पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने वाडिया संस्थान समेत तमाम वैज्ञानिक समुदाय का आह्वान करते हुए कहा है कि वे उत्तराखंड में मौजूद खनिज संपदा की इकॉनमिक ग्रेडिंग जांचे, ताकि यह पता चल सके कि यह आर्थिक रूप से ये कितने फायदेमंद हो सकते हैं।
उत्तराखंड में बेशकीमती खनिज संपदा मौजूद है। उत्तराखंड जैसे पहाड़ी सूबे के लिए खनिजों का यह भंडार आर्थिक उन्नति का बड़ा आधार बन सकता है, लेकिन राज्य गठन के दो दशक बीत जाने के बाद भी वैज्ञानिकों की मदद से यह जानने के पर्याप्त प्रयास नहीं हुए कि उत्तराखंड में उपलब्ध खनिजों की आर्थिक रूप से व्यवहार्यता कितनी है। उत्तराखंड में वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों के पास तमाम ऐसी तकनीकें हैं, जिनसे पता लगाया जा सकता है कि उत्तराखंड के एक बड़े भूभाग में फैली खनिज संपदा कितना बड़ा एसेट है।
अब इस संबंध में पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने एक बड़ी पहल की है। उन्होंने वैज्ञानिक समुदाय का आह्वान करते हुए कहा है कि वे उत्तराखंड में मौजूद खनिज संपदा की इकॉनमिक ग्रेडिंग जांचे, ताकि यह पता चल सके कि यह आर्थिक रूप से ये कितने फायदेमंद हो सकते हैं। उत्तराखंड में मैग्नेसाइट, अभ्रक, बैराइट, ग्रेफाइट, जिप्सम, फॉस्फोराइट, तांबा, सीसा और जस्ता, बजरी, चूना पत्थर, संगमरमर, रॉक फॉस्फेट, डोलोमाइट जैसे खनिज हैं।
त्रिवेंद्र सिंह रावत इन दिनों लगातार वैज्ञानिकों से संवाद कर रहे हैं। उनकी इस मुहिम का केंद्र भले ही वृक्षारोपण हो लेकिन वह उत्तराखंड से जुड़े तमाम मुद्दों पर वैज्ञानिकों का पक्ष जान और समझ रहे हैं। हाल ही में उन्होंने वाडिया भू-विज्ञान संस्थान का दौरा किया। यहां उनकी रूचि ये जानने में रही कि क्या उत्तराखंड की खनिज संपदा की आर्थिक व्यवहार्यता को लेकर कोई शोध हुआ है? क्या यह पता लगाया गया है कि ये किस इकॉनमिक ग्रेड के हैं, उत्तराखंड में प्राकृतिक स्रोतों को बचाने के लिए विज्ञान की तकनीकों का कितना प्रयोग किया जा रहा है? क्या इस दिशा में सरकार और वैज्ञानिक समुदाय कोई संयुक्त पहल कर सकता है? उत्तराखंड में दरकते पहाड़ों की समस्या से निपटने के लिए क्या उपाय हैं? पहाड़ों में नदियों का भूकटान एक बड़ी समस्या बन रहा है, यह जानमाल के लिए भारी नुकसानदेह साबित हो रहा है, ऐसे कौन से उपाय हैं जिनसे इस पर लगाम लगाई जा सकती है? माइनिंग की सही तकनीक क्या है? क्या नदियों में होने वाले खनन की अवैज्ञानिक तकनीक ही नदी के किनारों पर होने वाले भूकटान का सबसे बड़ा कारण है? उन्होंने उत्तराखंड के प्राकृतिक स्रोतों को सूखने या लुप्त होने से बचाने के लिए वाडिया संस्थान के वैज्ञानिकों को सरकार के साथ मिलकर काम करने की अपील की है।
इन तमाम सवालों का जवाब देते हुए वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के निदेशक डा. कालाचंद साईं ने बताया कि अभी तक खनिजों की आर्थिक व्यवहार्यता का पता लगाने की दिशा में कोई व्यापक शोध नहीं हुआ है, हालांकि संस्थान को अगर यह काम सौंपा जाए तो उनके पास इसके लिए पर्याप्त वैज्ञानिक तकनीक और विशेषज्ञ हैं। इस दौरान यह भी बताया कि गया कि उत्तराखंड में नदियों द्वारा होने वाले भू-कटान का एक बड़ा कारण अवैज्ञानिक तकनीक से किया जाने वाला खनन है। नदियों को किनारों पर खनन करते समय लेयर तकनीक से खनन किया जाना चाहिए, लेकिन आमतौर पर देखा गया है कि खनन करते समय नदियों में बड़े-बड़े गढ्डे कर दिया जाते हैं, इसकी वजह से नदियों का बहाव उस दिशा में मुड़ जाता है और नतीजा नदियों का किनारों पर कटाव के रूप में सामने आता है। वैज्ञानिकों ने कहा कि खनन के दौरान निगरानी भी एक जरूरी शर्त होनी चाहिए। इसके साथ ही डा. साईं की ओर से बताया गया कि अगर सरकार चाहे तो संस्थान प्राकृतिक स्रोतों को बचाने के लिए वैज्ञानिक तकनीकें सुझा सकता है। उन्होंने पर्यावरण को भी प्राकृतिक स्रोतों के संरक्षण के लिए बहुत आवश्यक बताया।
जल-स्रोतों को दे सकते हैं नया जीवन!
