जलवायु परिवर्तन और पेड़ों के कटने से हिमालय में पायी जाने वाली कई वनस्पतियां खतरे की जद में आ गई हैं। भोजपत्र के पेड़ भी इनमें शामिल हैं। यह हिमालयी वनस्पतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अस्सी के दशक में भोजपत्र के जंगल नाम मात्र को बचे थे। लेकिन आज स्थिति बदल गई है। गौमुख के रास्ते में भोजपत्रों का जंगल हराभरा है।
कभी वहां भोज के पेड़ हुआ करते थे। इंसानों ने उसे बर्बाद कर दिया, लेकिन आज स्थिति बदल गई है। अब वहां सुबह चिड़िया खूब चहचहाती है। पेड़ों पर उनके घोंसले हैं। एक बार स्नो लैपर्ड भी वहां देखा। पहाड़ी बकरियां भी वहां आती हैं। ये सब देखकर बहुत अच्छा लगता है कि भोजवासा फिर हराभरा है। उत्तरकाशी के गंगोत्री नेशनल पार्क में गौमुख के रास्ते में भोजपत्रों का जंगल देख सिर्फ डा. हर्षवंती बिष्ट का नाम जेहन में आता है। उन्होंने यहां भोजबासा गांव से करीब डेढ़ किलोमीटर आगे उन्होंने दूसरी बार भोजपत्र की पौध लगाई है। भोजबासा समुद्र तल से 3,775 मीटर ऊंचाई पर बसा है।
पहाड़ सा हौसला रखने वाली पर्वतारोही हर्षवंती बिष्ट का पूरा जीवन हिमालय संरक्षण से जुड़ा हुआ है। जिन भोजपत्रों के जंगल के नाम पर भोजवासा जगह का नाम पड़ा, उनके ठूंठ ही बाकी रह गए थे, ये देखकर उन्होंने वर्ष 1989 में सेव गंगोत्री प्रोजेक्ट शुरू किया। 1992 से 1996 तक दस हेक्टेअर में करीब साढ़े बारह हजार भोजपत्र की पौध लगाई। आज उनमें से ज्यादातर पेड़ बन गए हैं। वे नब्बे के दशक की तस्वीरें दिखाती हैं जब भोजवासा बंजर दिख रहा था लेकिन आज की तस्वीरों में वहां भोजपत्र के हरे-भरे पेड़ दिखाई दे रहे हैं। वे कहती हैं कि जो पेड़ हमने गंवाए थे, अब फिर बस गए।
गंगोत्री नेशनल पार्क के ही चिरबासा में उन्होंने भोजपत्र के पौधों की नर्सरी लगाई है। इसकी देखभाल के लिए वहां दो स्थानीय लोग तैनात हैं। जो ठंड बढ़ने पर दीपावली से पहले नीचे उतर आते हैं। हर्षवंती कहती हैं कि भोज के पौधे कहीं नहीं मिलते। इसलिए चिरबासा में उन्होंने इसकी बकायदा नर्सरी लगाई। दिसंबर-जनवरी के हिमपात में नर्सरी में लगे पौधों की पत्तियां झड़ जाती हैं, लेकिन अप्रैल-मई की गर्मी में दोबारा नई कोंपले फूटने लगती हैं। वे सन 1966 की एक तस्वीर का जिक्र करती हैं, जहां गौमुख था, वहां पेड़ नहीं थे, लेकिन आज वहां खुद-ब-खुद पेड़ उग आए हैं। यानी वहां गर्मी बढ़ रही है, इसलिए पेड़ वहां तक पहुंच गए।
कागज की खोज से पहले भोजपत्र के छाल का इस्तेमाल प्राचीन काल में ग्रंथों की रचना के लिए होता था। भोजपत्रों पर लिखी गईं पांडुलिपियां आज भी पुरातत्व संग्रहालयों में सुरक्षित हैं। हरिद्वार के गुरुकल कांगड़ी विश्वविद्यालय में भी इस तरह का एक संग्रहालय है। ये दुर्लभ किस्म के पेड़ सिर्फ उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पाए जाते हैं। माना जाता है कि जलवायु परिवर्तन और पेड़ों के कटने से हिमालय में पायी जाने वाली कई वनस्पतियां खतरे की जद में आ गई हैं। भोजपत्र के पेड़ भी इसमें शामिल हैं। जो हिमालयी वनस्पतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अस्सी के दशक में भोजपत्र के जंगल नाम मात्र को बचे थे।
हर्षवंती बिष्ट उस समय पर्वतारोहण किया करती थीं। 1981 में उन्होंने अपनी दो साथिनों रेखा शर्मा और चंद्रप्रभा एत्वाल के साथ नंदा देवी पर्वत (7,816 मीटर) की चढ़ाई की थी। इसके लिए वर्ष 1981 में उन्हें अर्जुन पुरस्कार भी दिया गया था। वर्ष 1984 में भारत के एवरेस्ट अभियान दल की भी संस्थापक सदस्य रहीं। वर्ष 2013 में पर्यावरण को लेकर किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए सर एडमंड हिलेरी लीगेसी मेडल दिया गया।
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