भगवान भरोसे उत्तराखंड की स्वास्थ्य सुविधायें, बेहतर स्वास्थ्य के दावे खोखले

भगवान भरोसे उत्तराखंड की स्वास्थ्य सुविधायें, बेहतर स्वास्थ्य के दावे खोखले

उत्तराखंड एक पर्वतीय राज्य है और यहां पर स्वास्थ्य के क्षेत्र में लोगों को आधारभूत सुविधायें उपलब्ध नहीं हो पा रही हैं। उत्तराखंड के नौ जिलों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की 50 प्रतिशत से ज्यादा पद खाली है।

त्रिलोचन भट्ट, देहरादून

बात इसी वर्ष अप्रैल के महीने की है। मूल रूप से उत्तराखंड के चंपावत जिले के लोहाघाट क्षेत्र के पाटन पाटनी गांव निवासी सीमा विश्वकर्मा को 24 अप्रैल को प्रसव पीड़ा होने पर परिजनों ने उप जिला अस्पताल लोहाघाट में भर्ती कराया, जहां चिकित्सकों ने गर्भ में बच्चे की मौत होना बताकर सीमा को चंपावत जिला अस्पताल रेफर कर दिया। जिला अस्पताल में 25 अप्रैल की शाम को जैसे ही चिकित्सक सीमा का प्रसव करने की कोशिश कर रहे थे उसी दौरान एक इंजेक्शन लगाने से अचानक उसकी तबीयत बिगड़ गई, जिसके बाद उसे आईसीयू वार्ड में शिफ्ट किया गया जहां उसने कुछ ही देर बाद दम तोड दिया। ऐसा सिर्फ एक बार नहीं हुआ। उत्तराखंड में यह ऐसा बार-बार होता है। उत्तरकाशी के पुरोला और मोरी से लेकर पिथौरागढ़ के मुनस्यारी तक इस तरह की घटनायें लगातार अखबारों की सुर्खियां बनती रही हैं। इन घटनाओं में जांच के आदेश भी होते हैं, लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता और न हो ऐसी घटनाओं में कमी आती है। कारण अस्पतालों में डॉक्टरों और सुविधाओं की कमी।

प्रसव के मामले में ही नहीं, तमाम अन्य मामलों में भी स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति ऐसी ही बनी हुई है। समय-समय मोटा बजट खर्च करके राज्य सरकार की उपलब्ध्यिं का बखान करने वाली रंगीन पुस्तिका को देखेंगे तो लगेगा कि स्वास्थ्य सेवाओं में तो उत्तराखंड राज्य लगातार प्रगति कर रहा है। यह भी लगेगा कि उत्तराखंड स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में दुनिया के तमाम विकसित देशों को मात देने की स्थिति में पहुंच गया है।

अब राज्य में साध्य अथवा असाध्य रोगों से किसी की मौत नहीं होने वाली है। लेकिन, जमीनी स्थिति क्या है, ऊपर लिखी घटना इसका एक उदाहरण है। राज्य में अस्पतालों की तो कोई कमी नहीं है। मेडिकल कॉलेज, संयुक्त चिकित्सालय, जिला अस्पताल, सीएचसी, पीएचसी, हेल्थ सेंटर और न जाने क्या-क्या राज्य में मौजूद हैं, लेकिन सवाल यह कि उनमें न तो डॉक्टर हैं और न दवाइयां, कुछ अस्पताल कंपाउंडर के भरोसे चल रहे हैं तो कुछ को वार्ड ब्यॉय चला रहा है। लेकिन सरकारी रंगीन पत्रिका स्वास्थ्य सेवाओं में होने वाले उल्लेखनीय विकास से भरी पड़ी हैं।

गढ़वाल मंडल के मोतियाबिन्द पीड़ित बुजुर्गों के लिये हंस फाउंडेशन की ओर से कुछ प्रयास किये जाते हैं, लेकिन इन प्रयासों को लाभ सभी बुजुर्गों तक नहीं पहुंच पा रहा है।

