मेजर सोमनाथ शर्मा को मिला था वीरता के लिए देश का पहला ‘परमवीर चक्र’

मेजर सोमनाथ शर्मा को मिला था वीरता के लिए देश का पहला ‘परमवीर चक्र’

मेजर सोमनाथ शर्मा को अद्वितीय एवम् अनुकरणीय साहस, वीरता और नेतृत्व के लिए 1950 में मरणोपरान्त स्वतंत्र भारत के प्रथम सर्वोच्च वीरता पदक, परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

देश के पहले परमवीर चक्र विजेता मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी 1923 को पंजाब प्रांत के कांगड़ा जिले के दाध गांव में हुआ था। उन्होंने 22 फरवरी 1942 को कुमांऊ रेजीमेंट की 4 कुमांऊ बटालियन में कमीशन लिया था। इसके अलावा वह द्वितीय विश्वयुद्ध में कम्पनी की कमान सम्भाल चुके थे।

26 अक्तूबर 1947 को जब मेजर सोमनाथ शर्मा की कम्पनी को कश्मीर जाने का आदेश दिया गया उस समय मेजर सोमनाथ के बायें हाथ की हड्डी टूटी हुई थी और हाथ पर प्लास्टर चढ़ा हुआ था। उन्हें सलाह दी गयी कि वह इस स्थिति में युद्ध के मैदान में अपनी कम्पनी का नेतृत्व प्रभावशाली ढंग से नहीं कर पायेंगे। उनके अपने शारीरिक हित के लिये भी उनका युद्ध के लिए कश्मीर न जाना ही उचित होगा।

सोमनाथ शर्मा ने उत्तर दिया कि क्या भारत की सेना की परम्परा इस बात की आज्ञा देती है कि जवान जब युद्ध के लिए कूच करने को तैयार खड़े हों उस समय उनके अफ़सर पीछे रह जायें? नही ऐसा कभी नहीं हो सकता, मैं इस परीक्षा की घड़ी में अपनी कम्पनी की कमान नहीं छोड़ सकता। मेजर शर्मा के दृढ़ संकल्प के आगे किसी की एक न चली और वह अपनी कम्पनी के साथ कश्मीर के लिए रवाना हो गये।

3 नवम्बर 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा की कम्पनी को कश्मीर के बड़गाम इलाके़ में एक लड़ाकू पेट्रोल ले जाने का आदेश दिया गया। वह अपनी कम्पनी को लेकर 3 नवम्बर की सुबह बड़गाम की पहाड़ियों में पहुंचे और वहां मोर्चा सम्भाला। अभी कम्पनी के मोर्चे ठीक से तैयार भी नहीं हो पाये थे कि लगभग 700 क़बाइलियों ने उनकी कम्पनी पर हमला बोल दिया। हमलावर तीन इंच मोर्टार, लाइट मशीन गन और राइफ़लों से लैस थे। अपने से सात-गुना ज़्यादा दुश्मन के तीन तरफ से कारगर फ़ायर के सामने कम्पनी के जवान वीरगति को प्राप्त होने लगे। कम्पनी का बहुत ज़्यादा नुक़सान होने लगा।

मेजर शर्मा यह भली भांति जानते थे कि यदि उनकी कम्पनी इस मोर्चे से पीछे हट गयी तो श्रीनगर शहर और उसके एक मात्र हवाई अड्डे के लिए गम्भीर संकट पैदा हो जायेगा। उन्होंने अपनी कम्पनी को आखि़री गोली और आखि़री सांस तक लड़ते रहने के लिए प्रेरित किया। अपनी सुरक्षा की चिन्ता न करते हुए मेजर शर्मा एक मोर्चे से दूसरे मोर्चे में जाकर अपने जवानों का हौसला बढ़ाते रहे। अपनी कम्पनी के सीमित फ़ायर का कुशलता पूर्वक नियंत्रण करते रहे। अपनी जान की परवाह न करते हुए उन्होंने हवाई जहाज़ के मार्गदर्शन के लिए कपड़े का संकेत चिन्ह बिछाया जिससे अपने लड़ाकू विमान दुश्मन पर फ़ायर कर सकें।

अपने जवानों के हताहत हो जाने के कारण मशीनगन चलाने के लिए भी जवानों की कमी पड़ने लगी। अपने बायें हाथ पर चढ़े हुए प्लास्टर के बावजूद मेजर शर्मा ने स्वयं मेगज़ीन में गोलियां भरकर मशीनगन चलाने वाले जवानों को देना शुरू कर दिया। तभी दुश्मन का एक बम मेजर शर्मा के आसपास रखे गोला-बारूद में आकर गिरा। एक ज़ोरदार धमाका हुआ और मेजर सोमनाथ शर्मा वीरगति को प्राप्त हो गये।
अपने कम्पनी कमांडर के बलिदान से प्रेरित कम्पनी छः घंटे तक दुश्मन से लड़ती रही और उसे उस समय तक आगे बढ़ने से रोकती रही जब तक अपनी सेना की टुकड़ियां श्रीनगर हवाई अड्डे की सुरक्षा के लिए पहुंच न गयीं।

मेजर सोमनाथ शर्मा ने ऐसे साहस और वीरता का परिचय दिया जो भारतीय सेना के इतिहास में अद्वितीय है। वीरगति को प्राप्त होने से तुरन्त पहले मेजर शर्मा अपने ब्रिगेड हेडक्वार्टर को जो संदेश दे रहे थे वह कुछ इस प्रकार था, ‘‘दुश्मन हमसे केवल पचास गज़ दूर है। उसकी नफ़री हमसे बहुत ज़्यादा है। हमारे ऊपर बहुत सख़्त और कारगर फ़ायर आ रहा है। परन्तु मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा। हम आख़िरी गोली और आख़िरी सांस तक लड़ते रहेंगे।’’

इस अद्वितीय एवम् अनुकरणीय साहस, वीरता और नेतृत्व के लिए मेजर सोमनाथ शर्मा को 1950 में मरणोपरान्त स्वतंत्र भारत के प्रथम सर्वोच्च वीरता पदक, परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।

मेजर सोमनाथ शर्मा के पिता मेजर जनरल ए.एन. शर्मा, सेना में उच्चाधिकारी थे। उनके छोटे भाई, जनरल वी.एन. शर्मा, पीवीएसएम, एवीएसएम भारतीय सेना के सेनाध्यक्ष रह चुके हैं। एक सैनिक परिवार से जुड़े होने के कारण साहस, वीरता और बलिदान के गुण उन्हें पारिवारिक परम्परा के रूप में मिले थे।

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