। अनिल ने उसमें बड़ा शानदार भाषण दिया था, जिसके लिए अनिल को 300 रुपये का वजीफा भी मिला था। मैंने अनिल धस्माना को उनके गुरू से सुनी बात का जिक्र किया तो वह भावुक हो गए। धस्माना कहते हैं, दादी के साथ तोली गांव में रहकर आठवीं तक पढ़ाई की फिर दिल्ली आना पड़ा लेकिन तब से लेकर अब तक गांव से लगाव कम नहीं हुआ है। अपने गांव के प्रतिभाशाली बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए मेरी अपने माता पिता के नाम से गांव के स्कूल के लिए 5 लाख रूपये देने की योजना है और अपने पेंशन के पैसे से हर साल तीन गरीब बच्चों के लिए स्कॉलरशिप भी दूंगा। जिस गांव ने मुझे इतना कुछ दिया, उसके लिए मैं जो कर सकूं वह थोड़ा होगा।
अनिल के पिता की सिविल एविएशन विभाग में नौकरी थी। नौकरी ऐसी थी कि तबादले होते रहते थे। वह अपने परिवार के साथ दिल्ली चले आए और फिर वहां से जहां-जहां तबादला हुआ सब साथ रहते। इसलिए अनिल की पढ़ाई घूम-घूमकर हुई है। बारहवीं की परीक्षा उन्होंने महाराष्ट्र बोर्ड से पास की है और वह टॉपर रहे थे। दिल्ली में रहने के दौरान परिवार बड़ा होने की वजह से जब अनिल को पढ़ने का माहौल नहीं मिल पाता था, तो वह घर से बाहर निकल जाते थे। ऐसे में लोधी पार्क की स्ट्रीट लाइट उनकी पसंदीदा जगह बन जाती थी जिसके नीचे बैठकर वह इत्मिनान से पढ़ सकते थे। वहीं बैठकर उन्होंने लगभग सभी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारियां पूरी कीं। परिवार की स्थितियां ऐसी थीं कि 20 वर्ष का होने से पहले उन्हें नौकरी करनी पड़ी। धस्माना जी बताते हैं कि जब वह एम.कॉम. की पढ़ाई कर रहे थे तो उसी दौरान न्यू इंडिया इंश्योरेंस में मैनेजर के पद पर उनका चयन हो गया था। एम.कॉम. की पढ़ाई उन्होंने शाम की पाली में की थी क्योंकि सुबह उन्हें नौकरी पर जाना होता था। जब वह एम.कॉम. कर रहे थे उसी दौरान उनका और उनके दो दोस्तों का एयर फोर्स में सलेक्शन हो गया था पर उन्हें ग्राउंड ड्यूटी मिली। इसके कारण उन्होंने एयरफोर्स की नौकरी ज्वाइन नहीं की। धस्माना कहते हैं कि उन्हें अफसोस तो होता था कि फौज का हिस्सा बनकर देश की सेवा का अवसर मिला था और मैंने उसे छोड़ दिया। बकौल अनिल धस्माना, “मैंने बचपन में गांव के अधिकांश पुरूषों को सेना की वर्दी पहने देखा है। गांव में सेना में जाने का क्रेज था। इसके अलावा चीन के साथ युद्ध के बाद पर्वतीय इलाकों में एसएसबी के ट्रेनिंग कार्यक्रम शुरू हुए। हमारे गांव के पास ही ऐसी ट्रेनिंग होती थी। गांव में रहने के दौरान मैं ट्रेनिंग नहीं कर पाया क्योंकि तब मेरी उम्र कम थी। मन में उस बात की भी कसक थी। फिर एयरफोर्स की नौकरी वाला वाक्या हो गया। इन दो घटनाओं से मुझे वर्दी पहनने की प्रेरणा मिली।”
