रिटायर्ड कर्नल अजय कोठियाल, शौर्य ही जिसकी कीर्ति

रिटायर्ड कर्नल अजय कोठियाल, शौर्य ही जिसकी कीर्ति

कर्नल अजय कोठियाल हमेशा से ही जमीन से जुड़ने वाले इन्सान हैं। शौर्य चक्र, कीर्ति चक्र, विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित इस अफसर से प्रशिक्षण पाकर गांवों के 8000 से अधिक युवा सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस में भर्ती हुए हैं। पढ़िए पहाड़ के सपूत कर्नल कोठियाल की प्रेरक कहानी।

कर्नल (रि.) अजय कोठियाल का नाम जून 2013 की उत्तराखंड त्रासदी के उन पीड़ितों से पूछकर देखिए जिनकी जान बचाने में कर्नल कोठियाल की टीम ने जीजान लगा दी। सुख-दुख की घड़ी हो या देश का नाम रौशन करने का गौरवमय पल, ऐसे लोग होते हैं, जो चकाचौंध से दूर रहते हुए बेमिसाल काम करते जाते हैं। उनकी कहानी टीवी, अखबारों या सिनेमाई पर्दे पर नहीं, उन दिलों में दर्ज होती है जिनके लिए वे मसीहा बनकर सामने आते हैं।

केदारनाथ के भगीरथ कहे जाने वाले कर्नल अजय कोठियाल ऐसा ही एक नाम है। शौर्य चक्र, कीर्ति चक्र, विशिष्ट सेवा मेडल से सम्मानित इस अफसर ने बर्फ से ढंकी चोटियों पर आतंकवादियों को ठिकाने लगाने की जो रणनीति बनाई उसका महत्व समझते हुए आर्मी ट्रेनिंग इस्टीच्युट महू में एक स्कवाड पोस्ट उनके नाम पर है। आपदा के दौरान और आपदा के बाद, कर्नल अजय कोठियाल द्वारा केदार घाटी में किए गए कार्य आज किंवदती बन गए हैं। उत्तराखंड के हजारों युवाओं को सकारात्मक दिशा देने के उनके अभियान ने पूरे देश का ध्यान खींचा है। आपदा की मार झेल रहे गांवों के 8000 से अधिक युवा उनकी देखरेख में प्रशिक्षण पाकर करके सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस में भर्ती हुए हैं। कर्नल (रि.) अजय कोठियाल एक अदम्य योद्धा, उत्कृष्ट पर्वतारोही, जुनूनी राहतकर्मी और अनुकरणीय समाजसेवी हैं।

बचपन से ही रहा है पर्वत विजय का जुनून

कर्नल अजय कोठियाल का जन्म 26 फरवरी 1969 को हुआ। 7 दिसम्बर 1992 को अजय कोठियाल ने भारतीय सेना में, गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन में बतौर सेकेंड लेफ्टिनेंट अपने सैन्यजीवन का आरंभ किया। 4 गढ़वाल राइफल्स भारतीय सेना की एक उत्कृष्ट और ऐतिहासिक बटालियन है जिसे 1962 में भारत चीन युद्ध के दौरान ‘नूरानांग’ की मानक उपाधि से सम्मानित किया गया था। पहले से ही इस बटालियन में कई महान विभूषणों से अलंकृत शूरवीर हैं।
कर्नल अजय कोठियाल का परिवार मूल रूप से टिहरी जिले का निवासी है। पिता सत्यशरण कोठियाल ने 12 जुलाई 1960 को गढ़वाल राइफल्स में एक सिपाही के तौर पर अपना फौजी सफर शुरु किया। वह बचपन से ही परिश्रमी और लगनशील थे। नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई जारी रखी और कमीशन पाकर 30 जून 1963, को सेकेंड लेफ्टिनेंट के पद पर सिख रेजीमेंट की छठी बटालियन में तैनात हुए। उन्हें 16 सितम्बर 1967 को सरहदों की रक्षा के लिए बनाई गई बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स (बीएसएफ) में स्थानान्तरित कर दिया गया जहां से 40 साल देश की उत्कृष्ट सेवा करते हुए, 31 अगस्त 2000 को इंस्पेक्टर जनरल (आईजी) के पद से सेवानिवृत हुए। उनके बड़े पुत्र अजय कोठियाल ने फौज में आने की ठानी तो छोटे बेटे अमित कोठियाल बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर तैनात हैं।