 

चलिये पहले एक नजर राज्य में मौजूद अस्पतालों की संख्या पर डालते हैं। उत्तराखंड स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग के आंकड़े बताते हैं कि राज्य में मौजूदा वक्त में सभी 13 जिलों में 13 जिला अस्पताल हैं और उप जिला अस्पतालों की संख्या 21 है। 79 सीएचसी और 578 पीएचसी राज्य के विभिन्न जिलों में मौजूद हैं। 1896 उप स्वास्थ्य केन्द्र हैं। इसके अलावा आयुर्वेदिक, यूनानी और होम्योपैथिक अस्पताल भी हैं। 4 सरकारी मेडिकल कॉलेज भी राज्य में हैं। करीब एक करोड़ आबादी वाले राज्य में हेल्थ इंस्टीट््यूशन की यह संख्या संतोषजनक मानी जा सकती है, लेकिन सवाल यह है कि इनमें मेडिकल सुविधाओं, डॉक्टरों और अन्य स्टाफ की स्थिति क्या है।

देहरादून स्थित एसडीसी फाउंडेशन ने कोरोना काल में आरटीआई के जरिये इस बारे में जानकारी मांगी थी तो बताया गया था कि राज्य के 13 जिलों में कुल जरूरत के मात्र 43 प्रतिशत स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स की सेवायें ही उपलब्ध हैं। राज्य में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के कुल 1147 स्वीकृत पदों में से मात्र 493 ही कार्यरत हैं। बाकी 654 पद खाली हैं। देहरादून जिले में सबसे ज्यादा स्पेशलिस्ट डॉक्टर उपलब्ध हैं। यहां 92 प्रतिशत स्पेशलिस्ट डॉक्टर हैं, जबकि उपलब्धता के मामले में 63 प्रतिशत डॉक्टरों के साथ रुद्रप्रयाग दूसरे स्थान पर है। राज्य में फोरेंसिक स्पेशलिस्ट के कुल स्वीकृत 25 पदों में से केवल एक फोरेंसिक स्पेशलिस्ट है। स्किन डिजीज के 38 और साइक्रेटिस्ट के 28 पद स्वीकृत हैं, जबकि इन दोनों पदों पर केवल चार-चार स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की ही नियुक्तियां की गई हैं। जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ मात्र 14 प्रतिशत और बाल रोग विशेषज्ञ केवल 41 प्रतिशत हैं। स्त्री रोग विशेषज्ञ केवल 36 प्रतिशत हैं।

विशेषज्ञ डॉक्टरों की उपलब्धता के मामले में टिहरी उत्तराखंड का सबसे खराब जिला है। इस जिले में स्पेशलिस्ट डॉक्टरों के स्वीकृत कुल 98 पदों में से केवल 13 पर नियुक्ति है। 85 पद खाली हैं। इस जिले में एक भी सर्जन, ईएनटी, फॉरेंसिक, स्किन, माइक्रोबायोलॉजी और मनोरोग विशेषज्ञ नहीं है। यहां बालरोग विशेषज्ञ, फिजिशियन और जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ के केवल एक-एक पद पर नियुक्तियां हुई हैं, जबकि स्वीकृत पदों की संख्या क्रमशः 14, 15 और 12 है। इसके अलावा, जिले में 15 में से केवल दो स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं।

