चकोर पक्षी के बारे में कवियों, शायरों और गीतकारों ने खूब लिखा है। जब भी किसी प्रेमी की अपनी प्रतिका के प्रति प्रेम की पराकाष्ठा, समर्पण और आत्म-त्याग को दर्शाना होता है तो कवियों ने चांद व चकोर को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल किया है। इसमें चांद को प्रेमिका और चकोर को प्रेमी के तौर पर पेश किया जाता रहा है।
डॉ. हरीश चन्द्र अन्डोला
चकोर सिर्फ कवियों की कल्पनाओं में ही शामिल नहीं रहा है, बल्कि ये पाकिस्तान का राष्ट्रीय पक्षी भी है। ये भारत और पाकिस्तान के पहाड़ी इलाकों में पाया जाने वाला खूबसूरत पक्षी है। चकोर दिखने और स्वभाव में तीतर जैसा पक्षी है। ये 4,000 से 13,000 फीट की ऊंचाई वाले इलाकों में पाए जाते हैं। चकोर के पंखों पर काले और सफेद धारीदार निशान होते हैं। इसके चमकदार लाल चोंच और आंखों के चारों ओर लाल छल्ला होता है। एक काली पट्टी उनके चेहरे से लेकर छाती तक जाती है। चकोर उड़ सकते हैं, लेकिन आमतौर पर दौड़ते हैं और काफी फुर्तीले होते हैं। ये चट्टानी इलाके में के संयुक्त शोध में इस बात का खुलासा हुआ है। शोध में कहा गया है कि अस्तित्व बचाने के लिए यहां पाए आसानी से उड़ने में सक्षम होते हैं।
पाकिस्तान में चकोर पक्षी को प्रेम का प्रतीक माना जाता है। चकोर पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों में रहते हैं। वे झाड़ियों और घास के मैदान वाले पहाड़ी इलाकों को पसंद करते हैं। उनकी सीमा पूर्व में चीन और पश्चिम में तुर्की और ग्रीस तक फैली हुई है। चकोर अमेरिका में भी पाए जाते हैं। इयके अलावा ये पक्षी कनाडा के पश्चिमी राज्यों में भी मिल जाता है। ’चंदा की चकोरी।’ प्रेमरस से लबरेज गीतकारों का चकोर हो या भक्तिरस में भीगे ’श्याम चंदा की श्यामा चकोरी’, प्रणय के प्रतीक चकोर कवियों के रचना संसार को भी महकाता रहा है। सुखद पहलू यह कि कभी शिकारियों के निशाने पर रहे इस ’प्रेम पुजारी’ का कुनबा हिमालयी राज्य में धीरे धीरे विस्तार ले रहा थे।
हिमालयी राज्यों में बढ़ रहे मानवीय दखल और जलवायु परिवर्तन के कारण अब यहां के दुर्लभ परिंदों का अस्तित्व भी खतरे में है। उत्तराखंड, जम्मू और हिमाचल में वन अनुसंधान संस्थान देहरादून और राष्ट्रीय हिमालयी अध्ययन मिशन जाने वाले अनेक परिंदे अब यहां से पलायन कर रहे हैं। शोध में पाया गया है कि पर्यावरणीय स्थितियां अनुकूल न होने के कारण यह दुर्लभ प्रजातियां उच्च हिमालयी क्षेत्रों की ओर पलायन कर रही हैं। आने वाले समय में इन पक्षियों को आवासीय दृष्टि से और अधिक समस्याओं से जूझना पड़ेगा। वनों की आग, मानव आबादी का विस्तार, ताप परिवर्तन इसके प्रमुख कारण हैं। भविष्य में इन पक्षियों को बढ़ते तापमान, प्रदूषण, पैराबैंगनी प्रभाव, हवाओं के दबाव, कार्बन उत्सर्जन आदि के कारण भी जीवन बचाने के लिए पलायन के लिए बाध्य होना पड़ सकता है।
शोध के अनुसार वर्ष 2050 के बाद यह पक्षी 25 से 55 प्रतिशत तक हिमालय में पूर्वी क्षेत्रों की ओर स्थानांतरित होंगे। पर्यावरण से जुड़े अध्ययनों में भी सहायक होंगे। दुर्लभ पक्षियों के संरक्षण के लिए गंभीरता से कार्य करने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन और तापमान बढ़ने से हिमालयी क्षेत्रों में वनस्पतियां भी अपना स्थान बदलकर ऊंचाई वाले क्षेत्रों की बढ़ रही हैं। जिन्हें हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र के लिए सही नहीं माना जा सकता। तापमान में हो रही वृद्धि ग्लेशियरों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही है। वे तेजी से पिघल रहे हैं। सदानीरा रहने वाली नदियों का भविष्य इससे संकट में है।
प्रकृति को हम भूलते जा रहे हैं। ये भविष्य के लिए शुभ संकेत नहीं हैं। पृथ्वी पर प्रत्येक मनुष्य का जीवन बचा रहे, इसके लिए प्रत्येक परिस्थितिक तंत्र का बने रहना जरूरी है। पारिस्थितिक तंत्र का संतुलन और पारिस्थितिक तंत्र से संतुलन इन दोनों का ही महत्त्व है। प्रत्येक वेटलैंड का अपना पर्यातंत्र होता है अर्थात पारिस्थितिक तंत्र होता है। जैव विविधता होती है, वानस्पतिक विविधता होती है। ये वेटलैंड जलजीवों, पक्षियों आदि प्राणियों के आवास होते हैं। वेटलैंड के जल संरक्षण, जल प्रबंधन के पीछे यही उद्देश्य है कि जल के संरक्षण के साथ-साथ उनके पारिस्थितिक तंत्र को भी संरक्षण दिया जाए।
(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं।)
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