कर्नल अजय कोठियाल का बचपन ज्यादातर अपने पिताजी के साथ फौजी माहौल में बीता जिसके चलते फौज का अनुशासन और देशभक्ति की भावना बचपन से ही आ गई थी। अपने पिता की तरह यह भी सेना में आकर देशसेवा के लिए तत्पर थे। देहरादून डीएवी कालेज से बीएससी करने के बाद इन्होंने सीडीएस की परीक्षा उत्तीर्ण की और भारतीय सेना में अफसर बने। बटालियन में शुरू से ही इनकी छवि एक ऐसे निडर और बिंदास अफसर की थी जो कुछ अलग करने को बेताब रहता था। पहाड़ में जन्मे और पहाड़ों में लंबा समय बिताने के कारण पहाड़ों से प्रेम स्वाभाविक था। पर्वतारोहण में रुचि बचपन से ही थी। 14 साल की उम्र में अपने जीवन का पहला पर्वतीय अभियान हरकी दून ग्लेशियर में पूरा किया। पर्वतारोहण के बुनियादी प्रशिक्षण और कठोर सैन्य प्रशिक्षण ने उन्हें एक उत्कृष्ट पर्वतारोही के तौर पर उभरने में मदद की। गढ़वाल राइफल्स द्वारा एक पर्वतारोहण दल का गठन किया गया तो कैप्टन अजय कोठियाल को इस दल का मुखिया बनाया गया। दल को 7056 मीटर ऊंचे ‘पर्वत सतोपंत’ की चढ़ाई करनी थी। कैप्टन अजय कोठियाल ने यह साहसिक काम बखूबी निभाया और 1996 में उनकी अगुआई वाले दल ने पर्वत सतोपंत पर सफलतापूर्वक चढ़ाई की और तिरंगा लहराया। भारतीय सेना और गढ़वाल राइफल्स का सतोपंत पर यह पहला सफल अभियान था। इससे पहले कोई भी इस अभियान को सफल नहीं बना सका था। इसके बाद बटालियन के साथ ऑपरेशन मेघदूत (ग्लेशियर) में इन्होंने अपनी सक्रिय भूमिका निभाई। सन् 1997 में इन्हें नेहरू पर्वतारोहण संस्थान में अग्रिम पर्वतारोहण युद्ध कला कोर्स करने का अवसर मिला और इस कोर्स में वह सर्वोत्तम प्रशिक्षार्थी रहे। बाद में इसी संस्थान के वह प्रिसिंपल भी बने।

एवरेस्ट विजय के लिए शौर्य चक्र

गढ़वाल रेजिमेंट में इनकी पहचान एक अच्छे पर्वतारोहक की बन चुकी थी। 2000 में एक बार फिर गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंटल केन्द्र द्वारा 7135 मीटर ऊंचे मांउट माना फतह की जिम्मेदारी दी गई और यहां भी इन्होंने सफलता हासिल की। उसके बाद 2001 में पहली बार भारतीय सेना का एक दल दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत मांउट एवरेस्ट (8848 मीटर) पर चढ़ने की तैयारी कर रहा था। मेजर अजय कोठियाल ने इस साहसिक अभियान के लिए अपनी इच्छा जाहिर की। कठिन प्रशिक्षण के आधार पर एक दल का चयन किया गया जिसमें मेजर अजय कोठियाल भी थे। यह भारतीय सेना ने दुनिया की सबसे ऊंची चोटी मांउट एवरेस्ट पर तिरंगा लहराने के इस पहले अभियान में सफलता पाई। इस साहसिक कार्य के लिए मेजर अजय कोठियाल को ‘शौर्य चक्र’ से सम्मानित किया गया।

बर्फीली चोटियों पर शौर्य के लिए कीर्ति चक्र

2001-03 में 4 गढ़वाल राइफल्स ‘ऑपरेशन पराक्रम’ के तहत श्रीनगर के शोपियां में तैनात थी। आपरेशन पराक्रम के दौरान 4 गढ़वाल राइफल्स ने 21 आतंकवादियों को ढेर किया जिनमें से 17 आतंकवादियों को मार गिराने का श्रेय तत्कालीन मेजर अजय कोठियाल को जाता है। शोपियां को आतंकवादियों का पनाहगार माना जाता था। मेजर अजय कोठियाल कंपनी कमांडर थे। यहां से लगने वाली पीर पंजाल की पहाड़ियों सालोंभर बर्फ से ढंकी रहती हैं इसलिए इनकी निगरानी बहुत मुश्किल है। पाकिस्तानी सेना की मदद से आतंकी, पीरपंजाल को पार करके भारत में घुस आते थे। ऑपरेशन को सफल बनाने के लिए पीरपंजाल के रास्ते आतंकवादियों की आवाजाही रोकनी जरूरी थी। यानी दुश्मन को पहाड़ से जिंदा उतरने ही नहीं देना था। काम बड़ा मुश्किल था।