नौ जिलों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की 50 प्रतिशत से ज्यादा पद खाली है। 13 में से 11 जिलों में एक भी मनोचिकित्सक नहीं है। राज्य के 4 जिलों में सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ उपलब्ध ही नहीं हैं। सीमान्त चमोली में विशेषज्ञ डॉक्टरों के 62 पद स्वीकृत हैं, लेकिन इनमें से केवल 17 पदों पर ही नियुक्तियां हुई हैं। इसी तरह पौड़ी जिले में विशेषज्ञ डॉक्टरों के स्वीकृत 152 पदों में से मात्र 42 पदों पर नियुक्ति की गई है। जिला अल्मोड़ा में विशेषज्ञ डॉक्टरों के स्वीकृत 127 पदों में से केवल 49 विशेषज्ञ डॉक्टर काम कर रहे हैं। पिथौरागढ़ जिले में स्वीकृत 59 में से केवल 22 विशेषज्ञ डॉक्टर उपलब्ध हैं। हरिद्वार में स्वीकृत 105 पदों के केवल 40 पदों पर ही विशेषज्ञ डॉक्टर नियुक्त हैं। यानी कि हरिद्वार में 50,000 से ज्यादा लोगों पर केवल एक विशेषज्ञ डॉक्टर उपलब्ध है।

प्रदेश में 25 डॉक्टरों के स्वीकृत पदों में से केवल एक फॉरेंसिक विशेषज्ञ उपलब्ध है। इसके अलावा स्किन के 25 डॉक्टरों के स्वीकृत पदों में से 4 साइकेट्रिस्ट के मंजूरशुदा 28 पदों में से 4 की नियुक्तियां की गई हैं। राज्य में कुल मिलाकर विशेषज्ञ डॉक्टरों के 1147 स्वीकृत पदों में से 493 पदों पर ही नियुक्तियां की गई हैं। आरटीआई में मिली सूचना के अनुसार 30 अप्रैल, 2021 तक राज्य में विशेषज्ञ डॉक्टरों के 654 पद खाली हैं। बाल रोग विशेषज्ञों की भारी कमी से भी जूझ रहे हैं। पौड़ी में 22 में से 5, अल्मोड़ा में 18 में से 4, पिथौरागढ़ में 8 में से 2, चमोली में 8 में से 1 और टिहरी में 14 में से 1 बाल विशेषज्ञ उपलब्ध हैं। स्त्री रोग विशेषज्ञों के बात करें तो बागेश्वर में 5 में से 1, पौड़ी में 22 में से 4, टिहरी में 15 में से 2 और चमोली में 9 में से 1 स्त्री रोग विशेषज्ञ उपलब्ध है। चमोली और चंपावत जिलें में एक भी सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ नहीं है, जबकि पौड़ी में स्वीकृत 14 पदों के मुकाबले केवल 1 सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ हैं।

ये आंकड़े कोविड काल के हैं, यानी 2021 के। इसके बाद कुछ नियुक्तियां हुई हैं, लेकिन ऊपर के तस्वीर में इन नियुक्तियों के बाद से कोई बड़ा बदलाव नहीं आया है। इसे उत्तराखंड का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि यहां डॉक्टरों की नियुक्ति तो होती है, लेकिन नियुक्ति मिलने के बाद भी डॉक्टर ज्वाइन नहीं करते। दूर दराज के क्षेत्र ही नहीं मैदानी क्षेत्रों में भी डॉक्टर ज्वाइन करने के लिये तैयार नहीं होते। यदि आप उत्तराखंड में स्वास्थ्य विभाग में नियुक्त कर्मचारियों के ढांचे में नजर डालेंगे तो कुछ मजेदार बातें भी देखने को मिलेंगी।

डॉक्टर, स्टाफ नर्स और अन्य तमाम कर्मचारियों की नियुक्ति में बेशक सरकार ने भारी कंजूसी की हो, लेकिन फार्मासिस्ट की नियुक्तियां खुले हाथों से की गई हैं। राज्य में फार्मासिस्ट के 810 पद स्वीकृत हैं, लेकिन नियुक्त किये गये फार्मासिस्ट की संख्या 1174 है। यानी की मंजूरशुदा पदों की तुलना में 366 ज्यादा फार्मासिस्ट नियुक्त किये गये हैं। जबकि स्टाफ नर्सों के 2268 पद स्वीकृति होने के बावजूद केवल 704 स्टाफ नर्स ही नियुक्त की गई हैं। स्टाफ नर्स ने 1564 पद खाली हैं। डाक्टरों के 928 पद खाली हैं और 417 डॉक्टर संविदा पर कार्य कर रहे हैं। यही स्थिति एएनएम और अन्य कर्मचारियों की भी है।

