काम से हो चर्चा, नाम का क्या है: दिव्यांग पर्यावरण प्रेमी ने गांव को दी हरे-भरे जंगल की सौगात

काम से हो चर्चा, नाम का क्या है: दिव्यांग पर्यावरण प्रेमी ने गांव को दी हरे-भरे जंगल की सौगात

कुछ ऐसे लोग होते हैं, जो चर्चा में आने की चिंता किए बगैर अपने काम में अपनी ही धुन से लगे रहते हैं। ये कहानी है उत्तराखंड के पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट के बालातड़ी गांव के दिव्यांग मोहन नागिला की। जिनके 15 साल की मेहनत की हरियाली कई लोगों के लिए प्रेरणा बन गई है।

कहते हैं अगर इरादा बना लिया जाए तो कोई काम मुश्किल नहीं होता और अपने काम से आप कितनी बड़ी लकीर खींचते हो, यह इस बात से साबित हो जाता है कि किए गए काम की चर्चा कहां तक होती है। हिल-मेल की खास सीरीज #UttarakhandPositive की इस कड़ी में बात एक ऐसे ही शख्स की, जिन्होंने अपने काम से एक ऐसी लकीर खींच दी है, जो अब मिसाल बन गई है।

पिथौरागढ़ का गंगोलीहाट…। ऐसा खूबसूरत इलाका जिसकी अपनी एक अलग चाल है। यहां के बालातड़ी गांव में रहते हैं मोहन नागिला। आज मोहन के किए गए कार्यों की सफलता का प्रमाण बालातड़ी गांव का जंगल दे रहा है, जो अब मई-जून की तपती गर्मीं में लोगों को शीतल हवा देता है, तो बरसात में गांव को भूस्खलन जैसी आपदा से बचाता है। सर्दियों का मौसम आते ही इन्हीं जंगलों से सूखी लकड़ियों की पर्याप्त व्यवस्था हो जाती है। इतना ही नहीं बरसात के बाद पूरे साल इस जंगल से निकलने वाले जल स्रोतों से नदी-नाले पुनर्जीवित होते रहते हैं।

 

‘पेड़ों को जलते देख मोहन नागिला ने कसम खा ली थी कि जिंदगी भर पर्यावरण की सुरक्षा के लिए काम करूंगा। जंगल प्रेम के चलते उन्होंने अविवाहित रहकर पेड़-पौधों की सेवा करने का प्रण लिया, जिसे वे आज भी बखूबी निभा रहे हैं।’

 

दिव्यांग होने के बावजूद मोहन ने पेड़-पौधों को अपने बच्चों की तरह पाला पोसा है। कक्षा 8 तक की पढ़ाई पास के राजकीय पूर्व माध्यमिक विद्यालय कमद से करने के बाद वह आगे नहीं पढ़ पाए। कारण, घर की आर्थिक स्थिति खराब थी। लेकिन केवल पढ़ाई छूटी, मन में परोपकार के भाव को उन्होंने कभी नहीं अलग होने दिया। मोहन ने शुरुआत में गांव में जंगलों की आग की जद में आने वाले पेड़-पौधों और वनस्पति को बचाने का काम शुरू किया। आग के दौरान पेड़ों को जलता देख मोहन ने जैसे उनकी व्यथा को समझ लिया हो, यही वजह रही कि उन्होंने पेड़-पौधों के संरक्षण का काम शुरू कर दिया।

 

इस पर्यवरण प्रेमी ने 20 साल की उम्र में आग की भेंट चढ़ चुके पेड़ों को फिर से जीवन देने की जो पहल शुरू की, उसका ही नतीजा है कि आज गांव के पास एक हरा-भरा जंगल है। इस जंगल में मोहन ने तिमुरू, बांज, बुरांश, काफल, खरसू के अलावा रीठे के पौधे लगाए हैं। 15 साल से मोहन रोज सुबह जंगल की तरफ चल पड़ते हैं और वहां हर रोज नए पेड़ लगाते हैं। अब इस काम में उनकी मदद गांव के कुछ युवा साथी और उनके सहयोगी दिनेश चंद्र भट्ट करते हैं। गांव के आसपास काफी पेड़ होने से पानी की कमी की समस्या भी काफी हद तक दूर हो गई है। अब गांव के चारों ओर वातावरण पेड़ों की छाया होने से सुंदर और शांत बना रहता है।

 

हिल-मेल से हुई बातचीत में मोहन नागिला ने बताया कि प्रत्येक व्यक्ति का पर्यावरण और प्रकृति के लिए एक विशेष दायित्व होता है। इसे अपनी जिम्मेदारी समझकर हमेशा इसके हित में सोचना चाहिए। उन्होंने कहा कि बचपन जब उन्होंने पेड़ों को जलते हुए देखा तो वह आग उनके हृदय के भीतर ऐसी ज्वाला लगाकर गई कि उन्होंने जीवन भर पर्यावरण की सुरक्षा का प्रण ले लिया। मोहन ने बताया कि जंगल प्रेम के चलते उन्होंने जीवन पर्यंत अविवाहित रहकर पेड़-पौधों की सेवा करने का प्रण लिया, जिसे वे आज भी बखूबी निभा रहे हैं। जब हमने पूछा, अब तो आपका काफी नाम हो गया होगा, तो मोहन ने कहा, काम की चर्चा होनी चाहिए…नाम में क्या रखा है। जब हमने पूछा कि इसमें आपका गुजारा कैसे चलते हैं, तो उन्होंने कहा कि बस दिव्यांग पेंशन पर आश्रित हूं। वह भी चार-पांच महीने में आती है।

 

मोहन नागिला के इस पर्यावरण प्रेम को देखकर कोसी कटारमल में पर्यावरण संस्थान के निदेशक ने उनके काम की सराहना की है। यहां के जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयन पर्यावरण संस्थान के निदेशक डा. रणवीर रावल ने उनके इस कार्य को देखते हुए तेजपत्ता, तिमुरु, फ्ल्याठ, कीमू और रीठा के 200 पौधे बालतड़ी गांव भेजे और उनके इस प्रकृति प्रेम को प्रेरणास्रोत बताया। (इनपुट – रजनी मेहता, हल्द्वानी)

Hill Mail
ADMINISTRATOR
PROFILE

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked with *

विज्ञापन

[fvplayer id=”10″]

Latest Posts

Follow Us

Previous Next
Close
Test Caption
Test Description goes like this