सेना के लोकल नेटवर्क से जुटाई गई जानकारी के आधार पर मेजर अजय कोठियाल ने एक रास्ते की पहचान की जहां से आतंकवादियों की आवाजाही होती थी। बर्फ से ढकी पहाड़ की चोटियों पर ही आतंकियों को दफन कर देने के लिए मेजर अजय कोठियाल ने 5-6 जवानों के छोटे-छोटे दल तैयार किए। अपने दल के साथ उन्होंने ऑपरेशन नशनूर और ऑपरेशन कोंगवतन के जरिए आतंकवादियों को इतना नुकसान पहुंचाया कि घुसपैठ के लिए जो रास्ता अब तक का सबसे सुरक्षित था, वह उनके लिए मौत का रास्ता बन गया। बर्फ से ढकी चोटियों पर आतंकवादियों से हुई जबरदस्त मुठभेड़ों में वह कई बार बाल-बाल बचे हैं। एक बार तो वह आतंकियों के फेंके ग्रेनेड की जद में भी आ गए थे और बुरी तरह घायल हुए पर हार नहीं मानी और उस ऑपरेशन में कई आंतकवादियों को मार गिराया गया। इन ऑपरेशंस की सफलता के लिए उन्हें कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया।

ऑपरेशन नशनूरः 14 जुलाई 2002 की रात हमेशा की तरह मेजर अजय कोठियाल अपनी छोटी सी टीम को लेकर आंतकवादियों की खोज में निकले। उन्हें खबर मिली थी कि कुछ आंतकवादी आर्मी कैंप की तरफ आने की तैयारी में हैं। पूरी रात सर्च ऑपरेशन चला। 15 जुलाई 2002 की सुबह 5 बजे कुछ हरकत दिखी। टीम ने निगाहें जमा लीं और उनके नजदीक रेंज में आने का इंतजार करने लगे। नायक बीर सिंह ने एक आतंकवादी का पीछा किया और 300 मीटर से उसे गोली मारकर ढेर कर दिया। इधर दूसरा आतंकवादी घर में घुसने की कोशिश कर रहा था नायक बीर सिंह ने इसे भी अपनी गोली का शिकार बनाया। इस आपरेशन में नायक बीर सिंह के पैर में कई गोलियां लगीं। इस साहसिक कार्य के लिए नायक बीर सिंह को सेना मेडल से विभूषित किया गया। मेजर कोठियाल ने जवाबी फायरिंग करते हुए दूसरे आंतिकयों को ढेर किया और बीर सिंह को निकाल लाए।

ऑपरेशन कोंगवतनः 12 मई 2003 को शाम 5 बजे खबर मिली कि कुछ आतंकी पीर पंजाल के रास्ते घुसने की कोशिश करने वाले हैं। एक खास स्थान पर आतंकियों के डेरा जमाए होने की खबर मिली। मेजर अजय कोठियाल अपनी टीम के साथ आतंकियों की तलाश में निकल पडे़। पूरी रात पीर पंजाल की पहाड़ियों पर तलाश जारी रही। सुबह तकरीबन 7 बजे उन्हें एक जगह पर अस्थाई कैंप जैसा नजर आया। टीम ने सुरक्षित दूरी से उस पर नजर जमा ली। वहां से किसी हरकत का इंतजार था। सुबह करीब 10.45 पर मेजर अजय कोठियाल को कुछ हरकत नजर आई। 5 आतंकवादियों का एक दल वहां से निकल रहा था। तकरीबन 5 मिनट बाद, दो और आंतकवादी उनके साथ आकर जुड़ गए। मेजर अजय कोठियाल की टीम को सात शिकार दिख गए थे जिस पर बाज की तरह नजरें गड़ी हुई थीं। बस झपटा मारने के लिए सही मौके का इंतजार हो रहा था। टीम इंतजार कर रही थी आतंकियों के करीब आने का ताकि जब धावा बोला जाए तो कोई बचकर निकल न सके। जैसे ही आतंकवादी नजदीक आए, मेजर अजय कोठियाल ने फायर का आदेश दिया। अचानक दो तरफ से फायर देख आतंकवादियों में भगदड़ मच गयी। 4 आतंकवादियों ने भागने की कोशिश करते हुए मेजर अजय कोठियाल पर फायर झोंक दिया। लेकिन मेजर कोठियाल ने उन भागते हुए चारों आतंकियों को मार गिराया। टीम ने बचे हुए तीन आतंकवादियों का पीछा किया और उन्हें भी बचकर जाने नहीं दिया। तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल एन.सी. विज सूझबूझ के साथ किए इस साहसिक कार्य की सराहना के लिए बटालियन आए। इस ऑपरेशन का नेतृत्व करने और साहस का परिचय देने के लिए जांबाज मेजर अजय कोठियाल को ‘कीर्ति चक्र’ से सम्मानित किया गया। भारतीय सेना के सेना युद्ध प्रशिक्षण, केंद्र महू में मेजर अजय कोठियाल के नाम से एक स्कवाड पोस्ट भी है।

