गंगा और पर्यावरण किसी दल का चुनावी मुद्दा नहीं, दल बदल और आरोप प्रत्यारोप तक सिमट गई है बहसें

गंगा और पर्यावरण किसी दल का चुनावी मुद्दा नहीं, दल बदल और आरोप प्रत्यारोप तक सिमट गई है बहसें

उत्तराखंड की चेतना में शामिल पर्यावरण, संस्कृति, जल, जंगल जैसे विषयों पर कोई दल बात नहीं कर रहा। ऐसा तब है जब पहाड़ की संस्कृति का मूल तत्व पर्यावरण की सुरक्षा है। यहां के गीत-संगीत, लोकनृत्यों में पर्यावरण के संरक्षण का संदेश रहता है। चुनावी बहस भी दलबदल और आरोप प्रत्यारोप तक सिमट कर रह गई है।

उत्तराखंड में चुनावी घमासान भले ही पूरी रफ्तार पकड़ने लगा हो लेकिन उत्तराखंड के सरोकारों से जुड़े मुद्दे पूरी तरह नदारद हैं। न कोई पर्यावरण संरक्षण की बात कर रहा है, न गंगा की स्वच्छता की और न ही संस्कृति की रक्षा की। अक्सर जमीनी मुद्दों पर लड़े जाने वाले चुनावों में इस बार जैसे उत्तराखंड के मूल मुद्दे कहीं नदारद हैं।

उत्तराखंड की चेतना में शामिल पर्यावरण, संस्कृति, जल, जंगल जैसे विषयों पर कोई दल बात नहीं कर रहा। ऐसा तब है जब पहाड़ की संस्कृति का मूल तत्व पर्यावरण की सुरक्षा है। यहां के गीत-संगीत, लोकनृत्यों में पर्यावरण के संरक्षण का संदेश रहता है। चुनावी बहस भी दलबदल और आरोप प्रत्यारोप तक सिमट कर रह गई है।

एक तरफ जहां चुनावी मौसम में सभी राजनीतिक दल अपने लोकलुभावन वादों की झड़ी लगा रहे हैं, वहीं चमोली के दूरदराज के इलाकों का प्रतिनिधित्व करने वाली पहाड़ों की महिलाएं अपने पारंपरिक गीतों और नृत्यों के माध्यम से गंगा की निर्मलता और पेड़ों को बचाने का संदेश दे रही हैं।

हाल ही में पद्मश्री पुरस्कार के लिए चयनित डा. माधुरी बड़थ्वाल कहती हैं, हमारे गीत-संगीत का मूल तत्व पर्यावरण है। हमारी बोली, भाषा और संस्कृति समृद्ध है। हमारे सभी आंचलिक गीतों में पर्यावरण और प्रकृति के लिए संदेश छिपा है। राज्य बनने के 20 साल बाद ही हमें अपनी बोली-भाषा और संस्कृति को नई पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। ये मुद्दे राजनीतिक दलों की प्राथमिकता में नहीं होते।

आकाशवाणी की पहली महिला म्यूजिक डायरेक्टर डा. बड़थ्वाल कहती हैं कि हमारे पहाड़ की नारी बहुत सशक्त है। यहां के लोकगीतों में ही वह एक छोटे सी डाली को तोड़ने पर ही प्रधान-पटवारी तक से सवाल पूछ लेने का साहस रखती है। वह संस्कृति की धरोहर है।

गंगा की स्वच्छता का संदेश भी हमारे लोकगीतों में है। हमारे यहां ‘थड़या’ शैली में एक गीत है कि गंगा जी अमृत धारा है, उसे दूषित नहीं करना है। वह कहती हैं कि लोकगीत कभी झूठ नहीं बोलते हैं। नीति-माणा की चांचड़ी शैली में ‘लंकागढ़ भीतर’ पेड़ों को छूने और तोड़ने को लेकर हिदायत देने वाला गीत है।

उत्तराखंड के पारंपरिक वाद्ययंत्रों और उन्हें बजाने वाले कलाकारों की स्थिति पर वह कहती हैं कि इन सभी को मदद दी जानी चाहिए। राजनीतिक दलों को कलाकारों के भविष्य निर्माण की ओर भी सोचना चाहिए। संगीत तो उत्तराखंड के कण-कण में है, लेकिन संगीत जैसा विषय मुद्दा नहीं है। यह भी होना चाहिए। कलाकारों को शास्त्रीय संगीत की शिक्षा देने की दिशा में काम करने की जरूरत है।

उत्तराखंड में जल, जंगल, जमीन की बात हर कोई करता है, आज इन मुद्दों पर चर्चा होती है तो इसका एक बड़ा कारण है गौरा देवी का संघर्ष। चमोली के रैणी गांव में जंगलों को बचाने के लिए जो जन आंदोलन महिलाओं ने शुरू किया, उसने पर्यावरण संरक्षण को एक नए रूप से देखने की प्रेरणा दी। लेकिन हैरानी तब होती है कि गौरा देवी की इस संघर्षस्थली में 2022 के विधानसभा चुनाव में पर्यावरण संरक्षण, प्रकृति का संरक्षण जैसे मूलभूत मुद्दे नदारद मिलते हैं।

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