सवाल यह उठता है कि ज्यादातर पदों पर कम नियुक्तियों के बावजूद फार्मासिस्ट की नियुक्तियों स्वीकृत पदों से ज्यादा क्यों हैं। संभावना जताई जाती है कि राज्य के एक से ज्यादा ऐसे मुख्यमंत्री या महत्वपूर्ण मंत्री रहे हैं, जिनके अपने या उनके निकटवर्ती लोगों फार्मा कॉलेज हैं, पद पर रहते हुए इन लोगों ने अपने कॉलेज से निकले सभी छात्रों को सरकारी अस्पतालों में नौकरी पर लगवा दिया।

अब जरा राज्य सरकार के उस दावे की असलियत पर बात करें, जिसे सबसे ज्यादा प्रचारित किया जाता है और दावा किया जाता है कि राज्य के 23 लाख परिवार, यानी कि हर परिवार इस योजना का लाभ उठा रहा है। योजना के नाम है अटल आयुष्मान योजना। योजना 2018 में शुरू की गई थी। सरकार का दावा है कि राज्य में 23 लाख परिवारों के आयुष्मान कार्ड बन गये हैं। कार्डधारक राज्य के 175 सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में हर वर्ष 5 लाख रुपये तक का मुफ्त इलाज करवा सकते हैं।

स्वास्थ्य विभाग के वेबसाइट और राज्य सरकार की महंगी रंगीन पत्रिकाओं में जिलावार आंकड़े भी मिल जायेंगे, जिनमें बताया गया है कि किस जिले में कितने परिवारों के आयुष्मान कार्ड बने हैं और योजना शुरू होने से लेकर अब तक कितने लोगों का इलाज हुआ और इस पर राज्य सरकार ने कितनी रकम खर्च की। लेकिन वास्तव में इस योजना की गहराई में जायेंगे तो इसकी विफलता की कहानी खुद ब खुद साफ होती चली जायेगी।

पहली बात तो यह कि तमाम दावों के बावजूद राज्य में ऐसे परिवार बड़ी संख्या में मौजूद हैं, जिनके आयुष्मान कार्ड नहीं बने हैं। दरअसल ये वे परिवार हैं जो आयुष्मान कार्ड की शर्तें पूरी नहीं कर पा रहे हैं। दूसरा और सबसे बड़ा घोटाला इसमें प्राइवेट अस्पताल कर रहे हैं। ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जबकि प्राइवेट अस्पताल ने आयुष्मान कार्ड से इलाज दिखाकर सरकार से पैसे झटक लिये या आयुष्मान कार्ड होने के बावजूद इलाज करने से मना कर दिया।

ऐसे कुछ प्राइवेट अस्पतालों के खिलाफ कार्रवाई करके उन्हें आयुष्मान योजना से बाहर भी किया गया है, लेकिन इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता कि प्राइवेट अस्पतालों में अब ऐसा नहीं हो रहा है। दरअसल अटल आयुष्मान योजना पूरी तरह से प्राइवेट अस्पतालों पर ही निर्भर है, लेकिन विभिन्न जांचों के रेट अटल आयुष्मान योजना में कम होने की शिकायत प्राइवेट अस्पताल पहले से करते रहे हैं, ऐसे में प्राइवेट अस्पतालों को प्रयास रहता है कि उनके यहां आने वाले मरीज आयुष्मान योजना में इलाज न करवाकर अपने निजी खर्च पर इलाज करवायें।