माउंट मनासलू फतह और विशिष्ट सेवा मेडल

गढ़वाल राइफल्स के पर्वतारोहण दल ने एक और नया इतिहास 29 जून 2005 को उस समय रचा जब मेजर अजय कोठियल के नेतृत्व में उनके साथ सात पर्वतारोही सुबह नौ बजे 7120 मीटर ऊंचे शिखर माउंट त्रिशूल पर सफलतापूर्वक चढ़ाई करने के बाद वहां से बेस कैंप (1800 मीटर) तक तीन घंटे के रिकार्ड समय में ’स्कीइंग’ करके पहुंचे। इस दौरान स्कीइंग दल को बर्फीली हवाओं और मौसम की मार का सामना करना पड़ा। बेस कैंप से जिस शिखर तक पहुंचने पर टीम को 9 दिन का समय लगा था, वहां से वापस स्की डाउन में केवल 3 घंटे लगे। इस सफल अभियान दल में कुल 46 पर्वतारोही थे जिनमें 16 स्कीयर्स थे।
पर्वतारोही के तौर पर कर्नल कोठियाल की निगाहें एक दुर्गम पर्वत मांउट मनासलू पर थी, जिसकी ऊंचाई 8163 मीटर है। मांउट मनासलू पर कोई भी भारतीय चढ़ाई नहीं कर पाया था। कर्नल अजय कोठियाल को तो जैसे इस तरह के जोखिम उठाने की आदत सी हो गई थी। 3 अफसर, 2 जेसीओ एवं 13 जवानों की टोली को साथ लेकर इस दल ने 22 मार्च 2011 को भारत से काठमांडू के लिए उड़ान भरी। कठिन परिस्थितियों का सामना करने के बाद 9 मई 2011 को इस दल की पहली टोली ने इस पर्वत के शिखर को छुआ और तिरंगा लहराकर कीर्तिमान स्थापित किया। इस तरह 10 मई 2011 को दूसरी टोली भी मनासलू के शिखर पर जा पहुंची। इस साहसिक कार्य के लिए कर्नल अजय कोठियाल को विशिष्ट सेवा मेडल से नवाजा गया।

सन् 2012 में कर्नल अजय कोठियाल ने एक और कीर्तिमान स्थापित किया। वह था – भारतीय सेना के 7 महिला अधिकारियों’ को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी ‘मांउट एवरेस्ट’ फतह कराना। कर्नल कोठियाल की अगुआई में यह दल 22 मार्च 2012 को भारत से काठमांडू के लिए रवाना हुआ। 17 दिन की पैदल यात्रा के बाद इस दल ने अपना एक बेस कैंप बनाया। आखिर 25 मई 2012 को दुनिया की सबसे ऊंची चोटी पर सेना की महिला अधिकारियों के दल ने तिरंगा लहराया। कर्नल कोठियाल के नेतृत्व वाली पूरी टीम 25 और 26 मई 2012 को दुनिया के सबसे ऊंचे शिखर, एवरेस्ट पर थी। इस टीम में 7 महिला अधिकारी तथा 10 पुरूष शामिल थे, जिनमें से 6 उत्तराखंड से हैं। इस टीम में शामिल 16 कुमांऊ के सूबेदार राजेंद्र सिंह जलाल ने बिना आक्सीजन की मदद के एवरेस्ट फतह करने वाले पहले भारतीय होने का गौरव प्राप्त किया।