डा. साईं ने बताया कि हमारे पास ऐसी तकनीक है जिनसे यह पता लगाया जा सकता कि एक समय में जो स्वस्थ जल-स्रोत था, वह लुप्त क्यों हुआ या सूख क्यों गया? दरअसल, जहां से ये स्रोत रिचार्ज होते हैं, वो रास्ते बंद हो गए हैं। मान लीजिए कि वहां पर ज्यादा जंगल होता तो पेड़ पौधे ज्यादा पानी को नीचे सोख लेते, धरती की दरारें आदि भी यहीं काम करतीं लेकिन शहरीकरण के नाम पर हमने रिचार्ज जोन को दबा दिया। हम सर्वे के जरिये ये पता लगा सकते हैं कि जलस्रोत सूखा क्यों, इसका कारण क्या है। एक बार कारण पता लग जाता है तो इसका उपाय किया जा सकता है। वाटर शेड मैनेजमेंट, रिचार्ज जोन को फिर से खोलना, वृक्षारोपण, पानी को लेकर लोगों को जागरुक कर जलस्रोतों को फिर से जीवित किया जा सकता है। उन्होंने बताया कि आइसोटोपिक शोध के जरिये यह पता लगाया जा सकता है कि कहां से पानी आता है, कहां से पानी रिचार्ज हो रहा है, कहां पानी स्टोर हो रहा है, स्टोर पानी का रिजर्व कितना है और वहां से कितना डिस्चार्ज हो रहा है। एक बार यह पता लगाने के बाद जल-स्रोत को फिर से जीवित किया जा सकता है।
डा. साईं ने बताया कि हमारे वैज्ञानिकों ने कई वर्षो के शोध के बाद जल-स्रोतों की मैपिंग की है। हमारे पास यह पता लगाने की तकनीक है कि कहां-कहां जल स्रोत हैं? सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि जल-स्रोत है क्या? बारिश का पानी जब धरती की दरारों से नीचे आकर एक जगह जमा होता है और फिर दबाव बढ़ने पर सतह पर आ जाता है, इसी को जल-स्रोत कहते हैं। अब मान लीजिये कि ये प्रक्रिया अगर बंद हो जाए तो हमारे स्रोत रिचार्ज नहीं होंगे। रिचार्ज नहीं होने से जल-स्रोत खत्म हो जाएंगे। हमारी स्टडी से यह पता लग सकता है कि यह कहां से रिचार्ज होता है, उस रिचार्ज एरिया में कोई बाहरी इंपैक्ट हुआ है क्या? क्या शहरीकरण के कारण उसे नुकसान पहुंचा है? जंगलों का कटना भी जल-स्रोतों के सूखने में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।
डा. साईं कहते हैं कि वैज्ञानिक शोध से इन सभी कारणों का पता लगाया जा सकता है। जो स्रोत लुप्त हो गए हैं, उन्हें रिचार्ज करने के लिए हम एक वॉल बनाते हैं, वाटर शेड्स मैनेजमेंट के जरिये वहां पिट बना सकते हैं। डा. साईं ने कहा कि आज से 20-25 साल पहले बारिश काफी समय तक होती थी लेकिन सीमित मात्रा में होती थी, अब कम समय में बहुत ज्यादा बारिश होती है। इससे पानी सतह के अंदर न जाकर बह जाता है। दूसरा विकास के नाम पर कुछ ऐसी गतिविधियां हो जाती हैं, जिनसे स्रोतों तक पानी नहीं पहुंचता। इसलिए वैज्ञानिक तरीके से मृतप्रायः स्रोतों को फिर नया जीवन दिया जा सकता है। उन्होंने बताया कि 1987 से 1990 तक संस्थान की एनआरडीएमएस टीम ने जल संरक्षण पर गढ़वाल जिले में कई महत्वपूर्ण जगहों पर काम किया।
कोविड के दौरान नदियों का हुआ कायाकल्प
वाडिया भू-संस्थान के वैज्ञानिकों के मुताबिक, प्रयोगशालाओं और आसपास किए गए परीक्षणों में पाया गया कि कोविड19 के दौरान उत्तराखंड की अपर गंगा, यमुना नदी प्रणाली (अलगनंदा, भागीरथी, टोंस) में पानी की गुणवत्ता में अभूतपूर्व सुधार हुआ। यह बिना किसी परंपरागत ट्रीटमेंट के साधारण फिल्टर के बाद ही पीने योग्य पाया गया। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर मानवजनित गतिविधियों के मामलों को ठीक से हल किया जाए तो नदियां का पुनरोद्धार अपने आप हो जाता है।
वाडिया संस्थान में किया वृक्षारोपण
इस दौरान, पूर्व मुख्यमंत्री ने वाडिया संस्थान में बरगद का पौधा लगाया। संस्थान के वैज्ञानिकों ने हिमालय में ग्लेशियरों और भूगर्भीय स्थितियों को लेकर किए जा रहे अध्ययनों की जानकारी दी। पूर्व मुख्यमंत्री ने वरिष्ठ वैज्ञानिकों के साथ संग्रहालय, प्रयोगशाला का दौरा किया। इस अवसर पर वरिष्ठम विधायक हरबंस कपूर भी साथ रहे।
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