धस्माना जी देश की सेवा के मौके चूकने का अफसोस कर रहे थे लेकिन नियति ने तो उनके लिए कुछ और ही नियत कर रखा था। इंश्योरेंस की नौकरी ठीक चल रही थी पर वर्दी में देश सेवा का जुनून हिलोरे मारता रहा। उन्होंने सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास की और अपने पहले प्रयास में ही सफल रहे। 1981 में आईपीएस बन गए और काडर मिला मध्य प्रदेश। धस्माना मध्य प्रदेश पुलिस में कई अहम पदों पर रहे और बहुत लोकप्रिय रहे। इंदौर के एसपी के रूप में उनका कार्यकाल तो ऐसा रहा कि दो दशक से ज्यादा का बीत चुका है लेकिन पुराने लोग अब भी उनके किस्से सुनाते हैं।
आईपीएस से खुफिया एजेंट तक का सफर
अनिल धस्माना आईपीएस बनने के बाद मध्य प्रदेश के अलग-अलग शहरों में तैनात रहे, लेकिन धमक बनी इंदौर से। 1989 से 1993 तक वह इंदौर के एसपी रहे। यह उनकी यह चौथी पोस्टिंग थी। इंदौर में काले कारोबार पर सफलतापूर्वक नकेल कसने के लिए उन्हें आज भी याद किया जाता है, हालांकि इस अभियान में उनकी जान जाते-जाते बची।
बात सितंबर 1991 की है। ‘मिनी बंबई’ कहे जाने वाले इंदौर का भीड़-भाड़ वाला एक इलाका है बंबई बाजार। यहां स्मगलिंग, नशे का कारोबार से लेकर देह व्यापार तक, हर अवैध धंधा खुलेआम हुआ करता था। इलाका एक ऐसा भूल-भुलैया था कि जहां पुलिस भी घुसने से डरती थी। बंबई बाजार के जरायम कारोबार का बेताज बादशाह था बाला बेग।
डॉन बाला बेग के खौफ और काले कारोबार की कहानी किसी फिल्मी से कम नहीं है। बाला बेग के पिता करामात बेग पंजाब के जाने-माने पहलवान थे। वह एकबार कुश्ती लड़ने इंदौर आए थे। होल्कर वंश के राजा ने उन्हें इंदौर में ही बस जाने को कहा और वह वहीं के हो गए। करामात बेग की तीन पत्नियां और दस लड़के थे। बाला उर्फ इकबाल बेग उनकी दूसरी पत्नी की सबसे बड़ी औलाद था। पहलवान परिवार ताल्लुक रखता था, राजघराने से पहचान थी, लंबा-चौड़ा परिवार था। बाला बेग की इलाके में दबंगई चलने लगी। शुरू में तो वह हफ्तावसूली, मारपीट, धमकाने जैसे छोटे-मोटे अपराध किया करता था लेकिन जल्द ही मुंबई की माफियागिरी का चस्का चढ़ गया। बंबई में तस्कर हाजी मस्तान की तूती बोलती थी और बाला बेग ‘मिनी बंबई’ इंदौर में उसका दाहिना हाथ था जहां से वह पूरे मध्य प्रदेश में हाजी मस्तान का काम संभालता था।
ऐसे काम के लिए संकरी गलियों और घनी बसावट वाले बंबई बाजार से बेहतर ठिकाना क्या होता! यहां उसके जुए-सट्टे, शराब और शबाब के अड्डे थे। शहर के लोग इस हिस्से में आने से डरते थे। बंबई बाजार की गलियों में तीन-चार मकानों को मिलाकर बाला बेग ने एक बड़ा अड्डा बना लिया था। इसके बेसमेंट में जुए उसका जुए का अड्ड़ा चलता था। मकान में आने-जाने के कई रास्ते थे। बाला बेग ने ऐसा चक्रव्यूह तैयार कर रखा