केदारनाथ त्रासदी के मसीहा

16 जून 2013 को उत्तरकाशी जिले में जगह जगह बादल फटने से उत्तरकाशी गंगोत्री राजमार्ग तहस-नहस हो गया था। राजमार्ग पर स्थित कस्बे व इससे लगे हुए गांवों का सम्पर्क प्रदेश के बाकी भाग से टूट चुका था। गंगोत्री धाम के दर्शन के लिए आये हजारों यात्री जगह जगह फंस चुके थे। प्रदेश सरकार तथा जिला प्रशासन के लिए बचाव कार्य एक बड़ी चुनौती साबित हो रहा था। प्राकृतिक आपदा ने पूरी दुनिया को हिलाकर रख दिया था, दुनियाभर से मदद की पेशकश आ रही थी लेकिन ऐसी आपदाओं में एक-एक मिनट कीमती होता है। जब तक लोग अभी यह विचार ही रहे थे वे इस दुख की घड़ी में किस प्रकार सहायता करें, उस समय नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (निम) के प्रिंसिपल कर्नल अजय कोठियाल स्वतः प्रेरित होकर अपने साथियों संग राहत कार्यों में जुटे हुए थे। नेहरु पर्वतारोहण संस्थान में आपदा की स्थितियों में बचाव कार्यो की कुशलता के लिए जाने जाते हैं, अपने ही संस्थान के आस पासआई भीषण त्रासदी के कारण फंसे लोगो को बचाने से कैसे अछूते रह सकते थे। निम के प्रधानाचार्य कर्नल अजय कोठियाल ने अपने प्रशिक्षकों के साथ 109 इंजीनियर रेजिमेंट के अधिकारियों और जवानों, संस्थान में ही कार्य करने वाले कुली तथा स्थानीय स्वयंसेवकों को मिलाकर लगभग 20 सदस्यीय पांच बचाव दल बनाया। ये दल 21 जून 2013 को आवश्यक बचाव साधन व सामग्री से लैस होकर गंगोत्री की ओर रवाना हुए और इन्होंने चयनित पांच संवेदनशील स्थानों पर मोर्चा संभाल लिया।

इन बचाव दलों ने कठिन परिस्थितियों को सामना करते हुए 6,500 यात्रियों, जिनमें 46 विदेशी शामिल थे एवं स्थानीय लोगों, को मौत के मुंह से बचाकर सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाया। बचाव कार्य के दौरान इन दलों ने जरूरतमंद व्यक्तियों को दवाइयां एवं खाद्य सामग्री भी वितरित की। इस तरह नेहरू पर्वतारोहण संस्थान, उत्तरकाशी ने विपदा की इस घड़ी में अपनी कार्य-कुशलता का परिचय देकर प्रदेश सरकार और जिला प्रशासन की भरसक सहायता की और इससे भी बढ़कर मानवता का धर्म निभाया।

उत्तरकाशी जिले में आई भीषण आपदा के कुछ घंटों बाद ही 16-17 जून की रात को केदारनाथ घाटी में गांधी सरोवर के टूटने से आए जल सैलाब ने तो केदारनाथ मन्दिर से लेकर गौरीकुन्ड और सोनप्रयाग तक सब कुछ तबाह कर दिया। केदारनाथ में मंदिर के सिवाय कुछ बचा ही नहीं। केदारनाथ में, रामबाड़ा और गौरीकुण्ड में हजारों की संख्या में यात्री और स्थानीय लोग या तो पानी के सैलाब में बह गए या जान बचाकर पहाड़ों की ओर भाग गए। यह समाचार बिजली की तरह पूरे देश में फैल गया और विभिन्न राज्यों के लोग तथा उनकी सरकारें केदारनाथ की यात्रा पर गये यात्रियों की खोज करने लगे।

नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (निम) का बचाव दल उत्तरकाशी-गंगोत्री राजमार्ग से हजारों यात्रियों को सफलतापूर्वक बचाकर लाने के बाद सांस ले ही रहा था कि संस्थान के प्रधानाचार्य कर्नल कोठियाल के सामने अचानक दूसरी चुनौती खड़ी हो गयी। उत्तरकाशी में किए गए सफल बचाव कार्य को देखते हुए उत्तराखण्ड सरकार ने उनसे केदारघाटी की स्थिति बताई और वहां जाकर फंसे लोगों की जान बचाने का आग्रह किया। बिना विलम्ब किए कर्नल कोठियाल स्वयं अपने साथ 12 सदस्यीय दल को लेकर 9 जुलाई को हवाई मार्ग से गुप्तकाशी होकर चौमासी पहुंचे। दल ने चौमासी से कालीगंगा होते हुए केदारनाथ पहुंचने के वैकल्पिक मार्ग की तलाश की है। इस वैकल्पिक मार्ग की तलाश करने के लिए कर्नल कोठियाल ने स्वयं दल का नेतृत्व किया। चौमासी गांव के कुछ नवयुवकों को भी इस दल मे शामिल किया गया। अदम्य साहस और मेहनत का परिचय देते हुए यह दल पैदल केदारनाथ और वापस गौरीकुण्ड, सोनप्रयाग होते हुए फाटा पहुंचा। चौमासी के इन नवयुवकों के इस जोश को देखते हुए कर्नल कोठियाल ने बाद में नेहरु पर्वतारोहण संस्थान, उत्तरकाशी में बुलाकर इन्हें सेना में भर्ती होने का प्रशिक्षण दिया।