अटल आयुष्मान योजना की सफलता की कहानी सिर्फ मैदानी क्षेत्रों तक ही सीमित है, जहां प्राइवेट अस्पताल हैं। मैदानी इलाकों के अस्पताल ही इस योजना का लाभ भी उठा रहे हैं। पहाड़ों में रहने वाले लोगों के लिये ये कार्ड सिर्फ शोपीस बनकर रह गये हैं। पहाड़ों में स्थिति सरकारी अस्पतालों में न तो डॉक्टर हैं, न दवाइयां और न ही जांच की कोई सुविधा। ऐसी स्थिति में यदि पहाड़ी क्षेत्रों में किसी व्यक्ति का स्वास्थ्य खराब होता है कि जेब में आयुष्मान कार्ड होने के बावजूद उसे कोई फायदा नहीं होगा। आयुष्मान कार्ड का फायदा उठाने के लिये उन्हें हल्द्वानी या देहरादून जाना होगा और दूर पहाड़ी गांवों में रहने वाले व्यक्ति के लिये तुरन्त देहरादून या हल्द्वानी जाना संभव नहीं है। यानी के अटल आयुष्मान योजना सिर्फ आंकड़ेबाजी के काम आ रही है।

इस लेख के शुरुआत हमने गर्भवती महिलाओं की मौत के उदाहरण से शुरू की थी। राज्य में हर वर्ष इस तरह की कई घटनायें सामने आती हैं। आसपास के अस्पतालों में इलाज की सुविधा न होने के कारण गर्भवती महिलाओं को हायर सेंटर रेफर कर दिया जाता है, लेकिन कई किमी दूर स्थित हायर सेंटर तक पहुंचने के लिये एंबुलेंस तक की व्यवस्था नहीं होती। किसी कार या अन्य वाहन में गर्भवती महिलाओं को ले जाया जाता है, लेकिन कई बार उनकी रास्ते में ही मौत हो जाती है। उत्तराखंड में अस्पताल ले जाई जा रही गर्भवती महिला को सड़क के किनारे साड़ी आदि की आड़ करके प्रसव करवाने के शर्मनाक मामले भी सामने आ चुके हैं। आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में प्रसव के दौरान एक लाख में से 101 महिलाओं की मौत हो जाती है। केरल जैसे राज्य में यह संख्या सिर्फ 30 है।

पर्वतीय क्षेत्रों में एक सबसे बड़ी स्वास्थ्य संबंधी समस्या, जिस पर न तो आम लोग ध्यान देते हैं और न ही सरकार ने इस तरफ गंभीरता से सोचने की जरूरत समझी। वह है बुजुर्गों की आंखों में मोतियाबिन्द की समस्या। एक उम्र के बाद 90 प्रतिशत बुजुर्गों को इस समस्या का सामना करना पड़ता है। लेकिन, पर्वतीय क्षेत्रों में किसी भी अस्पताल में मोतियाबिन्द का ऑपरेशन करने की सुविधा नहीं है। बुजुर्गों के नाम पर कई तरह के ढकोसले करने वाली सरकार वास्तव में बुजुर्गों के प्रति कितनी गंभीर है, यह इसका उदाहरण है।

गढ़वाल मंडल के मोतियाबिन्द पीड़ित बुजुर्गों के लिये हंस फाउंडेशन की ओर से कुछ प्रयास किये जाते हैं, लेकिन इन प्रयासों को लाभ सभी बुजुर्गों तक नहीं पहुंच पा रहा है। हंस फाउंडेशन की ओर से गढ़वाल के अलग-अलग हिस्सों से बुजुर्गों को अपनी बस से सतपुली लाया जाता है और सतपुली स्थिति में मोतियाबिन्द का ऑपरेशन कर दो या तीन दिन में वापस छोड़ दिया जाता है। मेरे बुजुर्ग, मेरे तीर्थ जैसे नारे देने वाली राज्य सरकार बुजुर्गों की आंखों के मोतियाबिन्द का ऑपरेशन करना भी जरूरी नहीं समझती।

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked with *

विज्ञापन

[fvplayer id=”10″]

Latest Posts

Follow Us

Previous Next
Close
Test Caption
Test Description goes like this