था कि पुलिस के लिए भी इस इलाके में घुसना मुश्किल था। जब कभी भी पुलिस ने कार्रवाई की कोशिश की तो बाला बेग के परिवार या आसपास की महिलाएं रास्ता रोक कर खड़ी हो जातीं। जब तक पुलिस इन महिलाओं से निपटती, जुए के अड्डे के लोगों सतर्क करके उन्हें तितर-बितर कर दिया जाता। अवैध धंधे से जमा दौलत के बूते बाला बेग ने 80 और 90 के दशक में मुसलमानों के बीच रॉबिनहुड की छवि बनानी शुरू कर दी। धीरे-धीरे वह मध्य प्रदेश के मुस्लिमों का बड़ा रहनुमा माना जाने लगा। उसने 1989 में इंदौर से जनता दल के टिकट पर पूर्व मंत्री प्रकाश चंद्र सेठी और सुमित्रा महाजन के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ा था। बाला बेग को करीब 90 हजार वोट मिले थे।
सितंबर 1991 में इंदौर के कुछ इलाकों में तनाव की स्थिति बनी। एहतियातन बंबई बाजार में भी पुलिस की मौजूदगी बढ़ा दी गई थी, लेकिन बाला बेग की हिम्मत इतनी बढ़ी हुई थी उसके लोगों ने बंबई बाजार स्थित पुलिस चौकी में तोड़फोड़ की।इस घटना ने पुलिस-प्रशासन को हिलाकर रख दिया। इस समय इंदौर में युवा एसपी अनिल कुमार धस्माना तैनात थे। सूचना मिलने के बाद धस्माना दल-बल के साथ बंबई बाजार में बाला बेग के ठिकाने पर पहुंचे। महिलाओं ने पुलिस का रास्ता रोकना शुरू किया लेकिन पुलिस पूरी तैयारी से आई थी। बेग के मकान के ऊपर से महिलाओं ने पुलिसकर्मियों पर पत्थर फेंके। किसी ने एसपी धस्माना को मारने के लिए छत से बड़ा सिलबट्टा फेंका। धस्माना का ध्यान तो नहीं गया लेकिन उनके अंगरक्षक छेदीलाल दुबे ने देख लिया और अपने साहब को बचाने के लिए उन्हें धक्का दे दिया। एसपी धस्माना पर फेंका गया सिलबट्टा अंगरक्षक दुबे को लगा। सिर पर गंभीर चोट आई थी और इलाज के दौरान ही दुबे की मौत हो गई थी।
पुलिस कप्तान पर जानलेवा हमले की खबर जंगल में आग की तरह फैल गई। पुलिस प्रशासन उबल पड़ा। मामले की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने बाला बेग पर सख्त कार्रवाई करने के लिए पुलिस को खुली छूट दी। इसके बाद शुरू हुआ एस.पी अनिल धस्माना की अगुवाई में ‘ऑपरेशन बंबई बाजार’। उन्होंने भारी फोर्स के साथ पहले पूरे बंबई बाजार को चारों तरफ से घेरा गया और जुआ-सट्टा चलाने वालों को घरों में घुसकर दबोचना शुरू किया। बेग परिवार के सारे अड्डों को खत्म कर दिया गया। अतिक्रमण कर बनाए गए अड्डों को भी ढहा दिया गया। बाला बेग ने खुद को अपने बड़े से घर में बंद कर लिया। धस्माना ने खुद बाला बेग के घर का दरवाजा तोड़कर उसे पकड़ा था। इस कार्रवाई ने धस्माना की एक दबंग अधिकारी की छवि बनाई। उनकी चर्चा दिल्ली तक पहुंची। कुछ जब इंदौर से धस्माना का तबादला हुआ तो विदाई देने के लिए पूरे शहर का पुलिस महकमा इकट्ठा हुआ था। पुलिसवालों के संग लोगों ने काफी दूर तक पैदल चलकर उन्हें विदाई दी थी।