केदारनाथ मार्ग के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी

वर्ष 2013 में केदारनाथ आपदा के बाद पहली बार जब यात्रा मार्ग को दुरस्त करने का कार्य प्रदेश सरकार ने कर्नल कोठियाल को सौंपा तो यह एक ऐसा कार्य था जिसे स्वयं इस क्षेत्र में विशिष्ट अनुभव व प्रशिक्षण कार्यबल रखने वाली संस्थायें भी स्वीकार करने में हिचक रही थी। पुनर्निर्माण कार्य में अनुभवहीन परंतु चुनौतियों को स्वीकार करने का हौसला रखने वाले कर्नल ने इस कार्य को करना स्वीकार किया और 3 मार्च 2014 को हवाई मार्ग से केदारनाथ का सर्वे किया। 8 मार्च को 12 सदस्यीय दल को हवाई रास्ते से केदारनाथ ले जाया गया। दल की अगवाई स्वयं कर्नल कर रहे थे और केदारनाथ में हेलीकॉप्टर से कूदकर उतरना पड़ा था।

मार्च की शुरुआत में केदानाथ में लगभग 10 फुट बर्फ थी जिसमें इस टीम ने अपना काम शुरू किया। बर्फ को साफ कर पहले दो रातें केदारनाथ में गुजारकर इलाके का निरीक्षण किया और वैकल्पिक व संभावित मार्गो को चिन्हित करते हुए ये टीम वापस रामबाड़ा पहुंची जो कि पैदल यात्रा के ठीक बीच में एक बड़ा पढ़ाव था पूरी तरह से नष्ट हो चुका था यात्रा मार्ग भी नेस्तनाबूद था। गौरीकुण्ड, जहां से पैदल यात्रा केदारनाथ के लिए शुरू होती है, पूरी तरह मलवे के ढे़र में दबा चुका था। गौरीकुंड से चार किलोमीटर पहले सोनप्रयाग तक, अधिकतर स्थानों में सड़क भी पूरी तरह गायब थी। ऐसे हालात में केदारनाथ की यात्रा को उसके नियत समय से, मई के प्रथम सप्ताह में, शुरू करवाने के लिए रास्ता बनाना और मार्ग में ठहरने के लिए कॉटेज निर्माण आदि अपने आप में एक बड़ी चुनौती थी। लोग इतने ज्यादा भयभीत थे कि सोनप्रयाग तक जाने से स्थानीय लोग भी बचते थे। बहुत से खच्चर भी बाढ़ में बह गए थे इसलिए सामान लेकर जाना भी मुश्किल था। कर्नल कोठियाल ने नेपाल मूल के 200 लोगों की एक टोली रामबाड़ा में बनाई। इन लोगों के ठहरने, खाने के सामान के साथ-साथ भारी मात्रा में सीमेंट, लोहा, उपकरणों की आवश्यकता थी। इतनी ऊंचाई पर हेलीकॉप्टर से ही सामान आ सकता था लेकिन उसके लिए हेलीपैड की जरूरत थी। यानी पहला काम था हेलीपैड बनाना। नेपाल से करीब 1200 मजदूर मंगवाए और धीरे-धीरे रास्ते का काम शुरु किया गया। हेलीपैड, पुलिया निर्माण, शेल्टर आदि भी बनने शुरू हुए।

इंजीनियरिंग के बड़े उपकरणों को पहुंचाने के लिए मालवाहक हेलिकॉप्टर को 11700 फीट की ऊँचाई पर और बर्फ से ढकी पहाड़ियों के बीच उतारने कैसे सम्भव हो, इसके लिए एयरफोर्स से विशेषज्ञों को केदारनाथ बुलाया गया और उनकी सलाह से एक विशालकाय हेलीपेड का निर्माण किया गया। यह हेलीपेड 150 मीटर लम्बा एवं 50 मीटर चौड़ा था जो कि भारतीय वायु सेना में एक मात्र हेलीकॉप्टर एमआई 26 के लिए बनाया जाना था ताकि ये भारी भरकम मशीन केदारनाथ में उतारी जा सकें। लगातार 4 महीनों की कठिन मेहनत के बाद 28 दिसम्बर 2014 को इस विशालकाय हेलीपेड का निर्माण हुआ। 4 जनवरी 2015 को यह हेलिकॉप्टर केदारनाथ में सफलतापूर्वक लैंड हुआ। 11,600 फीट की ऊँचाई पर भारतीय वायु सेना ने लैंडिंग कराकर रिकॉर्ड बनाया।