मध्य प्रदेश में उनके काम की शोहरत सुनकर सरकार ने कुछ समय के लिए कुछ टास्क के साथ गुजरात भेज दिया। काफी वक्त तक उन्होंने कच्छ और भुज में सेवाएं दीं और टास्क पूरे किए। काम से सरकार इतनी प्रभावित हुई कि जल्द ही उन्हें दिल्ली बुला लिया गया।
दिल्ली में तैनाती से उन्हें सीनियर अधिकारियों को अपनी क्षमता का परिचय देने का मौका मिला। सरकार ने महसूस किया कि अनिल धस्माना का इस्तेमाल विदेशों में भारत के हितों को साधने में भी किया जा सकता है। उन्हें मॉरीशस से लेकर मालदीव और जर्मनी तक में तैनाती मिली। धस्माना को तो ऐसे मौकों की जैसे तलाश थी। उन्होंने अपनी क्षमता प्रदर्शन का कोई मौका नहीं गंवाया और तरक्की की सीढियां चढ़ते गए। फिर दिल्ली स्थित कैबिनेट सचिवालय में विशेष सचिव के पद पर भी रहे। फिर वहां से भारत की विदेशी खुफिया सेवा रॉ से जुड़े और 26 साल रॉ मे अपनी सेवाएं दीं। रॉ के प्रमुख बनने से पहले वह एजेंसी के स्पेशल डायरेक्टर भी रहे हैं।
रॉ प्रमुख बनने की कहानी
वैश्विक राजनीति बहुत सी नई करवटें ले रही थीं तो भारत में भी नरेंद्र मोदी सरकार का फोकस शिफ्ट हुआ। इंद्र कुमार गुजराल सरकार के समय रॉ के सभी मिशन बंद कर दिए गए। रॉ का नेटवर्क बिखरने लगा और उसका परिणाम कश्मीर में दिख भी रहा था। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रॉ ने फिर से अपने मिशन, खासतौर से पाकिस्तान, अफगानिस्तान के क्षेत्रों में, को शुरू करने की अनुमति मांगी। बताया जाता है कि रॉ ने सरकार के सामने जो प्रस्ताव रखा था उसे मूर्तरूप देने में वर्तमान राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल की भी भूमिक रही थी। बहरहाल वाजपेयी सरकार इस पर निर्णय नहीं कर पाई और सरकार चली भी गई। उसके बाद से रॉ को इंतजार था राजनीतिक इच्छाशक्ति का। नरेंद्र मोदी 2014 में सत्ता में आए और अजित डोवाल मुख्य सुरक्षा सलाहकार बने। कयास लगाए जा रहे थे कि भारत के विदेशी खुफिया मिशन में फिर से तेजी आएगी।
प्रधानमंत्री ने 15 अगस्त 2016 को लाल किले से अपना भाषण दिया। उस भाषण में उन्होंने पाकिस्तान के बलूचिस्तान, गिलगित और पाक अधिकृत कश्मीर का जिक्र किय़ा। प्रधानमंत्री ने कहा कि बलूचिस्तान, गिलगित और पोओके के लोग जिन्हें न मैंने देखा है न मिला हूं, वे भारत के प्रधानमंत्री की सराहना कर रहे हैं। यह 125 करोड़ भारतीयों का सम्मान है। मैं उनका शुक्रगुजार हूं। प्रधानमंत्री के भाषण ने बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया था। रॉ का अब वापस अपनी रौ में आना तय था।
मृतप्राय होने की कगार पर पहुंच चुके रॉ के नेटवर्क को जिंदा करने की कमान किसके हाथ सौंपी जाए?