केदारनाथ मंदिर के कपाट बंद होने के बाद वहां कोई नहीं रहता। यह पहली बार हो रहा था कि कपाट बंद होने के बाद भी कर्नल कोठियाल के नेतृत्व वाली टीम केदारनाथ में डटी रही, जहां उस वक्त लगभग 15 से 18 फीट बर्फ थी। 2015 में केदारनाथ में हुई भारी बर्फवारी ने पिछले कई सालों का रिकार्ड तोड़ा जिससे अप्रैल माह के अंतिम सप्ताह में भी रामबाड़ा से केदारनाथ तक का पूरा रास्ता बर्फ से ढका हुआ था। पूरे रास्ते की बर्फ साफ करके यात्रा को सुचारु रुप से चलाया।
यात्रियों के लिए केदारनाथ धाम में ठहरने के लिए 100 टैंटों से बनाई गई टेंट कॉलोनी, यात्रियों के लिए स्वागत कक्ष एवं भोजनालय का निर्माण किया गया। बायो टॉयलेट, प्रवचन हाल, पुल निर्माण, खच्चर पड़ाव इत्यादि का निर्माण यात्रा के शुरु में ही हो गया था। केदारनाथ में मन्दिर के पीछे इटली की तकनीक से त्रिस्तरीय दीवार का निर्माण किया गया जिससे केदारपुरी को सुरक्षित किया जा सके।

भारतीय सेना से इस कार्य में तैनात उनकी टीम के सदस्य निरंतर, एक दिन का भी अवकाश लिए बगैर, दिन रात इस कार्य में लगे रहे और अत्यंत विषम परिस्थितियों में काम पूरा हुआ। केदारनाथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे प्रिय प्रोजेक्ट्स में से है। जल प्रलय के बाद केदारनाथ को इसकी भव्यता लौटाने के लिए कर्नल अजय कोठियाल को हमेशा याद रखा जाएगा। यहां के लोग कर्नल कोठियाल को केदारनाथ का भगीरथ कहते हैं।

सैन्यबल की नर्सरी बन गया यूथ फाउण्डेशन

वर्ष 2013 में कर्नल कोठियाल का नेहरु पर्वतारोहण संस्थान, उत्तरकाशी में बतौर प्रधानाचार्य के पद पर आना जैसे गढ़वाल के युवाओं के सपनों में पंख लगने जैसा था। उत्तराखंड में आई भीषण आपदा से एक महीने पहले मई 2013 की बात है। एक व्यक्ति अपने लड़के को फौज में भर्ती करने की सिफारिश के लिए कर्नल कोठियाल के पास आया। कर्नल कोठियाल ने उस व्यक्ति से वादा किया कि तुम्हारा लड़का सेना में जाकर देशसेवा करेगा जरूर लेकिन किसी की सिफारिश से नहीं, बल्कि अपनी प्रतिभा के दम पर। उन्होंने उस व्यक्ति से कहा कि फिलहाल इसे मेरे पास ही छोड़ जाओ। तुम्हें इसके सेना में जाने में भर्ती होने की खबर भी समय आने पर मिलेगी। कर्नल कोठियाल ने उस लड़के के साथ-साथ कई अन्य युवाओं को भी जिनकी सेना में जाने में बड़ी रूचि थी और वे उनसे अपनी इच्छा जता चुके थे, सबको बुलाया। उनके पास 32 युवा हो गए जो फौज में जाना चाहते थे। कर्नल कोठियाल ने उनको प्रशिक्षण देना शुरु किया। इन युवाओं के खाने, रहने और प्रशिक्षण का सारा खर्चा अपनी तनख्वाह से उठाया। कर्नल कोठियाल चाहते थे कि उनके हाथ से प्रशिक्षण लेकर गए युवा फौज के लिए एक अहम पूंजी साबित हो सकें। उन्होंने शारीरिक रुप से तैयार करना शुरु किया। इसी बीच 2013 की त्रासदी हो गई और इन युवाओं ने उत्तरकाशी में खोज और बचाव कार्यों में अपनी बड़ी भूमिका निभाई।

2013 में अपने बचाव अभियानों की वजह से बहुत शोहरत बटोरने वाले कर्नल कोठियाल के कंधों पर सरकार ने केदारघाटी के पुनर्निर्माण की जिम्मेदारी भी डाली। उस काम में स्थानीय युवाओं ने उनका भरपूर सहयोग दिया। काम पूरा होने के बाद कर्नल कोठियाल उन्हें भूले नहीं। आपदा की मार से जूझ रहे ग्रामीण युवाओं को सेना और सुरक्षाबलों में भर्ती के लिए प्रशिक्षित करना शुरू किया।