अनिल धस्माना ने रॉ में लंबा समय गुजारा था। उन्हें पाकिस्तान और इस्लाम के मामलों का विशेषज्ञ माना जाता है। ‘रॉ’ में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने बलूचिस्तान पर बहुत काम किया था। रॉ का प्रमुख चुनने की जिम्मेदारी एनएसए डोवाल पर थी। प्रधानमंत्री के भाषण से स्पष्ट था कि बलूचिस्तान पर फोकस होगा और रॉ का कोई अफसर जो बलोचों को सबसे बेहतर समझ सकता था वह थे अनिल धस्माना। आतंकवाद रोधी अभियानों में पकड़ भी धस्माना और को दूसरे अधिकारियों से बेहतर बनाती है। धस्माना, बलूचिस्तान में अपनी पकड़ का काफी पहले परिचय दे चुके थे।
पाकिस्तान के बलूचिस्तान में ग्वादर पोर्ट को बनाने पर चीन ने काफी पैसा खर्च किया है, लेकिन बलोचों में इस बात को लेकर नाराजगी है कि उनके संसाधनों का इस्तेमाल करके चीन को फायदा पहुंचाया जा रहा है। धस्माना सक्रिय हुए। पाकिस्तान और अफगानिस्तान में अपने मजबूत नेटवर्क का उपयोग किया। रॉ के पुराने अधिकारी खुलकर नहीं स्वीकारेंगे लेकिन इशारों-इशारों में वह कह देंगे कि चीन के डिप्लोमेट सर्किल में में बात करके देखिए, उनकी नजर में ग्वादर की देरी के सबसे बड़े विलेन अनिल कुमार धस्माना हैं। कहते हैं धस्माना की सक्रियता ने ग्वादर पोर्ट के विकास का काम छह साल तक रुकवाए रखा। ऐसे में धस्माना एक बड़ा एसेट बन जाते हैं, खासकर तब जब प्रधानमंत्री बलूचिस्तान में अपनी विशेष रूचि दर्शा रहे हों। डोवाल के सामने अनिल धस्माना से बेहतर कोई अफसर मौजूद नहीं था। 31 जनवरी 2017 से अनिल कुमार धस्माना को रॉ के निदेशक के रूप में जिम्मेदारी दी गई।
ग्वादर उनकी कामयाबी की कहानियों में से एक है। लंदन और फ्रैंकफर्ट जैसे शहरों में काम कर चुके धस्माना सार्क और यूरोप डेस्क की जिम्मेदारी भी संभाल चुके हैं। उनके रॉ में आने से संस्था की कार्यशैली में बदलाव भी दिख रहा है। 2019 में ईस्टर के दिन हुए सीरियल बम धमाकों से 15 दिन पहले रॉ ने श्रीलंका की सरकार को संदिग्धों के नाम, पते,फोन नंबर और यहां तक कि वे किस विस्फोटक का इस्तेमाल करने वाले हैं, उसकी जानकारी तक दे दी थी। यह अलग बात है कि इतना पहले और इतनी सटीक जानकारी का श्रीलंका सरकार फायदा नहीं उठा पाई।
उनके नेतृत्व में रॉ ने पिछले कुछ समय में ही कई हैरतअंगेज अभियानों को अंजाम दिया। हाल ही में अगस्ता वेस्टलैंड घोटाले के दलाल क्रिश्चियन मिशेल के दुबई से प्रत्यर्पण में भी धस्माना की टीम ने अहम भूमिका निभाई।
भगवान, गुरू और महिला का सम्मान
अनिल धस्माना से मैं जितनी बार भी मिला हूं, एक बेहद अनुशासित और खुशमिजाज इंसान वाली छाप लेकर लौटा हूं। वह इसका पूरा श्रेय स्कूली शिक्षा और अपने गुरुओं को देते हैं। उन्हें अपने पिता अपने गांव, अपने स्कूल की बातें करना बहुत पसंद है। इन बातों का जिक्र छिड़ने पर उनके आंखों की चमक पढ़ी जा सकती है। वह कहते हैं, “स्कूल में हमें तीन का अनिवार्य रूप से सम्मान करने का पाठ पढ़ाया जाता था- भगवान, दूसरा गुरू और महिला।” अपने गांव के स्कूल की याद बटोरते अनिल धस्माना कहते हैं कि जब हम छोटे थे तो हम लकड़ी लेकर स्कूल जाते थे। उस समय हम अपने गुरूजी के कपड़े धोया करते थे। सबकी बारी निर्धारित होती थी। मुझे अपने गुरूजी के कपड़े धोने का बड़ा इंतजार रहता था कि मेरी बारी आयेगी और मैं गुरूजी के कपड़े धोऊंगा। गांव-घर-परिवार सबसे यही सुना था कि गुरु के प्रति आदर और सेवाभाव रखने वाला व्यक्ति जीवन में सारी सफलताएं प्राप्त करता है. गांव में लोग बहुत अच्छी बातें, सैद्धांतिक बातें किया करते थे। मैं उन बातों को ध्यान से सुनता था, हालांकि सारी बातें समझ नहीं आती थीं फिर भी मैं उन बातों पर विचार करता था।
मेरे पिताजी मुझसे कहा करते थे कि जीवन में जितनी मेहनत करोगे उतना आगे जाओगे। जो भी करना हो अपने दम पर करना चाहिए। अगर आपको किसी काम के लिए भले ही पैसे कम मिल रहे हों लेकिन आपके स्वाभिमान पर आंच नहीं आती, तो उस काम को स्वीकार करना चाहिए। किसी तरह की बेईमानी नहीं करनी चाहिए। पिताजी हमेशा मुझे अनुशासन में रहने की बात किया करते थे। वह मुझसे कहते कि आज तक मैंने किसी के सामने हाथ तक नहीं फैलाया। भगवान से यही प्रार्थना करता हूं कि कभी मेरे बच्चों को न तो कहीं हाथ फैलाना पड़े, न कुछ ऐसा करना पड़े जिसमें किसी की आह लगती हो। उन्होंने हमेशा यही सिखाया कि हम मिट्टी से उठे लोग हैं। उस मिट्टी ने हमें संघर्ष की ताकत दी है। इसलिए हमेशा अपने बलबूते पर आगे बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए। जितनी चादर हो उतना ही पैर फैलाना चाहिए। संतुष्टि नहीं है तो चादर कभी पूरी नहीं पड़ेगी।
एक बार भौतिक विज्ञान के शिक्षक और मेरे पिताजी आपस में बातें कर रहे थे। मैं वहीं था। गुरूजी ने विचार रखा कि इंसान अगर किसी का भला नहीं कर पा रहा है तो फिर उसे जल्दी और स्पष्ट बता देना चाहिए। उसे व्यर्थ टालकर उसको भ्रम में नहीं रखना चाहिए। मैंने इसे जीवन में उतारा है। पिताजी कहा करते थे कि जितना हो सके किसी का भला ही कर दो। किसी की आह नहीं लेनी चाहिए। अगर आप सच्चे हैं, आपका रास्ता सही है तो फिर आपको किसी से डरने की जरूरत नहीं। ईश्वर आपकी सहायता के लिए जरूर आते हैं। जबलपुर में 1984 में मुझे हाथ में छर्रे लग गये थे। आईजी ने मुझे डांटा कि आप गोली से नहीं डरते। अगर गलती से गोली आपको लग गई तो। मुझे उस समय अपने अधिकारी की बात में अपने पिता सा स्नेह नजर आ रहा था। उन्हें मेरी चिंता थी। फिर मुझे पिताजी की बात याद आई कि रास्ता सही है तो डरने की क्या….
अनिल धस्माना कहते है कि मैं सर्वधर्म में विश्वास करता हूं। मैंने रोजे भी रखे हैं। मैने सोचा कि जब तुम रख सकते हो तो मैं भी रख सकता हूं। मेरा मानना है कि आपको अपने कर्मों का हिसाब इसी जन्म में मिलता है। आप पत्थर को पूजते हो तो आदमी को क्यों नहीं। मैं भी साल में एक बार ताड़केश्वर मंदिर जाने की कोशिश करता हूं।
खुफिया सफर जारी रहेगा…
धस्माना की छवि बिना किसी दबाव के निष्पक्ष कार्रवाई करने वाले अधिकारी की रही है। अनिल कुमार धस्माना के रॉ चीफ बनाने के मोदी सरकार के फैसले से पाकिस्तानी हुकूमत में खलबली मच गई थी। माना गया था कि भारत पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति में अपना दखल बढ़ाने जा रहा है। सरकार ने भी उन्हें छह महीने का सेवा विस्तार दिया। इस बात की पूरी संभावना जताई जा रही है कि आने वाली सरकार भी अगर पाकिस्तान की अंदरूनी राजनीति में रूचि दिखाती है तो अनिल कुमार धस्माना पर्दे के सामने से या पीछे से किसी न किसी नई भूमिका में जरूर होंगे। खुफिया संस्थानों की कहानियां खुफिया ही रहती हैं। धस्माना जैसे अफसर बड़ी खामोशी से दुश्मनों को चौंका देते हैं।
• आज तक के एडीटर और लेखक मनजीत नेगी की पुस्तक हिल-वॉरियर्स से साभार
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