कुछ महीने बाद में इन 32 युवाओं में से 28 का चयन भारतीय सेना के लिए हो गया। इसकी सूचना उत्तरकाशी, रुद्रप्रयाग, टिहरी और चमोली में बहुत जल्दी फैल गई और हर जगह से युवा कर्नल कोठियाल से प्रशिक्षण लेने आने लगे। इस तरह वर्ष 2013 में ही उत्तरकाशी, भटवाड़ी और गजा (टिहरी) 3 कैंप लगाए गए। इन 3 कैंपो में 450 युवा शामिल हुए जिसमें 26 लड़कियां भी थीं जो उत्तराखंड पुलिस के लिए तैयार हो रही थीं। इन सब युवाओं के प्रशिक्षण केंद्रों, रहने- खाने की व्यवस्था, सेना से सेवानिवृत प्रशिक्षक का वेतन, खाना बनाने के लिए रसोई में काम करने वाले का वेतन जैसा सारा खर्च कर्नल कोठियाल ने अपनी तनख्वाह से किया।

वर्ष 2014 में केदारनाथ में पुर्ननिर्माण का जिम्मा मिलने के बाद रुद्रप्रयाग जिले के गुप्तकाशी (विद्यापीठ) में एक और कैंप खोला गया। अब इस तरह से वर्ष 2014 में इन कैंपों की संख्या 3 से बढ़कर 6 हो गई लेकिन इतना सारा खर्चा कर्नल की सैलरी से ज्यादा हो रहा था। इसलिए कर्नल कोठियाल ने अपने साथियों से मदद की गुहार लगाई, जिसमें से किसी ने कैंप में राशन, किसी ने सोने के लिए मैटरेस और स्लीपिंग बैग और किसी ने जलाने के लिए लकड़ी की व्यवस्था की। इस तरह से इन कैंपों की मदद से वर्ष 2014 तक 1500 से भी ज्यादा लड़के भारतीय सेना, अर्धसैनिक बल और पुलिस बल का हिस्सा बने।

साल-दर-साल इन कैंपों की संख्या बढ़ती गई और यहां प्रशिक्षण लेकर उत्तराखंड के युवा भारतीय सेना का हिस्सा बनते गए। इस तरह युवाओं का इन कैंपों के प्रति रुझान और इन कैंपों की सफलता को देखते हुए 19 अप्रैल 2015 में इसको एक नाम दिया गया यूथ फाउंडेशन। इसमें उत्तर प्रदेश, पंजाब और जम्मू कश्मीर के युवा भी प्रशिक्षण के लिए आने लगे। इस तरह यूथ फाउंडेशन ने पूरे उत्तराखंड में युवाओं और युवतियों के लिए गांव-गांव जाकर चयन प्रक्रिया शुरु की और वहां चयनित युवाओं और युवतियों को प्रशिक्षण देकर भारतीय सेना में जाने के रास्ते को आसान बनाया। इस तरह आज यूथ फाउंडेशन के माध्यम से भारतीय सेना, अर्धसैनिक बल, पुलिस बलों में पिछले 5 साल में 7500 से भी ज्यादा युवा और युवतियां ने अपने भविष्य को संवारा है। अभी पूरे उत्तराखंड में यूथ फाउंडेशन के 10 कैंप लगे हैं जिसमें से 8 कैंप गढ़वाल मंडल में और 2 कैंप कुमांऊ मंडल में हैं। प्रत्येक कैम्प में प्रशिक्षणार्थियों की संख्या 150 के लगभग रहती है जो कि सभी कैंपों में यह संख्या प्रतिदिन 1200 से 1500 के लगभग होती है। एक साल में दो बार इस तरह के कैंप लगाए जाते है जिसमें प्रत्येक युवा और युवती को 120 दिन तक का प्रशिक्षण दिया जाता है।

कर्नल अजय कोठियाल हमेशा से ही जमीन से जुड़ने वाले इन्सान हैं। जिनसे एक बार मुलाकात होती है वो हर इन्सान इनसे बार बार जुड़ना चाहता है। सभी के लिए हमेशा मार्गदर्शक एवं प्रेरणास्रोत रहे हैं। सिर्फ इनकी बटालियन या रेजिमेंट के ही नही बल्कि भारतीय सेना के अलग अलग रेजिमेंट के जवान तथा नई पीड़ी के नौजवान इनसे जुड़े रहे हैं। कर्नल कोठियाल कहते हैं, जो अगर, मगर और काश को छोड़कर तलाश में निकलिए, जहां रास्ता बंद नजर आता है, वहीं एक खिड़की, एक रोशनदान खुल जाता है।

(हिल वॉरियर्स से साभार)

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